Friday, February 19, 2016

मुरली 19 फरवरी 2016

19-02-16 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन

“मीठे बच्चे - यहाँ तुम्हारा सब कुछ गुप्त है, इसलिए तुम्हें कोई भी ठाठ नहीं करना है, अपनी नई राजधानी के नशे में रहना है”   
प्रश्न:
श्रेष्ठ धर्म और दैवी कर्म की स्थापना के लिए तुम बच्चे कौन सी मेहनत करते हो?
उत्तर:
तुम अभी 5 विकारों को छोड़ने की मेहनत करते हो, क्योंकि इन विकारों ने ही सबको भ्रष्ट बनाया है। तुम जानते हो इस समय सभी दैवी धर्म और कर्म से भ्रष्ट हैं। बाप ही श्रीमत देकर श्रेष्ठ धर्म और श्रेष्ठ दैवी कर्म की स्थापना करते हैं। तुम श्रीमत पर चल बाप की याद से विकारों पर विजय पाते हो। पढ़ाई से अपने आपको राजतिलक देते हो।
गीतः
तुम्हें पाके........  
ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे रूहानी बच्चों ने यह गीत सुना। रूहानी बच्चे ही कहते हैं कि बाबा। बच्चे जानते हैं यह बेहद का बाप, बेहद का सुख देने वाला है अर्थात् वह सभी का बाप है। उनको सब बेहद के बच्चे, आत्मायें याद करते रहते हैं। किस न किस प्रकार से याद करते हैं परन्तु उनको यह पता नहीं है कि हमको कोई उस परमपिता परमात्मा से विश्व की बादशाही मिलती है। तुम जानते हो हमको बाप जो सतयुगी विश्व की बादशाही देते हैं, वह अटल अखण्ड, अडोल है, वह हमारी बादशाही 21 जन्म कायम रहती है। सारे विश्व पर हमारी राजाई रहती है जिसको कोई छीन नहीं सकता, लूट नहीं सकता। हमारी राजाई है अडोल क्योंकि वहाँ एक ही धर्म है, द्वेत है नहीं। वह है अद्वैत राज्य। बच्चे जब भी गीत सुनते हैं तो अपनी राजधानी का नशा आना चाहिए। ऐसे-ऐसे गीत घर में रहने चाहिए। तुम्हारा सब कुछ है गुप्त और बड़े-बड़े आदमियों का बहुत ठाठ होता है। तुमको कोई ठाठ नहीं है। तुम देखते हो बाबा ने जिसमें प्रवेश किया है वह भी कितना साधारण रहते हैं। यह भी बच्चे जानते हैं यहाँ हर एक मनुष्य अनराइटियस छी-छी काम ही करते हैं, इसलिए बेसमझ कहा जाता है। बुद्धि को बिल्कुल ही ताला लगा हुआ है। तुम कितने समझदार थे। विश्व के मालिक थे। अभी माया ने इतना बेसमझ बना दिया है जो कोई काम के नहीं रहे हैं। बाप के पास जाने के लिए यज्ञ-तप आदि बहुत करते रहते हैं परन्तु मिलता कुछ भी नहीं है। ऐसे ही धक्के खाते रहते हैं। दिन-प्रतिदिन अकल्याण ही होता जाता है। जितना-जितना मनुष्य तमोप्रधान हो जाते हैं, उतना-उतना अकल्याण होना ही है। ऋषि-मुनि जिनका गायन है वह पवित्र रहते थे। नेती- नेती कहते थे। अभी तमोप्रधान बन गये हैं तो कहते हैं शिवोहम् ततत्वम्, सर्वव्यापी है, तेरे-मेरे में सबमें है। वो लोग सिर्फ परमात्मा कह देते हैं। परमपिता कभी नहीं कहेंगे। परमपिता, उनको फिर सर्वव्यापी कहना यह तो रांग हो जाता है इसलिए फिर ईश्वर वा परमात्मा कह देते। पिता अक्षर बुद्धि में नहीं आता है। करके कोई कहते भी हैं तो भी कहने मात्र। अगर परमपिता समझें तो बुद्धि एकदम चमक उठे। बाप स्वर्ग का वर्सा देते हैं, वह है ही हेविनली गॉड फादर। फिर हम नर्क में क्यों पड़े हैं। अब हम मुक्ति-जीवनमुक्ति कैसे पा सकते हैं। यह किसकी भी बुद्धि में नहीं आता है। आत्मा पतित बन पड़ी है। आत्मा पहले सतोप्रधान, समझदार होती है फिर सतो रजो तमो में आती है, बेसमझ बन पड़ती है। अभी तुमको समझ आई है। बाबा ने हमको यह स्मृति दिलाई है। जब नई दुनिया भारत था तो हमारा राज्य था। एक ही मत, एक ही भाषा, एक ही धर्म, एक ही महाराजा-महारानी का राज्य था, फिर द्वापर में वाम मार्ग शुरू होता है फिर हर एक के कर्मों पर मदार हो जाता है। कर्मों अनुसार एक शरीर छोड़ दूसरा लेते हैं। अभी बाप कहते हैं मैं तुमको ऐसे कर्म सिखाता हूँ जो 21 जन्म तुम बादशाही पाते हो। भल वहाँ भी हद का बाप तो मिलता है परन्तु वहाँ यह ज्ञान नहीं रहता कि यह राजाई का वर्सा बेहद के बाप का दिया हुआ है। फिर द्वापर से रावण राज्य शुरू होता है, विकारी संबंध हो जाता है। फिर कर्मों अनुसार जन्म मिलता है। भारत में पूज्य राजायें भी थे तो पुजारी राजायें भी हैं। सतयुग-त्रेता में सब पूज्य होते हैं। वहाँ पूजा वा भक्ति कोई होती नहीं फिर द्वापर में जब भक्ति मार्ग शुरू होता है तो यथा राजा-रानी तथा प्रजा पुजारी, भगत बन जाते हैं। बड़े से बड़ा राजा जो सूर्यवंशी पूज्य था, वही पुजारी बन जाते।

अभी तुम जो वाइसलेस बनते हो, उसकी प्रालब्ध 21 जन्म लिए है। फिर भक्तिमार्ग शुरू होता है। देवताओं के मन्दिर बनाकर पूजा करते रहते हैं। यह सिर्फ भारत में ही होता है। 84 जन्मों की कहानी जो बाप सुनाते हैं, यह भी भारतवासियों के लिए है। और धर्म वाले तो आते ही बाद में हैं। फिर तो वृद्धि होते-होते ढेर के ढेर हो जाते हैं। वैरायटी भिन्न-भिन्न धर्म वालों के फीचर्स, हर एक बात में भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। रस्म-रिवाज़ भी भिन्न-भिन्न होती है। भक्ति मार्ग के लिए सामग्री भी चाहिए। जैसे बीज छोटा होता है, झाड़ कितना बड़ा है। झाड़ के पत्ते आदि गिनती नहीं कर सकते। वैसे भक्ति का भी विस्तार हो जाता है। ढेर के ढेर शास्त्र बनाते जाते हैं। अब बाप बच्चों को कहते हैं - यह भक्ति मार्ग की सामग्री सब खत्म हो जाती है। अब मुझ बाप को याद करो। भक्ति का प्रभाव भी बहुत है ना। कितनी खूबसूरत है, नाच, तमाशा, गायन आदि कितना खर्चा करते हैं। अभी बाप कहते हैं मुझ बाप को और वर्से को याद करो। आदि सनातन अपने धर्म को याद करो। अनेक प्रकार की भक्ति जन्म-जन्मान्तर तुम करते आये हो। सन्यासी भी आत्माओं के रहने के स्थान, तत्व को परमात्मा समझ लेते हैं। ब्रह्म वा तत्व को ही याद करते हैं। वास्तव में सन्यासी जब सतोप्रधान हैं तो उन्हों को जंगल में जाकर रहना है शान्ति में। ऐसे नहीं कि उन्हों को ब्रह्म में जाकर लीन होना है। वह समझते हैं ब्रह्म की याद में रहने से, शरीर छोड़ने से ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। बाप कहते हैं-लीन कोई हो नहीं सकते। आत्मा तो अविनाशी है ना, वह लीन कैसे हो सकती। भक्ति मार्ग में कितना माथा कूट करते हैं, फिर कहते हैं भगवान कोई न कोई रूप में आयेंगे। अब कौन राइट? वह कहते हम ब्रह्म से योग लगाए ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। गृहस्थ धर्म वाले कहते भगवान किसी न किसी रूप में पतितों को पावन बनाने आयेंगे। ऐसे नहीं कि ऊपर से प्रेरणा द्वारा ही सिखलायेंगे। टीचर घर बैठे प्रेरणा करेंगे क्या! प्रेरणा अक्षर है नहीं। प्रेरणा से कोई काम नहीं होता। भल शंकर की प्रेरणा द्वारा विनाश कहा जाता है परन्तु है यह ड्रामा की नूँध। उन्हों को यह मूसल आदि तो बनाने ही हैं। यह सिर्फ महिमा गाई जाती है। कोई भी अपने बड़ों की महिमा नहीं जानते। धर्म स्थापक को भी गुरू कह देते हैं लेकिन वे तो सिर्फ धर्म स्थापन करते हैं। गुरू उनको कहा जाता जो सद्गति करें। वह तो धर्म स्थापन करने आते हैं, उनके पिछाड़ी उनकी वंशावली आती रहती है। सद्गति तो किसकी करते ही नहीं। तो उनको गुरू कैसे कहेंगे। गुरू तो एक ही है जिसको सर्व का सद्गति दाता कहा जाता है। भगवान बाप ही आकर सबकी सद्गति करते हैं। मुक्ति-जीवनमुक्ति देते हैं। उनकी याद कभी किससे छूट नहीं सकती। भल पति से कितना भी प्यार हो फिर भी हे भगवान, हे ईश्वर जरूर कहेंगे क्योंकि वही सर्व का सद्गति दाता है। बाप बैठ समझाते हैं, यह सारी रचना है। रचयिता बाप मैं हूँ। सबको सुख देने वाला एक ही बाप ठहरा। भाई, भाई को वर्सा नहीं दे सकते। वर्सा हमेशा बाप से मिलता है। तुम सभी बेहद के बच्चों को बेहद का वर्सा देता हूँ इसलिए ही मुझे याद करते हैं-हे परमपिता, क्षमा करो, रहम करो। समझते कुछ भी नहीं। भक्ति मार्ग में अनेक प्रकार की महिमा करते हैं, यह भी ड्रामा अनुसार अपना पार्ट बजाते रहते हैं। बाप कहते हैं मैं कोई इन्हों के पुकारने पर नहीं आता हूँ। यह तो ड्रामा बना हुआ है। ड्रामा में मेरे आने का पार्ट नूँधा हुआ है। अनेक धर्म विनाश, एक धर्म की स्थापना वा कलियुग का विनाश, सतयुग की स्थापना करनी होती है। मैं अपने समय पर आपेही आता हूँ। इस भक्ति मार्ग का भी ड्रामा में पार्ट है। अभी जब भक्ति मार्ग का पार्ट पूरा हुआ तब आया हुआ हूँ। बच्चे भी कहते हैं, अभी हम जान गये, 5 हजार वर्ष के बाद फिर से आपके साथ मिले हैं। कल्प पहले भी बाबा आप ब्रह्मा तन में ही आये थे। यह ज्ञान तुमको अभी मिलता है फिर कभी नहीं मिलेगा। यह है ज्ञान, वह है भक्ति। ज्ञान की है प्रालब्ध, चढ़ती कला। सेकेण्ड में जीवनमुक्ति कहा जाता है। जनक को सेकेण्ड में जीवनमुक्ति मिली थी ना। यह भी अक्षर हैं - राधे जाकर अनुराधे बनती है। जनक भी जाकर फिर सीता का बाप अनुजनक बना, इस ज्ञान से। यह भी एक मिसाल दे रखा है। समझते कुछ भी नहीं हैं। कहते हैं जनक ने सेकेण्ड में जीवनमुक्ति पाई। क्या सिर्फ एक जनक ने जीवनमुक्ति पाई? जीवनमुक्ति अर्थात् जीवन को मुक्त करते हैं इस रावण राज्य से।

बाप जानते हैं सब बच्चों की कितनी दुर्गति हो गई है। उन्हों की फिर सद्गति होनी है। दुर्गति से फिर ऊंच गति, मुक्ति- जीवनमुक्ति को पाते हैं। पहले मुक्ति में जाकर फिर जीवनमुक्ति में आयेंगे। शान्ति से फिर सुखधाम में आयेंगे। यह चक्र का सारा राज़ बाप ने समझाया है। तुम्हारे साथ और भी धर्म आते जाते हैं, मनुष्य सृष्टि वृद्धि को पाती जाती है। बाप कहते हैं इस समय यह मनुष्य सृष्टि का झाड़ तमोप्रधान जड़ जड़ीभूत हो गया है। आदि सनातन देवी-देवता धर्म का फाउन्डेशन सारा सड़ गया है। बाकी सब धर्म खड़े हैं। भारत में एक भी अपने को आदि सनातन देवी-देवता धर्म का समझता नहीं है। हैं देवता धर्म के परन्तु इस समय यह समझते नहीं हैं - हम आदि सनातन देवी-देवता धर्म के थे क्योंकि देवतायें तो पवित्र थे। समझते हैं हम तो पवित्र हैं नहीं। हम अपवित्र पतित अपने को देवता कैसे कहलायें? यह भी ड्रामा के प्लैन अनुसार रसम पड़ जाती है हिन्दू कहलाने की। आदमशुमारी में भी हिन्दू धर्म लिख देते हैं। भल गुजराती होंगे तो भी हिन्दू गुजराती कह देंगे। उन्हों से पूछो तो सही कि हिन्दू धर्म कहाँ से आया? तो कोई को पता नहीं हैं सिर्फ कह देते-हमारा धर्म कृष्ण ने स्थापन किया। कब? द्वापर में। द्वापर से ही यह लोग अपने धर्म को भूल हिन्दू कहलाने लगे हैं इसलिए उन्हों को दैवी धर्म भ्रष्ट कहा जाता है। वहाँ सब अच्छा कर्म करते हैं। यहाँ सब छी-छी कर्म करते हैं इसलिए देवी-देवता धर्म भ्रष्ट, कर्म भ्रष्ट कहा जाता है। अब फिर श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ दैवी कर्म की स्थापना हो रही है इसलिए कहा जाता है अब इन 5 विकारों को छोड़ते जाओ। यह विकार आधाकल्प से रहे हैं। अब एक जन्म में इनको छोड़ना-इसमें ही मेहनत लगती है। मेहनत बिगर थोड़ेही विश्व की बादशाही मिलेगी। बाप को याद करेंगे तब ही अपने को तुम राजाई का तिलक देते हो अर्थात् राजाई के अधिकारी बनते हो। जितना अच्छी रीति याद में रहेंगे, श्रीमत पर चलेंगे तो तुम राजाओं का राजा बनेंगे। पढ़ाने वाला टीचर तो आया है पढ़ाने। यह पाठशाला है ही मनुष्य से देवता बनने की। नर से नारायण बनाने की कथा सुनाते हैं। यह कथा कितनी नामीग्रामी है। इनको अमरकथा, सत्य नारायण की कथा, तीजरी की कथा भी कहते हैं। तीनों का अर्थ भी बाप समझाते हैं। भक्ति मार्ग की तो बहुत कथायें हैं। तो देखो गीत कितना अच्छा है। बाबा हमको सारे विश्व का मालिक बनाते हैं, जो मालिकपना कोई लूट न सके। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) सदा यह स्मृति रखनी है कि हम एक मत, एक राज्य, एक धर्म की स्थापना के निमित्त हैं इसलिए एक मत होकर रहना है।
2) स्वयं को राजाई का तिलक देने के लिए विकारों को छोड़ने की मेहनत करनी है। पढ़ाई पर पूरा ध्यान देना है।
वरदान:
अनुभव की विल पावर द्वारा माया की पावर का सामना करने वाले अनुभवीमूर्त भव!   
सबसे पावरफुल स्टेज है अपना अनुभव। अनुभवी आत्मा अपने अनुभव की विल-पावर से माया की कोई भी पावर का, सभी बातों का, सर्व समस्याओं का सहज ही सामना कर सकती है और सभी आत्माओं को सन्तुष्ट भी कर सकती है। सामना करने की शक्ति से सर्व को सन्तुष्ट करने की शक्ति अनुभव के विल पावर से सहज प्राप्त होती है, इसलिए हर खजाने को अनुभव में लाकर अनुभवीमूर्त बनो।
स्लोगन:
एक दो को देखने के बजाए स्वयं को देखो और परिवर्तन करो।