Sunday, December 22, 2013

Murli-[22-12-2013]- Hindi

22-12-13            प्रात: मुरली           “अव्यक्त बापदादा”           रिवाइज 29-05-77           मधुवन


“पुरुषार्थ की रफ़्तार में रुकावट का कारण और उसका निवारण”

हरेक पुरुषार्थी यथा शक्ति पुरुषार्थ में चल रहे हैं – बापदादा भी हरेक पुरुषार्थी की रफ़्तार को देखते, जानते हैं हरेक के सामने कौन से विघ्न आते हैं और कैसे लग्न से विघ्न-विनाशक बनते हैं | कभी रुकते हैं, कभी दौड़ लगाते हैं और कभी हाई जम्प भी लगाते हैं | लेकिन रुकावटें क्यों आती हैं, जिसके कारण तीव्र पुरुषार्थी से पुरुषार्थी बन जाते हैं? चढ़ती कला की बजाए ठहरती कला में आ जाते हैं | मालिक वा मास्टर सर्वशक्तिमान के बजाए, उदास वा दास बन जाते हैं | कारण? बहुत छोटी-छोटी बातें हैं | जैसे उस दिन सुनाया, मूल बात मैजारिटी के सामने व्यर्थ संकल्पों का तूफ़ान ज़्यादा है |

व्यर्थ संकल्प आने का आधार है, शुभ संकल्प अर्थात् शुद्ध विचार, ज्ञान के ख़ज़ाने की कमी | मिलते हुए भी यूज़ करना नहीं आता है और जमा करना नहीं आता है या तो विधि नहीं आती, इस कारण वृद्धि नहीं होती | सुना अर्थात् मिला, लेकिन उसी समय अल्पकाल की ख़ुशी वा शक्ति का अनुभव करके, ख़त्म कर देते हैं | जैसे लौकिक रूप में कमाया और खाया, कुछ खाया कुछ उड़ाया | इसी रीति से धारणा शक्ति की कमज़ोरी होने कारण, विधि से वृद्धि न करने के कारण सदा स्वयं को ज्ञान और शक्तियों के ख़ज़ाने से खाली अनुभव करते हैं, इसलिए निरन्तर शक्तिशाली नहीं बन पाते हैं | निरन्तर हर्षित नहीं रह सकते | कमज़ोर होने के कारण, माया के विघ्नों के वशीभूत वा माया के दास बन जाते हैं | साथ-साथ अन्य आत्माओं को सम्पन्न देखते हुए, स्वयं उदास हो जाते हैं | ज्ञान का ख़ज़ाना जमा करना, श्रेष्ठ समय का ख़ज़ाना जमा करना वा स्थूल ख़ज़ाने को, एक से लाख गुणा बनाना अर्थात् जमा करना, इन सब ख़ज़ानों को जमा करने का मुख्य साधन है – स्वच्छ अर्थात् प्योर बुद्धि और सच्ची दिल | प्योर बुद्धि का आधार है बुद्धि द्वारा बाप को जान, बुद्धि को भी बाप के आगे समर्पण करना | समर्पण करना अर्थात् मेरापन मिटाना | ऐसे बुद्धि को समर्पण किया है? शूद्रपन की बुद्धि समर्पण करना अर्थात् देना | तो देने के साथ दिव्य बुद्धि का लेना है | देना ही लेना है | जैसे सौदा करते हैं, तो देकर फिर लेते हैं ना | पैसा देना, वस्तु लेना | वैसे यहाँ भी देना ही लेना है | पहले सब कुछ देना है | कैसे? शुभ संकल्प द्वारा | सब कुछ बाप का है, मेरा नहीं | मेरेपन का अधिकार छोड़ना, इसी को ही समर्पण कहा जाता है | इसी को ही नष्टोमोहा स्टेज कहा जाता है | स्मृति स्वरूप न होने का कारण वा व्यर्थ संकल्प चलने का कारण, उदास वा दास बनने का कारण मेरेपन से नष्टोमोहा नहीं हैं | मेरेपन का विस्तार बहुत है | बापदादा भी सारा दिन सभी बच्चों का, विशेष देने की चतुराई का खेल देखते रहते हैं | अभी-अभी देंगे, अभी-अभी फिर वापिस ले लेंगे | अभी-अभी मुख से कहेंगे मेरा कुछ नहीं, लेकिन मन्सा में अधिकार रखा हुआ है | अधिकार अर्थात् लगाव | कभी कर्म से देकर वाणी से वापिस ले लेते | चतुराई यह करते हैं कि नए के साथ पुराना भी अपने पास रखना चाहते हैं | कहलाते हैं ट्रस्टी, लेकिन प्रैक्टिकल हैं गृहस्थी | तो व्यर्थ संकल्प मिटाने का आधार है, गृहस्थीपन छोड़ना | चाहे कुमारी है वा कुमार है लेकिन, मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार, मेरी बुद्धि यह विस्तार गृहस्थीपन है | जो समर्पण हो गए तो जो बाप का स्वभाव, वह आपका स्वभाव | जो बाप का संस्कार, वह आपके संस्कार | जैसे बाप की दिव्य बुद्धि, वैसे आपकी | तो दिव्य बुद्धि में स्मृति न रहे, यह नहीं हो सकता | एक घंटे की अवस्था भी चेक करो तो सदैव संकल्पों का आधार कोई न कोई मेरापन ही होगा | मेरेपन की निशानी सुनाई लगाव |

लगाव की भी स्टेज़ेस हैं | एक है सूक्ष्म लगाव, जिसको सूक्ष्म आत्मिक स्थिति में स्थित होकर ही जान सकते हैं | दूसरे हैं स्थूल रूप के लगाव, जिसको सहज जान सकते हो | सूक्ष्म लगाव का भी विस्तार बहुत है | बिना लगाव के, बुद्धि की आकर्षण वहाँ जा नहीं सकता | तो लगाव की चेकिंग हुई लगाव | चाहे संकल्प में हो, वाणी में हो, कर्म में हो, सम्बन्ध में हो, सम्पर्क में हो, न चाहते हुए भी समय उस तरफ़ लगेगा ज़रूर | इस कारण व्यर्थ संकल्प का मूल कारण है – लगाव | इसको चेक करो, जिन बातों को आप नहीं चाहते हो, वह भी व्यर्थ संकल्पों के रूप में डिस्टर्ब करती हैं | इसका भी कारण, पुराने स्वभाव और संस्कारों में मेरेपन की कमी है | जब तक मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार है, तो वह खीचेंगे | जैसे मेरी रचना, रचता को खींचती है, वैसे मेरा स्वभाव-संस्कार रूपी रचना आत्मा रचता को अपनी तरफ़ खींचेगी | मेरा नहीं, यह शूद्रपन का संस्कार है, शूद्रपन के संस्कार को मेरा कहना, यह महापाप है, चोरी भी है और ठगी भी है | शूद्रों की चीज़ अगर ब्राह्मण चोरी करते अर्थात् मेरा कहते, तो यह महापाप हुआ | और बाबा, यह सब कुछ आपका है, ऐसे कहकर फिर मेरा कहना, यह ठगी है | और इसी प्रकार के पाप होने से, पापों का बोझ बढ़ते जाने से, बुद्धि ऊँची स्टेज पर टिक नहीं सकती | इस कारण व्यर्थ संकल्पों के नीचे की स्टेज पर बार-बार आना पड़ता है और फिर चिल्लाते हैं कि क्या करें?

व्यर्थ संकल्पों का दूसरा कारण है सारे दिन की दिनचर्या में मन्सा, वाचा, कर्मणा जो बाप द्वारा मर्यादाओं सम्पन्न श्रीमत है, उसका किसी न किसी रूप में उल्लंघन करते हो | आज्ञाकारी से अवज्ञाकारी बन जाते हो | मर्यादाओं की लकीर से मन्सा द्वारा भी अगर बाहर निकलते, तो व्यर्थ संकल्प रूपी रावण, वार कर सकता है | तो यह भी चेकिंग करो, संकल्प द्वारा वाणी, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क द्वारा ब्राह्मणों की नीति और रीति को उल्लंघन तो नहीं करते हैं? अवश्य कोई नीति व रीति मिस है तब बुद्धि में व्यर्थ संकल्प मिक्स होते हैं | समझा – दूसरा कारण? इसलिए चेकिंग अच्छी तरह होनी चाहिए, तब व्यर्थ संकल्पों की निवृत्ति हो सकती है | सारा दिन बाप द्वारा जो शुद्ध प्रवृत्ति मिली हुई है, बुद्धि की प्रवृत्ति है शुद्ध संकल्प करना, वाणी की प्रवृत्ति है जो बाप द्वारा सुना वह सुनाना, कर्म की प्रवृत्ति है कर्मयोगी बन हर कर्म करना, कमल समान न्यारा और प्यारा बन रहना, हर कर्म द्वारा बाप के श्रेष्ठ कार्यों को प्रत्यक्ष करना हर कर्म चरित्र रूप से करना | चतुराई नहीं लेकिन चरित्र, वह भी दिव्य चरित्र | सम्पर्क की प्रवृत्ति है निमित्त स्वयं सम्पर्क में आते, सदा सर्व का जो बाप है उससे सम्पर्क कराना | तो ऐसी पवित्र प्रवृत्ति में बिज़ी रहने से व्यर्थ संकल्पों से निवृत्ति होगी | वह लोग कहते हैं प्रवृत्ति से निवृत्ति | बाप कहते हैं पवित्र प्रवृत्ति से ही निवृत्ति होगी | गृहस्थी अलग है – उनको गृहस्थी नहीं कहेंगे | पवित्र प्रवृत्ति को ट्रस्टी कहेंगे न कि गृहस्थी | तो समझा निवृत्ति का आधार पवित्र प्रवृत्ति है | अच्छा |

सदा मर्यादा पुरुषोत्तम, सर्व ख़ज़ानों को सफल करने वाले, सफलतामूर्त, व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने वाले, ऐसे बाप के आज्ञाकारी, सदा श्रीमत पर चलने वाले बच्चों को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते | 

पार्टियों के साथ –
शक्तियाँ अपना जलवा दिखायेंगी, पाण्डव साथ देंगे | शक्तियों को आगे रखना अर्थात् स्वयं आगे होना | उन्हों को आगे रखने से आपका नाम बाला हो जायेगा | जो त्याग करता है उसका भाग्य ऑटोमेटिकली जमा हो जाता है | शक्तियाँ शस्त्रधारी हो?

शस्त्रों से थक तो नहीं जाती? शस्त्रधारी शक्तियों का ही पूजन होता है | तो आप सभी पूज्य हो? पूज्य अर्थात् शस्त्रधारी | अगर किसी भी समय शस्त्र छोड़ देती तो उस समय पूज्य नहीं | शक्ति रूप नहीं तो कमज़ोर हो | कमज़ोर की पूजा नहीं होती | पूज्य अर्थात् सदा पूज्य – ऐसे नहीं कभी पूज्य, कभी कमज़ोर | तो शस्त्र सदा कायम रहते हैं? जब अपने को गृहस्थी समझते तब गृहस्थी का जाल होता | गृहस्थी बनना अर्थात् जाल में फँसना | ट्रस्टी अर्थात् मुक्त | सदा यही स्मृति रखो कि हम पूज्य हैं |

कैसी भी कोई परिस्थिति आवे, उसमें विजयी होने कारण राज़ी रहते | कभी बच्चों आदि से नाराज़ तो नहीं होते? जब कहते हो बच्चे, तो बच्चे अर्थात् बेसमझ | बच्चे अर्थात् चंचल, जब हैं ही चंचल स्वभाव, बेसमझ तो उनसे नाराज़ क्यों होते? जब राज़ को जानते हैं कि कलियुगी बच्चे हैं, तमोगुणी पैदाइस है तो ज़रूर चंचल होंगे | जैसी मिट्टी वैसा ही मटका बनेगा | मिट्टी गर्म है तो पानी ठण्डा हो – यह हो कैसे सकता? तो नाराज़ होना अर्थात् ज्ञानवान नहीं | राज़ को नहीं जानते | अगर योगयुक्त हो उन्हें शिक्षा दो तो वह परिवर्तन हो जायेंगे | नाराज़ नहीं होना है |

सारा दिन संकल्प, बोल और कर्म बाप की याद और सेवा उसी में ही लगे रहते हैं? हर संकल्प बाप की याद वा सेवा | ऐसे ही हर बोल द्वारा बाप की याद दिलाना या दिया हुआ ख़ज़ाना दूसरों को देना | कर्म द्वारा भी बाप के चरित्रों को सिद्ध करना | तो ऐसे याद और सेवा में सदैव रहते हो? अगर याद और सेवा इन दोनों में सदा बिज़ी रहो तो माया आ सकती है? अगर याद और सेवा को भूलते तो माया का गेट खोल देते हैं | तो यह गेट नहीं खोलो | विस्मृति अर्थात् माया का गेट खोलना, स्मृति अर्थात् पक्का गाडरेज का लॉक लगाना | याद और सेवा के स्मृति डबल लॉक है | डबल लॉक लगायेंगे तो माया कभी नहीं आ सकती | अगर सिंगल लॉक सिर्फ़ याद का लगाते, सेवा नहीं तो भी माया आ जायेगी | ब्राह्मण जीवन ही है याद और सेवा | तो जीवन का कार्य कोई भूलता है क्या? अगर भूलते तो माया से धोखा खाते | धोखा खाने से दुःख की लहर आती | तो डबल लॉक सदैव बन्द रखना | इससे सदा सेफ़ रहेंगे, खुश रहेंगे, सन्तुष्ट रहेंगे |

सदा हर कदम श्रीमत पर उठाने वाले श्रेष्ठ आत्मा अपने को समझते हो? हर कदम श्रीमत पर है या मनमत पर है? उसकी परख जानते हो? परखने का साधन क्या है? श्रीमत और मनमत को परखने का साधन यही है कि अगर श्रीमत पर कदम होगा तो कभी भी अपना मन असन्तुष्ट नहीं होगा | मन में किसी प्रकार की हलचल नहीं होगी | स्वतः श्रीमत पर चलने से नैचुरल ख़ुशी रहेगी | जैसे कोई अच्छा कर्म किया जाता तो उसकी स्वतः अन्दर से ख़ुशी होती है | बुरा काम किया जाता तो अन्दर से मन ज़रूर खाता है – चाहे बाहर से बोले नहीं | मनमत पर चलने वाले के मन में हलचल होगी | श्रीमत पर चलने वाला सदा हल्का और खुश होगा | इससे परख सकते हो कि श्रीमत पर हूँ या मनमत पर हूँ | यह थर्मामीटर है | जब भी मन में हलचल हो, ज़रा सी ख़ुशी का परसेन्टेज़ कम हो तो चेक करो – ज़रूर कोई श्रीमत की अवज्ञा होगी | सदा चैकिंग और चेन्ज | चैकिंग का अर्थ है चेन्ज करना | चैकिंग और चेन्ज यह दोनों ही शक्तियाँ चाहिए | मगर दोनों में से एक की भी कमी है तो सन्तुष्ट नहीं रह सकते | न स्वयं सन्तुष्ट रहेंगे न औरों को सन्तुष्ट कर सकेंगे | चेन्ज होने की शक्ति तब आएगी जब सहनशक्ति होगी | बुद्धि की लाइन क्लीयर होने से परख शक्ति आयेगी | अच्छा |


वरदान:- 
 कमज़ोर संकल्पों की जाल को समाप्त कर परतन्त्रता के बन्धन से मुक्त होने वाले स्वतन्त्र आत्मा भव !    
परतन्त्रता का बन्धन अपने ही मन के व्यर्थ कमज़ोर संकल्पों की जाल है | यह जाल क्वेश्चन के रूप में होती है | जब क्वेश्चन उठता है – पता नहीं क्या होगा, ऐसे तो नहीं होगा......तो जाल बन जाती है | लेकिन संगमयुगी ब्राह्मणों का एक ही समर्थ संकल्प हो कि जो होगा वह कल्याणकारी होगा, श्रेष्ठ वा अच्छे से अच्छा होगा – इस समर्थ संकल्प से जाल को समाप्त कर दो तो बन्धनमुक्त स्वतन्त्र आत्मा बन जायेंगे |

स्लोगन:- 
  ज्ञानी और योगी तू आत्मा का प्रैक्टिकल स्वरूप नम्रता और निर्भयता है |    

ओम् शान्ति |