Thursday, November 29, 2018

29-11-2018 प्रात:मुरली

29-11-2018 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

"मीठे बच्चे - ज्ञान है मक्खन, भक्ति है छांछ, बाप तुम्हें ज्ञान रूपी मक्खन देकर विश्व का मालिक बना देते हैं, इसलिए कृष्ण के मुख में मक्खन दिखाते हैं''
प्रश्नः-
निश्चयबुद्धि की परख क्या है? निश्चय के आधार पर क्या प्राप्ति होती है?
उत्तर:-
1. निश्चयबुद्धि बच्चे शमा पर फिदा होने वाले सच्चे परवाने होंगे, फेरी लगाने वाले नहीं। जो शमा पर फिदा हो जाते हैं वही राजाई में आते हैं, फेरी लगाने वाले प्रजा में चले जाते। 2. धरत परिये धर्म न छोड़िये - यह प्रतिज्ञा निश्चयबुद्धि बच्चों की है। वे सच्चे प्रीत बुद्धि बन देह सहित देह के सब धर्मों को भूल बाप की याद में रहते हैं।
गीत:-
छोड़ भी दे आकाश सिंहासन....  
ओम् शान्ति।
भगवानुवाच। भगवान् कहा जाता है निराकार परमपिता को। भगवानुवाच किसने कहा? उस निराकार परमपिता परमात्मा ने। निराकार बाप निराकार आत्माओं को बैठ समझाते हैं। निराकार आत्मा इस शरीर रूपी कर्मेन्द्रियों से सुनती है। आत्मा को न मेल, न फीमेल कहा जाता है। उनको आत्मा ही कहा जाता है। आत्मा स्वयं इन आरगन्स द्वारा कहती है - मैं एक शरीर छोड़ दूसरा लेती हूँ। जो भी मनुष्य मात्र हैं वह सब ब्रदर्स हैं। जब निराकार परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं तो आपस में सब भाई-भाई हैं, जब प्रजापिता ब्रह्मा की सन्तान हैं तो भाई-बहन हैं। यह हमेशा सबको समझाते रहो। भगवान् रक्षक है, भक्तों को भक्ति का फल देने वाला है।

बाप समझाते हैं सर्व का सद्गति दाता एक मैं हूँ। सर्व का शिक्षक बन श्रीमत देता हूँ और फिर सर्व का सतगुरू भी हूँ। उनको कोई बाप, टीचर, गुरू नहीं। वही बाप प्राचीन भारत का राजयोग सिखलाने वाला है, कृष्ण नहीं। कृष्ण को बाप नहीं कह सकते। उनको दैवीगुणधारी स्वर्ग का प्रिन्स कहा जाता है। पतित-पावन सद्गति दाता एक को कहा जाता है। अभी सब दु:खी, पाप आत्मा, भ्रष्टाचारी हैं। भारत ही सतयुग में दैवी श्रेष्ठाचारी था। फिर वह भ्रष्टाचारी आसुरी राज्य होता है। सब कहते हैं पतित-पावन आओ, आकर रामराज्य स्थापन करो। तो अब रावण राज्य है। रावण को जलाते भी हैं लेकिन रावण को कोई भी विद्वान, आचार्य, पण्डित नहीं जानते। सतयुग से त्रेता तक रामराज्य, द्वापर से कलियुग तक रावणराज्य। ब्रह्मा का दिन सो ब्रह्माकुमार-कुमारियों का दिन। ब्रह्मा की रात सो बी.के. की रात। अभी रात पूरी हो दिन आना है। गाया हुआ है विनाश काले विपरीत बुद्धि। तीन सेनायें भी हैं। परमपिता को कहा जाता है बीलव्ड मोस्ट गॉड फादर, ओशन ऑफ नॉलेज। तो जरूर नॉलेज देते होंगे ना। सृष्टि का चैतन्य बीजरूप है। सुप्रीम सोल है अर्थात् ऊंच से ऊंच भगवान् है। ऐसे नहीं कि सर्वव्यापी है। सर्वव्यापी कहना यह तो बाप को डिफेम करना है। बाप कहते हैं ग्लानि करते-करते धर्म ग्लानि हो गई है, भारत कंगाल, भ्रष्टाचारी बन गया है। ऐसे समय पर ही मुझे आना पड़ता है। भारत ही मेरा बर्थप्लेस है। सोमनाथ का मन्दिर, शिव का मन्दिर भी यहाँ है। मैं अपने बर्थ प्लेस को ही स्वर्ग बनाता हूँ, फिर रावण नर्क बनाता है अर्थात् रावण की मत पर चल नर्कवासी, आसुरी सम्प्रदाय बन पड़ते हैं। फिर उन्हों को बदलकर मैं दैवी सम्प्रदाय, श्रेष्ठाचारी बनाता हूँ। यह विषय सागर है। वह है क्षीर सागर। वहाँ घी की नदियाँ बहती हैं। सतयुग-त्रेता में भारत सदा सुखी सालवेन्ट था, हीरे जवाहरों के महल थे। अभी तो भारत 100 परसेन्ट इनसालवेन्ट है। मैं ही आकर 100 परसेन्ट सालवेन्ट, श्रेष्ठाचारी बनाता हूँ। अब तो ऐसे भ्रष्टाचारी बन गये हैं जो अपने दैवी धर्म को भूल गये हैं।

बाप बैठ समझाते हैं कि भक्ति मार्ग है छांछ, ज्ञान मार्ग है मक्खन। कृष्ण के मुख में मक्खन दिखलाते हैं यानि विश्व का राज्य था, लक्ष्मी-नारायण विश्व के मालिक थे। बाप ही आकर बेहद का वर्सा देते हैं अर्थात् विश्व का मालिक बनाते हैं। कहते हैं मैं विश्व का मालिक नहीं बनता हूँ। अगर मालिक बनूँ तो फिर माया से हार भी खानी पड़े। माया से हार तुम खाते हो। फिर जीत भी तुमको पानी है। यह 5 विकारों में फँसे हुए हैं। अभी मैं तुमको मन्दिर में रहने लायक बनाता हूँ। सतयुग बड़ा मन्दिर है, उसको शिवालय कहा जाता है, शिव का स्थापन किया हुआ। कलियुग को वेश्यालय कहा जाता है, सब विकारी हैं। अब बाप कहते हैं देह के धर्म छोड़ अपने को आत्मा समझ मुझ बाप को याद करो। तुम बच्चों की अब बाप से प्रीत है। तुम और कोई को याद नहीं करते हो। तुम हो विनाश काले प्रीत बुद्धि। तुम जानते हो कि श्री श्री 108 परमपिता परमात्मा को ही कहा जाता है। 108 की माला फेरते हैं। ऊपर में है शिवबाबा फिर मात-पिता ब्रह्मा-सरस्वती, फिर उनके बच्चे जो भारत को पावन बनाते हैं। रुद्राक्ष की माला गाई हुई है, उसको रूद्र यज्ञ भी कहा जाता है। कितना बड़ा राजस्व अश्वमेध अविनाशी ज्ञान यज्ञ है। कितने वर्षों से चला आता है। जो भी अनेक धर्म आदि हैं, सब इस यज्ञ में खत्म हो जाने हैं तब यह यज्ञ पूरा होगा। यह है अविनाशी बाबा का अविनाशी यज्ञ। सब सामग्री इसमें स्वाहा हो जानी है। पूछते हैं विनाश कब होगा? अरे, जो स्थापना करते हैं, उनको ही फिर पालना करनी होती है। यह है शिवबाबा का रथ। शिवबाबा इसमें रथी है। बाकी कोई घोड़े-गाड़ी आदि नहीं हैं। वह तो भक्तिमार्ग की सामग्री बैठ बनाई है। बाबा कहते हैं मैं इस प्रकृति का आधार लेता हूँ।

बाप समझाते हैं - पहले अव्यभिचारी भक्ति है फिर कलियुग अन्त में पूरी व्यभिचारी बन जाती है। फिर बाप आकर भारत को मक्खन देते हैं। तुम विश्व के मालिक बनने लिए पढ़ रहे हो। बाप आकर मक्खन खिलाते हैं। रावण राज्य में छांछ शुरू हो जाती है। ये सब समझने की बातें हैं। नये बच्चे तो इन बातों को समझ न सकें। परमपिता परमात्मा को ही ज्ञान का सागर कहा जाता है। बाप कहते हैं मैं इस भक्ति मार्ग से किसी को भी नहीं मिलता हूँ। मैं जब आता हूँ तब ही आकर भक्तों को भक्ति का फल देता हूँ। मैं लिबरेटर बनता हूँ, दु:ख से छुड़ाकर सबको शान्तिधाम, सुखधाम ले जाता हूँ। निश्चय बुद्धि विजयन्ति, संशय बुद्धि विनशन्ति।

बाप शमा है। उस पर परवाने कोई तो एकदम फिदा हो जाते हैं, कोई फेरी पहनकर चले जाते हैं। समझते कुछ नहीं हैं। फिदा होने वाले बच्चे जानते हैं बरोबर बेहद के बाप से हमको बेहद का वर्सा मिलता है। जो सिर्फ फेरी पहनकर चले जाते हैं वह तो फिर प्रजा में ही नम्बरवार आ जायेंगे। जो फिदा होते हैं वह वर्सा लेते हैं नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार। पुरुषार्थ से ही प्रालब्ध मिलती है। ज्ञान का सागर एक ही बाप है। फिर ज्ञान प्राय: लोप हो जाता है। तुम सद्गति को पा लेते हो। सतयुग-त्रेता में कोई गुरू-गोसाई आदि नहीं होते। अभी सब उस बाप को याद करते हैं क्योंकि वह है ओशन ऑफ नॉलेज। सबकी सद्गति कर देते हैं। फिर हाहाकार बन्द हो जयजयकार हो जाती है, तुम सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त को जानते हो। तुम अब त्रिकालदर्शी, त्रिनेत्री बने हो। तुमको रचता और रचना के आदि-मध्य-अन्त की सारी नॉलेज मिल रही है। यह कोई दन्त कथा नहीं है। गीता है भगवान् की गाई हुई परन्तु कृष्ण का नाम डाल खण्डन कर दिया है। तुम बच्चों को अब सबका कल्याण करना है। तुम हो शिव शक्ति सेना। वन्दे मातरम् गाया हुआ है। वन्दना पवित्र की ही की जाती है। कन्या पवित्र है तो सब उनकी वन्दना करते हैं। ससुर घर गई और विकारी बनी तो सबको माथा टेकती रहती है। सारा मदार पवित्रता पर है। भारत पवित्र गृहस्थ धर्म था। अभी अपवित्र गृहस्थ धर्म है। दु:ख ही दु:ख है। सतयुग में ऐसे नहीं होता। बाप बच्चों के लिए तिरी (हथेली) पर बहिश्त ले आते हैं। गृहस्थ व्यवहार में रहते बाप से जीवनमुक्ति का वर्सा ले सकते हो। घर-बार छोड़ने की कोई बात नहीं। सन्यासियों का निवृत्ति मार्ग अलग है। अब बाप से प्रतिज्ञा करते हैं - बाबा, हम पवित्र बन, पवित्र दुनिया के मालिक जरूर बनेंगे। फिर धरत परिये धर्म न छोड़िये। 5 विकारों का दान दो तो माया का ग्रहण छूटे, तब 16 कला सम्पूर्ण बनेंगे। सतयुग में हैं 16 कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी...., अब श्रीमत पर चलकर फिर से ऐसा बनना है।

भगवान् है ही गरीब निवाज़। साहूकार इस ज्ञान को उठा नहीं सकते क्योंकि वह तो समझते हैं हमको धन आदि बहुत है, हम तो स्वर्ग में बैठे हैं इसलिए अबलायें, अहिल्यायें ही ज्ञान लेती हैं। भारत तो गरीब है। उनमें भी जो गरीब साधारण हैं, उन्हों को ही बाप अपना बनाते हैं। उन्हों की ही तकदीर में है। सुदामा का मिसाल गाया हुआ है ना। साहूकारों को समझने की फुर्सत नहीं। राजेन्द्र प्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति) के पास बच्चियाँ जाती थी, कहती थी बेहद के बाप को जानो तो तुम हीरे तुल्य बन जायेंगे। 7 रोज़ का कोर्स करो। कहता था - हाँ, बात तो बहुत अच्छी है, रिटायर होने के बाद कोर्स उठाऊंगा। रिटायर हुआ तो बोले, बीमार हूँ। बड़े-बड़े आदमियों को फुर्सत नहीं है। पहले जब 7 रोज़ का कोर्स पूरा करे तब नारायणी नशा चढ़े। ऐसे थोड़ेही रंग चढ़ेगा। 7 रोज के बाद पता चलता है - यह लायक है वा नहीं है? लायक होगा तो फिर पढ़ने के लिए पुरुषार्थ में लग जायेगा। जब तक भट्ठी में पक्का रंग नहीं लगा है तब तक बाहर जाने से रंग ही उड़ जाता है, इसलिए पहले पक्का रंग चढ़ाना है। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) शिव शक्ति बन विश्व कल्याण करना है। पवित्रता के आधार पर कौड़ी तुल्य मनुष्यों को हीरे तुल्य बनाना है।
2) श्रीमत पर विकारों का दान दे सम्पूर्ण निर्विकारी 16 कला सम्पूर्ण बनना है। शमा पर फिदा होने वाला परवाना बनना है।
वरदान:-
सदा अपने को सारथी और साक्षी समझ देह-भान से न्यारे रहने वाले योगयुक्त भव
योगयुक्त रहने की सरल विधि है - सदा अपने को सारथी और साक्षी समझकर चलना। इस रथ को चलाने वाली हम आत्मा सारथी हैं, यह स्मृति स्वत: इस रथ अथवा देह से वा किसी भी प्रकार के देह-भान से न्यारा (साक्षी) बना देती है। देह-भान नहीं तो सहज योगयुक्त बन जाते और हर कर्म भी युक्तियुक्त होता है। स्वयं को सारथी समझने से सर्व कर्मेन्द्रियां अपने कन्ट्रोल में रहती हैं। वह किसी भी कर्मेन्द्रिय के वश नहीं हो सकते।
स्लोगन:-
विजयी आत्मा बनना है तो अटेन्शन और अभ्यास - इसे निज़ी संस्कार बना लो।
मातेश्वरी जी के मधुर महावाक्
"सिर्फ ओम् के शब्द के उच्चारण से कोई फायदा नहीं''

ओम् रटो माना ओम् जपो, जिस समय हम ओम् शब्द कहते हैं तो ओम् कहने का मतलब यह नहीं कि ओम् शब्द का उच्चारण करना है सिर्फ ओम् कहने से कोई जीवन में फायदा नहीं। परन्तु ओम् के अर्थ स्वरूप में स्थित होना, उस ओम् के अर्थ को जानने से मनुष्य को वो शान्ति प्राप्त होती है। अब मनुष्य चाहते तो अवश्य हैं कि हमें शान्ति प्राप्त होवे। उस शान्ति स्थापन के लिये बहुत सम्मेलन करते हैं परन्तु रिजल्ट ऐसे ही दिखाई दे रही है जो और अशान्ति दु:ख का कारण बनता रहता है क्योंकि मुख्य कारण है कि मनुष्यात्मा ने जब तक 5 विकारों को नष्ट नहीं किया है तब तक दुनिया पर शान्ति कदाचित हो नहीं सकती। तो पहले हरेक मनुष्य को अपने 5 विकारों को वश करना है और अपनी आत्मा की डोर परमात्मा के साथ जोड़नी है तब ही शान्ति स्थापन होगी। तो मनुष्य अपने आपसे पूछें मैंने अपने 5 विकारों को नष्ट किया है? उन्हों को जीतने का प्रयत्न किया है? अगर कोई पूछे तो हम अपने 5 विकारों को वश कैसे करें, तो उन्हों को यह तरीका बताया जाता है कि पहले उन्हों को ज्ञान और योग का वास धूप लगाओ और साथ में परमपिता परमात्मा के महावाक्य हैं - मेरे साथ बुद्धियोग लगाए मेरे बल को लेकर मुझ सर्वशक्तिवान प्रभु को याद करने से विकार हटते रहेंगे। अब इतनी चाहिए साधना, जो खुद परमात्मा आकर हमें सिखाता है। अच्छा - ओम् शान्ति।