Sunday, November 4, 2018

04-11-2018 प्रात:मुरली

04-11-18 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ''अव्यक्त-बापदादा'' रिवाइज: 24-02-84 मधुबन

ब्राह्मण जन्म - अवतरित जन्म
बापदादा आवाज में आते सभी को आवाज से परे की स्थिति में ले जाने के लिए, व्यक्त देश में व्यक्त शरीर में प्रवेश होते हैं अव्यक्त बनाने के लिए। सदा अपने को अव्यक्त स्थिति वाले सूक्ष्म फरिश्ता समझ व्यक्त देह में अवतरित होते हो? सभी अवतरित होने वाले अवतार हो। इसी स्मृति में सदा हर कर्म करते, कर्म के बन्धनों से मुक्त कर्मातीत अवतार हो। अवतार अर्थात् ऊपर से श्रेष्ठ कर्म के लिए नीचे आते हैं। आप सभी भी ऊंची ऊपर की स्थिति से नीचे अर्थात् देह का आधार ले सेवा के प्रति कर्म करने के लिए पुरानी देह में, पुरानी दुनिया में आते हो। लेकिन स्थिति ऊपर की रहती है, इसलिए अवतार हो। अवतार सदा परमात्म पैगाम ले आते हैं। आप सभी संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें भी परमात्म पैगाम देने के लिए, परमात्म मिलन कराने के लिए अवतरित हुए हो। यह देह अब आपकी देह नहीं रही। देह भी बाप को दे दी। सब तेरा कहा अर्थात् मेरा कुछ नहीं। यह देह सेवा के अर्थ बाप ने लोन में दी है। लोन में मिली हुई वस्तु पर मेरे-पन का अधिकार हो नहीं सकता। जब मेरी देह नहीं तो देह का भान कैसे आ सकता। आत्मा भी बाप की बन गई, देह भी बाप की हो गई तो मैं और मेरा कहाँ से आया! मैं-पन सिर्फ एक बेहद का रहा - "मैं बाप का हूँ'', जैसा बाप वैसा मैं मास्टर हूँ। तो यह बेहद का मैं-पन रहा। हद का मैं-पन विघ्नों में लाता है। बेहद का मैं-पन निर्विघ्न, विघ्नविनाशक बनाता है। ऐसे ही हद का मेरा पन मेरे-मेरे के फेरे में लाता है और बेहद का मेरा-पन जन्मों के फेरों से छुड़ाता है।

बेहद का मेरा-पन है - "मेरा बाबा''। तो हद छूट गई ना। अवतार बन देह का आधार ले सेवा के कर्म में आओ। बाप ने लोन अर्थात् अमानत दी है सेवा के लिए। और कोई व्यर्थ कार्य में लगा नहीं सकते। नहीं तो अमानत में ख्यानत का खाता बन जाता है। अवतार व्यर्थ खाता नहीं बनाता। आया, सन्देश दिया और गया। आप सभी भी सेवा-अर्थ, सन्देश देने अर्थ ब्राह्मण जन्म में आये हो। ब्राह्मण जन्म अवतरित जन्म है, साधारण जन्म नहीं। तो सदा अपने को अवतरित हुई विश्व कल्याणकारी, सदा श्रेष्ठ अवतरित आत्मा हैं - इसी निश्चय और नशे में रहो। टैप्रेरी समय के लिए आये हो और फिर जाना भी है। अब जाना है, यह सदा याद रहता है? अवतार हैं, आये हैं, अब जाना है। यही स्मृति उपराम और अपरमअपार प्राप्ति की अनुभूति कराने वाली है। एक तरफ उपराम, दूसरे तरफ अपरमअपार प्राप्ति। दोनों अनुभव साथ-साथ रहते हैं। ऐसे अनुभवी मूर्त हो ना! अच्छा!

अब सुनने को स्वरूप में लाना है। सुनना अर्थात् बनना। आज विशेष हमजिन्स से मिलने आये हैं। हमशरीक हो गये ना। सत शिक्षक निमित्त शिक्षकों से मिलने आये हैं। सेवा के साथियों से मिलने आये हैं। अच्छा!

सदा बेहद के मैं-पन के स्मृति स्वरूप, सदा बेहद का मेरा बाप इसी समर्थ स्वरूप में स्थित रहने वाले, सदा ऊंची स्थिति में स्थित रह, देह का आधार ले अवतरित होने वाले अवतार बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ:- सदा सेवाधारी आत्माओं का यह संगठन है ना। सदा अपने को बेहद के विश्व सेवाधारी समझते हो? हद के सेवाधारी तो नहीं हो ना। सब बेहद के हो? किसी को भी किसी स्थान से किसी भी स्थान पर भेज दें तो तैयार हो? सभी उड़ते पंछी हो? अपने देह के भान की डाली से भी उड़ते पंछी हो? सबसे ज्यादा अपने तरफ आकर्षित करने वाली डाली - यह देह का भान है। जरा भी पुराने संस्कार, अपने तरफ आकर्षित करते माना देह का भान है। मेरा स्वभाव ऐसा है, मेरा संस्कार ऐसा है, मेरी रहन-सहन ऐसी है, मेरी आदत ऐसी है, यह सब देह भान की निशानी है। तो इस डाली से उड़ते पंछी हो? इसको ही कहा जाता है कर्मातीत स्थिति। कोई भी बन्धन नहीं। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं है कि कर्म से अतीत हो लेकिन कर्म के बन्धन से न्यारे। तो देह के कर्म, जैसे किसका नेचर होता है - आराम से रहना, आराम से समय पर खाना, चलना यह भी कर्म का बन्धन अपने तरफ खींचता है। इस कर्म के बन्धन अर्थात् आदत से भी परे क्योंकि निमित्त हो ना।

जब तक आप सभी निमित्त आत्मायें कर्म के बन्धनों से, देह के संस्कार-स्वभाव से न्यारे नहीं होंगे तो औरों को कैसे करेंगे! जैसे शरीर की बीमारी कर्म का भोग है, इसी रीति से अगर कोई भी कर्म का बन्धन अपने तरफ खींचता है, तो यह भी कर्म का भोग विघ्न डालता है। जैसे शारीरिक व्याधि कर्म भोग अपनी तरफ बार-बार खींचता है, दर्द होता है तो खींचता है ना। तो कहते हो क्या करें, वैसे तो ठीक है लेकिन कर्मभोग कड़ा है। ऐसे कोई भी विशेष पुराना संस्कार-स्वभाव वा आदत अपने तरफ खींचती है तो वह भी कर्मभोग हो गया। कोई भी कर्मभोग कर्मयोगी बना नहीं सकेगा। तो इससे भी पार। क्यों? सभी नम्बरवन जाने वाली आत्मायें हो ना। वन नम्बर का अर्थ ही है - हर बात में विन करने वाली। कोई भी कमी नहीं। टीचर्स का अर्थ ही है सदा अपनी मूर्त द्वारा कर्मातीत ब्रह्मा बाप और न्यारे तथा प्यारे शिव बाप की अनुभूति कराने वाले। तो यह विशेषता है ना। फ्रैन्डस हो ना आप! फ्रैन्डस कैसे बनते हैं? बिना समान के फ्रैन्डस नहीं बन सकते। तो आप सब बाप के फ्रैन्डस हो, गाडली फ्रैन्डस हो। समान होना ही फ्रैन्डशिप है। बाप के कदम पर कदम रखने वाले क्योंकि फ्रैन्डस भी हो और फिर माशूक के आशिक भी हो। तो आशिक सदा माशूक के पांव के ऊपर पांव रखते हैं। यह रसम है ना। जब शादी होती है तो क्या कराते हैं! यही कराते हैं ना। तो यह सिस्टम भी कहाँ से बनी? आप लोगों से बनी है। आपका है बुद्धि रूपी पांव और उन्होंने स्थूल पांव समझ लिया है। हर सम्बन्ध से विशेषता का सम्बन्ध निभाने वाली निमित्त आत्मायें हो।

निमित्त शिक्षकों को औरों से बहुत सहज साधन हैं। दूसरों को तो फिर भी सम्बन्ध में रहना पड़ता है और आपका सम्बन्ध सदा सेवा और बाप से है। चाहे लौकिक कार्य भी करते हो तो भी सदा यही याद रहता है कि टाइम हो और सेवा पर जाएं। और लौकिक कार्य जिसके लिए किया जाता है, उसकी स्मृति स्वत: आती है। जैसे लौकिक में माँ-बाप कमाते हैं बच्चे के लिए। तो उनकी स्वत: याद आती है। तो आप भी जिस समय लौकिक कार्य करते हो तो किसके प्रति करते हो? सेवा के लिए करते हो - या अपने लिए? क्योंकि जितना सेवा में लगाते उतनी खुशी होती है। कभी लौकिक सेवा समझकर नहीं करो। यह भी एक सेवा का तरीका है, रूप भिन्न है लेकिन है सेवा के प्रति। नहीं तो देखो अगर लौकिक सेवा करके सेवा का साधन नहीं होता तो संकल्प चलता है कि कहाँ से आवे! कैसे आवे! चलता नहीं है। पता नहीं कब होगा! यह संकल्प व्यर्थ समय नहीं गंवाता? इसलिए कभी भी लौकिक जॉब (धन्धा) करते हैं, यह शब्द नहीं बोलो। यह अलौकिक जॉब है। सेवा निमित्त है। तो कभी भी बोझ नहीं लगेगा। नहीं तो कभी-कभी भारी हो जाते हैं, कब तक होगा, क्या होगा! यह तो आप लोगों के लिए प्रालब्ध बहुत सहज बनाने का साधन है।

तन-मन-धन तीन चीज़ें हैं ना! अगर तीनों ही चीज़ें सेवा में लगाते हैं तो तीनों का फल किसको मिलेगा? आपको मिलेगा या बाप को! तीनों ही रीति से अपनी प्रालब्ध बनाना, तो यह औरों से एडीशन प्रालब्ध हो गई इसलिए कभी भी इसमें भारी नहीं। सिर्फ भाव को बदली करो। लौकिक नहीं अलौकिक सेवा के प्रति ही है। इसी भाव को बदली करो। समझा - यह तो और ही डबल सरेन्डर हुए। धन से भी सरेन्डर हो गये, सब बाप के प्रति है। सरेन्डर का अर्थ क्या है? जो कुछ है बाप के प्रति है अर्थात् सेवा के प्रति है। इसे ही सरेन्डर कहा जाता है। जो समझते हैं हम सरेन्डर नहीं हैं, वह हाथ उठाओ! उनकी सरेमनी मना लेंगे! बाल बच्चे भी पैदा हो गये और कहते हो सरेन्डर नहीं हुए। अपना मैरेज डे भले मनाओ लेकिन मैरेज हुई नहीं यह तो नहीं कहो। क्या समझते हो, सारा ही ग्रुप सरेन्डर ग्रुप है ना!

बापदादा तो डबल विदेशी वा डबल विदेश के स्थान पर निमित्त बनी हुई टीचर्स की बहुत महिमा करते हैं। ऐसे ही नहीं महिमा करते हैं लेकिन मुहब्बत से विशेष मेहनत भी करते हो। मेहनत तो बहुत करनी पड़ती है लेकिन मुहब्बत से मेहनत महसूस नहीं होती, देखो, कितने दूर-दूर से ग्रुप तैयार करके लाते हैं, तो बापदादा बच्चों की मेहनत पर बलिहार जाते हैं। एक विशेषता डबल फारेन के निमित्त सेवाधारियों की बहुत अच्छी है। जानते हो कौन-सी विशेषता है? (अनेक विशेषतायें निकली) जो भी बातें निकाली वह स्वयं में चेक करके कम हो तो भर लेना क्योंकि बातें तो बहुत अच्छी-अच्छी निकाली हैं। बापदादा सुना रहे हैं - एक विशेषता डबल विदेशी सेवाधारियों में देखी कि जो बापदादा डायरेक्शन देते हैं - यह करके लाना, वह प्रैक्टिकल में लाने के लिए हमेशा कितना भी प्रयत्न करना पड़े लेकिन प्रैक्टिकल में लाना ही है, यह लक्ष्य प्रैक्टिकल अच्छा है। जैसे बापदादा ने कहा कि ग्रुप लाने हैं तो ग्रुप्स भी ला रहे हैं।

बापदादा ने कहा वी.आई.पीज की सर्विस करनी है, पहले कितना मुश्किल कहते थे, बहुत मुश्किल - लेकिन हिम्मत रखी करना ही है तो अभी देखो दो साल से ग्रुप्स आ रहे हैं ना। कहते थे लण्डन से वी.आई.पी. आना बहुत मुश्किल है। लेकिन अभी देखो प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाया ना। इस बारी तो भारत वालों ने भी राष्ट्रपति को लाकर दिखाया। लेकिन फिर भी डबल विदेशियों का यह उमंग डायरेक्शन मिला और करना ही है, यह लगन अच्छी है। प्रैक्टिकल रिजल्ट देख बापदादा विशेषता का गायन करते हैं। सेन्टर खोलते हो वह तो पुरानी बात हो गई। वह तो खोलते ही रहेंगे क्योंकि वहाँ साधन बहुत सहज हैं। यहाँ से वहाँ जा करके खोल सकते हो, यह भारत में साधन नहीं है इसलिए सेन्टर खोलना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन ऐसे अच्छे-अच्छे वारिस क्वालिटी तैयार करना। एक है वारिस क्वालिटी तैयार करना और दूसरा है बुलन्द आवाज वाले तैयार करना। दोनों ही आवश्यक हैं। वारिस क्वालिटी - जैसे आप सेवा के उमंग-उत्साह में तन-मन-धन सहित रहते हुए भी सरेन्डर बुद्धि हो, इसको कहते हैं वारिस क्वालिटी। तो वारिस क्वालिटी भी निकालनी है। इसके ऊपर भी विशेष अटेन्शन। हरेक सेवाकेन्द्र में ऐसे वारिस क्वालिटी हों तो सेवाकेन्द्र सबसे नम्बरवन में जाता है।

एक है सेवा में सहयोगी होना, दूसरे हैं पूरा ही सरेन्डर होना। ऐसे वारिस कितने हैं? हरेक सेवाकेन्द्र पर ऐसे वारिस हैं? गाडली स्टूडेन्ट बनाना, सेवा में सहयोगी बनना - वह लिस्ट तो लम्बी होती है लेकिन वारिस कोई-कोई होते हैं। जिसको जिस समय जो डायरेक्शन मिले, जो श्रीमत मिले उसी प्रमाण चलता रहे। तो दोनों ही लक्ष्य रखो, वह भी बनाना है और वह भी बनाना है। ऐसा वारिस क्वालिटी वाला एक अनेक सेन्टर खोलने के निमित्त बन सकता है। यह भी लक्ष्य से प्रैक्टिकल होता रहेगा। विशेषता तो अपनी समझी ना। अच्छा।

सन्तुष्ट तो हैं ही, या पूछना पड़े। हैं ही सन्तुष्ट करने वाले। तो जो सन्तुष्ट करने वाला होगा वह स्वयं तो होगा ना। कभी सर्विस थोड़ी कम देख करके हलचल में तो नहीं आते हो? सेवाकेन्द्र पर जब कोई विघ्न आता है तो विघ्न को देख घबराते हो? समझो, बड़े ते बड़ा विघ्न आ गया - कोई अच्छा अनन्य एन्टी हो जाता है और डिस्टर्ब करता है आपकी सेवा में तो क्या करेंगे? क्या घबरायेंगे? एक होता है उसके प्रति कल्याण के भाव से तरस रखना वह दूसरी बात है लेकिन स्वयं की स्थिति नीचे-ऊपर हो या व्यर्थ संकल्प चले इसको कहते हैं हलचल में आना। तो संकल्प की सृष्टि भी नहीं रचें। यह संकल्प भी हिला न सकें! इसको कहते हैं अचल अडोल स्थिति। ऐसे भी नहीं कि अलबेले हो जाएं कि नथिंग न्यु। सेवा भी करें, उसके प्रति रहमदिल भी बनें लेकिन हलचल में नहीं आयें। तो न अलबेले, न फीलिंग में आने वाले। सदा ही किसी भी वातावरण में, वायुमण्डल में हो लेकिन अचल-अडोल रहो। कभी कोई निमित्त बने हुए राय देते हैं, उनमें कनफ्यूज़ नहीं हो। ऐसे नहीं सोचो कि यह क्यों कहते हैं या यह कैसे होगा! क्योंकि जो निमित्त बने हुए हैं वह अनुभवी हो चुके हैं, और जो प्रैक्टिकल में चलने वाले हैं कोई नये हैं, कोई थोड़े पुराने भी हैं लेकिन जिस समय जो बात उसके सामने आती है, तो बात के कारण इतनी क्लीयर बुद्धि आदि मध्य अन्त को नहीं जान सकती है। सिर्फ वर्तमान को जान सकती है इसलिए सिर्फ वर्तमान देख करके, आदि मध्य उस समय क्लीयर नहीं होता तो कनफ्यूज़ हो जाते हैं। कभी भी कोई डायरेक्शन अगर नहीं भी स्पष्ट हो तो कनफ्यूज़ कभी नहीं होना। धैर्य से कहो इसको समझने की कोशिश करेंगे। थोड़ा टाइम दो उसको। उसी समय कनफ्यूज़ होकर यह नहीं, वह नहीं, ऐसे नहीं करो क्योंकि डबल विदेशी फ्री माइन्ड ज्यादा हैं इसलिए ना भी फ्री माइन्ड से कह देते हैं इसलिए थोड़ा-सा जो भी बात मिलती है - उसको गम्भीरता से पहले सोचो, उसमें कोई न कोई रहस्य अवश्य छिपा होता है। उससे पूछ सकते हो इसका रहस्य क्या है? इससे क्या फायदा होगा? हमें और स्पष्ट समझाओ। यह कह सकते हो। लेकिन कभी भी डायरेक्शन को रिफ्यूज़ नहीं करो। रिफ्यूज़ करते हो इसलिए कनफ्यूज़ होते हो। यह थोड़ा विशेष अटेन्शन डबल विदेशी बच्चों को देते हैं। नहीं तो क्या होगा जैसे आप निमित्त बने हुए, बहनों के डायरेक्शन को जानने का प्रयत्न नहीं करेंगे और हलचल में आ जायेंगे तो आपको देखकर जिन्हों के निमित्त आप बने हो, उन्हों में यह संस्कार भर जायेंगे। फिर कभी कोई रुसेगा, कभी कोई रुसेगा। फिर सेन्टर पर यही खेल चलेगा। समझा!। अच्छा।
वरदान:-
ज्ञान और योग की शक्ति से हर परिस्थिति को सेकण्ड में पास करने वाले महावीर भव
महावीर अर्थात् सदा लाइट और माइट हाउस। ज्ञान है लाइट और योग है माइट। जो इन दोनों शक्तियों से सम्पन्न हैं वह हर परिस्थिति को सेकण्ड में पास कर लेते हैं। अगर समय पर पास न होने के संस्कार पड़ जाते हैं तो फाइनल में भी वह संस्कार फुल पास होने नहीं देते। जो समय पर फुल पास होता है उसको कहते हैं पास विद ऑनर। धर्मराज भी उसको ऑनर देता है।
स्लोगन:-
योग अग्नि से विकारों के बीज को भस्म कर दो तो समय पर धोखा मिल नहीं सकता।