Saturday, May 21, 2016

मुरली 22 मई 2016

22-05-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:02-10-81 मधुबन

“सदा मिलन के झूले में झूलने का आधार”
आज चारों ओर के याद में रहने वाले बच्चों को बापदादा साकार वा आकार में सम्मुख देखते हुए याद का रेसपान्ड पदमगुणा याद प्यार दे रहे हैं। कोई तन से, कोई मन से एक ही मिलन के संकल्प में, एक ही याद में स्थित हैं। बापदादा खजाना तो दे ही चुके हैं। साकार द्वारा, आकार अव्यक्त रूप द्वारा सर्व खजानों के मालिक बना चुके हैं। जब सर्व खजानों के मालिक बन गये तो बाकी क्या रह गया है? कुछ रहा है? बापदादा तो सिर्फ मालिकों को मालेकम् सलाम करने आये हैं। देखने में तो मास्टर बन ही गये हो, बाकी क्या रह गया है।

सुनने का हिसाब निकालो और सुनाने वाले का भी हिसाब निकालो। अथाह सुन लिया, अथाह सुना लिया। सुनते-सुनते सुनाने वाले भी बन गये। तो सुनाने वालों को क्या सुनना है? आप लोगों का ही गीत है, अनुभव का गीत गाते हो, “पाना था वो पा लिया– अब काम क्या बाकी रहा।” यह किसका गीत है? ब्रह्मा बाप का है वा ब्राह्मणों का भी है? यही गीत है ना आपका? तो बाप भी पूछते हैं– काम क्या बाकी रहा? बाप आप में समा गये और आप बाप में समा गये, जब समा गये तो बाकी क्या रह गया? समा गये हो या समा रहे हो? क्या कहेंगे? समा गये वा समा रहे हो? नदी और सागर का मेला तो हो ही गया ना। समाना अर्थात् मिलन मनाना। तो मिलन तो मना लिया ना? सागर गंगा से अलग नहीं, गंगा सागर से अलग नहीं। गंगा सागर का अविनाशी मेला है। समा गये अर्थात् समान बन गये। समान बनने वालों को बापदादा भी स्नेह की मुबारक देते हैं।

इस बारी बापदादा सिर्फ देखने आये हैं। मालिकों की आज्ञा मानकर मिलने के लिए आ गये हैं। मालिकों को ना नहीं कर सकते हैं। तो “जी हाजर” का पाठ पढ़कर हाजर हो गये हैं। ऐसे ही तत् त्वम्। बापदादा आदिकाल से “तत् त्वम्” का वरदान ही दे रहे हैं। संकल्प और स्वरूप दोनों में तत् त्वम् के वरदानी हो। धर्म और कर्म दोनों में तत् त्वम् के वरदानी हो। ऐसे वरदानी सदा समीप और समान के अनुभवी होते हैं। बापदादा ऐसे समीप और समान बच्चों को देख हार्षित होते हैं। अमृतवेले से लेकर दिन के समाप्ति समय तक सिर्फ एक शब्द धर्म और कर्म में लाओ तो सदा मिलन के झूले में झूलते रहेंगे। जिस मिलन के झूले में प्रकृति और माया दोनों ही आपके झूले को झुलाने वाले, दासी बन जायेंगे। सर्व खजाने आपके इस श्रेष्ठ झूले के श्रृंगार बन जायेंगे। शक्तियों को, गुणों को, मेहनत से धारण नहीं करना पड़ेगा, लेकिन यह स्वयं आपका श्रृंगार बन आपके सामने स्वत: ऐसा मिलन का झूला, जिसमें बाप और आप, समान अर्थात् समाये हुए हों। ऐसे झूले में सदा झूलने का आधार एक शब्द– “बाप समान”

समान नहीं तो समा नहीं सकते। अगर समाना नहीं आता तो संगमयुग को गंवाया क्योंकि संगमयुग ही नदी, सागर के समाने का मेला है। मेला अर्थात् समाना। मिलन मनाना। तो समाना आता है? मेला नहीं मनाते तो क्या करते? झमेला करते। तो या है झमेला या है मेला। बच्चे कहते हैं अकेला हूँ लेकिन बाप कहते अकेला होना ही नहीं है, जिसको अकेला कहते हो उसमें भी साथ है। संगमयुग है ही कम्बाइन्ड रहने का युग। बाप से तो अकेले नहीं हो सकते ना। स्दा के साथी हैं। बाकी छोटे-छोटे बच्चे झमेले में फंस जाते हैं। और झमेले भी अनेक हैं, एक नहीं। मेला एक है झमेले अनेक। मेले में रहो तो झमेले समाप्त हो जाएं। अब तो सम्पन्नता के प्रालब्धी बनो। अल्पकाल की प्रालब्ध को समाप्त कर सम्पूर्णता के सम्पन्नता की प्रालब्ध को अनुभव में लाओ। अच्छा-

ऐसे बाप समान, सदा बाप के साथ मिलन मनाने के झूले में झूलने वाले, पाना था वो पा लिया– ऐसे सर्व प्राप्ति स्वरूप, सदा हर संकल्प और बोल में, कर्म में जी हजूर और जी हाजिर करने वाले, ऐसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को, साकार द्वारा वा आकार द्वारा मिलन मनाने वाले, देश विदेश के सर्व बच्चों को, बालक सो मालिकों को बाप का मालेकम् सलाम व याद प्यार, साथ-साथ श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।

प्राण अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात पार्टियों के साथ

1. कर्नाटक जोन:- सभी सदा साक्षी स्थिति में स्थित हो, हर कर्म करते हो? जो साक्षी हो कर्म करते हैं उन्हें स्वत: ही बाप के साथीपन का अनुभव भी होता है। साक्षी नहीं तो बाप भी साथी नहीं इसलिए सदा साक्षी अवस्था में स्थित रहो। देह से भी साक्षी, जब देह के सम्बन्ध और देह के साक्षी बन जाते हो तो स्वत: ही इस पुरानी दुनिया से साक्षी हो जाते हो। देखते हुए, सम्पर्क में आते हुए सदा न्यारे और प्यारे। यही स्टेज सहजयोगी का अनुभव कराती है। तो सदा साक्षी, इसको कहते हैं साथ में रहते हुए भी निर्लेप। आत्मा निर्लेप नही है लेकिन आत्म-अभिमानी स्टेज निर्लेप है अर्थात् माया की लेप व आकर्षण से परे है। न्यारा अर्थात् निर्लेप। तो सदा ऐसी अवस्था में स्थित रहते हो? किसी भी प्रकार की माया का वार न हो। बाप पर बलिहार जाने वाले माया के वार से सदा बचे रहेंगे। बलिहार वालों पर वार नहीं हो सकता। तो ऐसे हो ना? जैसे फर्स्ट चांस मिला है वैसे ही बलिहार और माया के वार से परे रहने में भी फर्स्ट। फर्स्ट का अर्थ ही है फास्ट जाना। तो इस स्थिति में सदा फर्स्ट। सदा खुश रहो सदा खुशनशीब रहो। अच्छा।

2. जैसे बाप के गुणों का वर्णन करते हो, वैसे स्वयं में भी वे सर्व गुण अनुभव करते हो। जैसे बाप ज्ञान का सागर, सुख का सागर है वैसे ही स्वयं को भी ज्ञान स्वरूप, सुख स्वरूप अनुभव करते हो। हर गुण का अनुभव सिर्फ वर्णन नहीं लेकिन अनुभव। जब सुख स्वरूप बन जायेंगे तो सुख स्वरूप आत्मा द्वारा सुख की किरणें विश्व में फैलेंगी क्योंकि मास्टर ज्ञान सूर्य हो। तो जैसे सूर्य की किरणें सारे विश्व में जाती हैं वैसे आप ज्ञान सूर्य के बच्चों के ज्ञान, सुख, आनन्द की किरणें सर्व आत्माओं तक पहुंचेंगी। जितने ऊंचे स्थान और स्थिति पर होंगे उतना चारों और स्वत: फैलती रहेंगी। तो ऐसे अनुभवी मूर्त हो। सुनना-सुनाना तो बहुत हो गया, अभी अनुभव को बढ़ाओ। बोलना अर्थात् स्वरूप बनाना, सुनना अर्थात् स्वरूप बनना।

3. सदा खुशी के खजानों से खेलने वाले हो ना? खुशी भी एक खजाना है जिस खजाने द्वारा अनेक आत्माओं को मालामाल बना सकते हो। आजकल विशेष इसी खजाने की आवश्यकता है। और सब है लेकिन खुशी नहीं है। आप सबको तो खुशियों की खान मिल गयी है। अनगिनत खजाना मिल गया है। खुशी के खजाने में भी वैराइटी है ना। कभी किस बात की खुशी, कभी किस बात की खुशी। कभी बालकपन की खुशी तो कभी मालिकपन की खुशी। कितने प्रकार के खुशी के खजाने मिले हैं। वो वर्णन करते हुए औरों को भी मालामाल बना सकते हो। तो इन खजानों को सदा कायम रखो और सदा खजानों के मालिक बनो।

सदा बाप द्वारा मिली हुई शक्तियों को कार्य में लगाते रहो। बाप ने तो शक्तियां दे दी हैं। अब सिर्फ उन्हें कार्य में लगाओ। सिर्फ मिल गया है, इसमें खुश नहीं रहो लेकिन जो मिला है वो स्वयं के प्रति और सर्व के प्रति यूज करो तो सदा मालामाल अनुभव करेंगे।

4. सब वरदानी आत्मायें हो ना? इस समय विशेष भारत में किसकी याद चल रही है? वरदानियों की। देवी अर्थात् वरदानी, देवियों को विशेष वरदानी के रूप में याद करते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि हमें याद कर रहे हैं? अनुभव होता है? भक्तों की पुकार महसूस होती है कि सिर्फ नॉलेज के आधार से जानते हो? एक है जानना, दूसरा है अनुभव होना। तो अनुभव होता है, वरदानी मूर्त बनने के लिए विशेषता कौन सी चाहिए? आप सब वरदानी हो ना। तो वरदानी की विशेषता क्या है? वे सदा बाप के समान और समीप रहने वाले होंगे। अगर कभी बाप समान और कभी बाप समान नहीं लेकिन स्वयं के पुरूषाथी तो वरदानी नहीं बन सकते क्योंकि बाप पुरूषार्थ नहीं करता लेकिन सदा सम्पन्न स्वरूप में है तो अगर बहुत पुरूषार्थ करते हैं तो पुरूषार्थी छोटे बच्चे हैं, बाप समान नहीं। समान अर्थात् सम्पन्न। ऐसे सदा समान रहने वाले सदा वरदानी होंगे। अच्छा।

अव्यक्त मुरली से चुने हुए महावाक्य (प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न:- पिछले जन्मों के हिसाब-किताब के बोझ को समाप्त करने वाले भी वर्तमान समय कौन सा बोझ अपने ऊपर चढ़ा लेते हैं?

उत्तर:- यदि ब्रह्माकुमार कुमारी वा विश्व सेवाधारी कहलाकर कोई विकल्प वा विकर्म करते हैं तो सौगुणा बोझ चढ़ जाता है। कोई अपने संस्कारों के वश, स्वभाव के वश, ज्ञान की बुद्धि के अभिमान वश, नाम और शान के स्वार्थ वश, स्वयं के सैलवेशन प्राप्त करने के वश, अलबेलेपन वा आलस्य के वश..ऐसे अनेक बोझ उठाते रहते हैं। और यदि सर्विसएबुल कहलाकर कोई ऐसा उल्टा कर्म करके डिससर्विस का वातावरण, वायब्रेशन फैलाने के निमित्त बनते हैं तो एक बार की डिस-सर्विस दस बार की सर्विस को समाप्त कर देती है। वह भल समझते हैं कि मैं बहुत सर्विस करता हूँ लेकिन खाता खाली होता है।

प्रश्न:- जिनका खाता खाली है उनकी निशानी क्या होगी?

उत्तर:- उन्हें याद में शक्ति वा प्राप्ति का अनुभव नहीं होगा। अन्दर की सन्तुष्टता नहीं होगी। हर समय कोई न कोई परिस्थिति, व्यक्ति, प्रकृति वा वैभव स्थिति को हलचल में लाने के वा खुशी, शक्ति खत्म करने के निमित्त बनेंगे। बाहर से खुशमिजाज वा पुरूषार्थी समझेंगे लेकिन अन्दर बिल्कुल उलझन में होंगे।

प्रश्न:- यदि नाम शान का खाता फुल है और खजानों का खाता, अनुभूतियों का खाता खाली है तो उसकी निशानी क्या होगी?

उत्तर:- ऐसी आत्मा स्वयं विघ्नों के वश होने के कारण सेवा के कार्य में विघ्न रूप बन जाती है। 2- वेट (बोझ) बढ़ने के कारण अनेक प्रकार के मानसिक व्यर्थ चिन्तन वा मानसिक अशान्ति रूपी अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। 3- उनके पुरूषार्थ की रफ्तार तीव्र नहीं हो सकती। वह प्लैन बनायेंगे कि यह करेंगे, यह करेंगे लेकिन सफल नहीं हो सकते। 4- ऐसी वेट वाली आत्माएं जो विघ्न रूप वा डिस-सर्विस के निमित्त बनती हैं, बाप को अर्पण किया हुआ अपना तन-मन वा ईश्वरीय सेवा अर्थ मिला हुआ धन अपने विघ्नों के कारण वेस्ट करती हैं अर्थात् सफलता नहीं पाती, उसके वेस्ट करने का भी बोझ चढ़ता है, इसलिए पापों की गहन गति को भी अच्छी रीति जानकर वेस्ट मत करो और वेट कम करो। धर्मराज पुरी में जाने के पहले अपना धर्मराज बनो। अच्छा। ओम् शान्ति।
वरदान:
कारण को निवारण में परिवर्तन कर सदा आगे बढ़ने वाले समर्थी स्वरूप भव!   
ज्ञान मार्ग में जितना आगे बढ़ेंगे उतना माया भिन्न-भिन्न रूप से परीक्षा लेने आयेगी क्योंकि यह परीक्षायें ही आगे बढ़ाने का साधन है न कि गिराने का। लेकिन निवारण के बजाए कारण सोचते हो तो समय और शक्ति व्यर्थ जाती है। कारण के बजाए निवारण सोचो और एक बाप के याद की लगन में मगन रहो तो समर्थी स्वरूप बन निर्विघ्न हो जायेंगे।
स्लोगन:
महादानी वह है जो अपनी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति की शक्ति से शान्ति का अनुभव करा दे।