Tuesday, June 28, 2016

मुरली 29 जून 2016

29-06-16 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन

“मीठे बच्चे– तुम अभी सच्चे-सच्चे राजयोगी हो, तुम्हें राजऋषि भी कहा जाता है, राजऋषि माना ही पवित्र”   
प्रश्न:
तुम बच्चे, मनुष्यों को माया रूपी रावण की दल-दल से कब निकाल सकेंगे?
उत्तर:
जब तुम खुद उस दल-दल से निकले हुए होंगे। दल-दल से निकलने वालों की निशानी है– इच्छा मात्रम् अविद्या। एक बाप के सिवाए और कुछ भी याद न आये। अच्छा कपड़ा पहनें, अच्छी चीज खायें.. यह लालच न हो, तुम पूरा ही वनवाह में हो। इस शरीर को भी भूले हुए, मेरा कुछ भी नहीं, मैं आत्मा हूँ– ऐसे आत्म-अभिमानी बच्चे ही रावण की दल-दल से मनुष्यों को निकाल सकते हैं।
गीत:-
तू प्यार का सागर है....   
ओम् शान्ति।
कोई समय गीत जब बजाया जाता था तो बच्चों से गीत का अर्थ भी पूछते थे। अब बताओ तुम कब से राह भूल हो? (कोई ने कहा द्वापर से, कोई ने कहा सतयुग से) जो कहते हैं द्वापर से भूले हैं, वे रांग हैं। सतयुग से राह भूले हैं। राह बताने वाला तो अभी तुमको मिला है। सतयुग में राह बताने वाले को नहीं जानते हैं। वहाँ कोई बाप को जानते ही नहीं। गोया भूले हुए हैं। भूलना भी ड्रामा में नूँध है। फिर अभी राह बताने आये हैं। कहते हैं ना प्रभू राह बताओ। हम सतयुग से लेकर बाप को भूले हैं। बाबा प्रश्न पूछते हैं-बुद्धि चलाने लिए। यह ज्ञान ही निराला है ना, ज्ञान का सागर बाप ही है। बाप सम्मुख समझाते हैं। ज्ञान का सागर, सुख का सागर मैं ही हूँ। तुम भी जानते हो– बरोबर पतित-पावन भी एक ही बाप है। यह तो भक्ति वाले भी मानते हैं। पावन दुनिया है ही शान्तिधाम और सुखधाम। अब सुखधाम और दु:खधाम आधा-आधा है। यह तो बच्चे अच्छी रीति जानते हैं। बाप प्यार का सागर है, तभी तो सब उनको फादर कह पुकारते हैं परन्तु वह कौन है, कैसे आते हैं, यह भूल जाते हैं। 5 हजार वर्ष की बात है, बरोबर इन देवी-देवताओं का राज्य था। सतयुग में है सद्गति फिर दुर्गति कैसे होती है, कौन बताये? बाप ही आकर समझाते हैं, द्वापर से तुम्हारी दुर्गति हुई है तब तो बुलाते हैं। तुम समझते हो यह कोई नई बात नहीं है। बाप कल्प-कल्प आते हैं। अभी निराकार बाप आत्माओं को समझाते हैं। कोई भी अपनी आत्मा को नहीं जानते। ऐसे कभी कोई नहीं बतायेंगे कि हमारी आत्मा में सारा पार्ट भरा हुआ है। कभी नहीं कहेंगे कि मैं अनेक बार यह बना हूँ, पार्ट बजाया है। ड्रामा को वह जानते ही नहीं। करके लाखों हजार वर्ष कहें फिर भी ड्रामा तो है ना। ड्रामा रिपीट होता है। यह तो कहेंगे ना। यह ज्ञान बाप ही बच्चों को सम्मुख देते हैं। मुख से बात कर रहे हैं। तुम जानते हो हमको शिवबाबा ने ब्रह्मा द्वारा अपना बनाए ब्राह्मण बनाया है। शिवबाबा का यह बच्चा भी है। वन्नी (स्त्री) भी है। देखो कितने बच्चों की सम्भाल की जाती है। अकेला मेल होने के कारण सरस्वती को मददगार बनाया है कि बच्चों को सम्भालो। यह बातें शास्त्रों में नहीं हैं। यह है प्रैक्टिकल। बाप ही राजयोग सिखाते हैं, जिनको राजयोग सिखाया, वह राजायें बनें। 84 जन्मों में आये। बाइबिल, कुरान, वेद-शास्त्र आदि पढ़ते तो बहुत हैं परन्तु समझते कुछ भी नहीं हैं। अभी तुम कोई तत्व योगी नहीं हो। तुम्हारा तो बाप से योग है अर्थात् बाप की याद है। तुम अभी राजयोगी, राजऋषि हो अर्थात् योगीराज हो। योग् पवित्र को कहा जाता है। स्वर्ग की राजाई लेने लिए तुम योगी बने हो। बाप पहले-पहले कहते हैं पवित्र बनो। योगी नाम ही उनका है। तुम सब राजयोगी हो। यह तुम ब्रह्मा मुख वंशावली ब्राह्मणों की बात है। तुमको राजयोग सिखा रहे हैं, स्टूडेन्ट हो गये ना। स्टूडेन्टस को कब टीचर भूलेगा क्या? जानते हो शिवबाबा हमको पढ़ा रहे हैं। परन्तु माया फिर भी भुला देती है। तुम अपने पढ़ाने वाले टीचर को भूल जाते हो। भगवान पढ़ाते हैं– यह समझें तब तो नशा चढ़े। स्कूल में आई.सी.एस. पढ़ते हैं तो कितना नशा रहता है। तुम बच्चे तो 21 जन्म के लिए यह राजयोग की पढ़ाई पढ़ते हो। पढ़ना तो फिर भी होता है। राजविद्या भी पढ़नी पड़े, भाषा आदि सीखनी पड़े। तुम बच्चे समझते हो सतयुग से हम यह राह भूलनी शुरू करते हैं। फिर एक-एक ढाका (पौढ़ी), एक-एक जन्म में नीचे उतरते हैं। अभी तुमको सारा याद है। कैसे हम चढ़ते हैं, कैसे हम उतरते हैं। यह सीढ़ी अच्छी रीति याद करो। 84 जन्म पूरे हुए, अब हमको जाना है। तो खुशी होती है, यह बेहद का नाटक है। आत्मा कितनी छोटी है। पार्ट बजाते-बजाते आत्मा थक जाती है तब कहते हैं बाबा राह बताओ तो हम विश्राम पायें, सुख-शान्ति पायें। तुम सुखधाम में हो तो तुम्हारे लिए वहाँ सुख-शान्ति भी है। वहाँ कोई हंगामा नहीं। आत्मा को शान्ति है। शान्ति के दो स्थान हैं– शान्तिधाम और सुखधाम। दु:खधाम में अशान्ति है। यह पढ़ाई है, तुम जानते हो हमको बाबा सुखधाम वाया शान्तिधाम में ले जा रहे हैं। तुमको कहने की दरकार नहीं। तुम जानते हो हम यहाँ पार्ट बजाने आये हैं फिर जाना है। यह खुशी है। शान्ति की खुशी नहीं है। हमको मजा आता है, खुशी होती है। जानते हैं बाप को याद करने से विकर्म विनाश होंगे। कोई कहते हैं हमको मन की शान्ति मिले। यह अक्षर भी रांग है। नहीं, हम बाप को याद करते हैं कि विकर्म विनाश हों। शान्त तो मन रह न सके। कर्म बिगर रह नहीं सकते। बाकी महसूसता आती है, हम बाप से पवित्रता, सुख-शान्ति का वर्सा ले रहे हैं, तो खुशी होनी चाहिए। यह तो है ही दु:खधाम। इसमें सुख हो नहीं सकता। मनुष्य शान्तिधाम सुखधाम को भूल गये हैं। तो जिनको बहुत पैसे हैं, समझते हैं हम सुख में हैं, सन्यासी घरबार छोड़ जंगल में जाते हैं। कोई हंगामा तो है नहीं। तो शान्त तो हो जाते हैं परन्तु वह हुआ अल्पकाल के लिए। आत्मा का जो शान्ति स्वधर्म है, उसमें तुम शान्ति में रहते हो। यहाँ तो प्रवृत्ति में आना ही है। पार्ट बजाना ही है। यहाँ आते ही हैं कर्म करने। कर्म में तो आत्मा को जरूर आना ही है। तुम बच्चे समझते हो- यह समझानी बेहद का बाप दे रहे हैं। निराकार भगवानुवाच– अब तुम जानते हो हम आत्मा हैं, हमारा बाप परम आत्मा है। परम आत्मा माना परमात्मा। उनको यह आत्मा बुलाती है। वह बाप ही सर्व का सद्गति दाता है। अब बाप कहते हैं-बच्चे देही-अभिमानी बनो। यही मेहनत है। आधाकल्प से जो खाद पड़ती है, वह इस याद से ही निकलेगी। तुमको सच्चा सोना बनना है। जैसे सच्चे सोने में खाद मिलाए फिर जेवर बनाते हैं। तुम असुल में सच्चा सोना थे फिर तुम्हारे में खाद पड़ती है। अब तुम्हारी बुद्धि में है, हमने पार्ट बजाया है। अब हम जाते हैं पियर घर। जैसे विलायत से जब पियर घर लौटते हो तो खुशी होती है, तुम्हें भी खुशी है, तुम जानते हो बाबा हमारे लिए स्वर्ग लाया है। बेहद के बाप की सौगात है– बेहद की बादशाही अर्थात् सद्गति। सन्यासी लोग मुक्ति की सौगात पसन्द करते हैं। कोई मरता है तो भी कहते हैं स्वर्गवासी हुआ। सन्यासी कहेंगे ज्योति ज्योत समाया, जिसमें सब मिल जायेंगे। वह तो रहने का स्थान है, जहाँ हम आत्मायें रहती हैं। बाकी कोई ज्योति वा आग थोड़ेही है, जिसमें सब मिल जाएं। ब्रह्म महतत्व है, जिसमें आत्मायें रहती हैं। बाप भी वहाँ रहते हैं। वह भी है बिन्दी। बिन्दी का किसको साक्षात्कार हो तो समझ नहीं सकेंगे। बच्चे बहुत कहते हैं-बाबा याद करने में दिक्कत होती है। बिन्दी रूप को कैसे याद करें। आधाकल्प तो बड़े लिंग रूप को याद किया। वह भी बाप समझाते हैं। बिन्दी की तो पूजा हो न सके। इनका मन्दिर कैसे बनायेंगे? बिन्दी तो देखने में भी न आये, इसलिए शिवालिंग बड़ा बनाते हैं। बाकी आत्माओं के सालिग्राम तो बहुत छोटे-छोटे बनाते हैं। अण्डे मिसल बनाते हैं। कहेंगे पहले यह क्यों नहीं बताया– परमात्मा बिन्दी मिसल है। बाप कहते हैं-उस समय यह बताने का पार्ट ही नहीं था। अरे तुम आई.सी.एस. शुरू से क्यों नहीं पढ़ते हो? पढ़ाई के भी कायदे हैं ना। कोई ऐसी बात पूछे तो तुम कह सकते हो– अच्छा बाबा से पूछते हैं वा हमारे से बड़ी टीचर है उनसे लिखकर पूछते हैं। बाबा को बताना होगा तो बतायेंगे वा तो कहेंगे आगे चल समझ लेंगे। एक ही टाइम तो नहीं सुनायेंगे। यह सब हैं नई बातें। तुम्हारे वेद-शास्त्रों में जो है– बाप बैठ सार बताते हैं। यह भी भक्ति मार्ग की नूँध है, फिर भी तुमको पढ़ने ही होंगे। यह भक्ति का पार्ट बजाना ही होगा। पतित बनने का भी पार्ट बजाना है। कहते हैं भक्ति के दुबन में फँस गये हैं। बाहर से तो खूबसूरती बहुत है। जैसे रूण्य के पानी का मिसाल देते हैं। भक्ति भी सुहैनी (आकर्षक) बहुत है। बाप कहते हैं यह रूण्य का पानी है। (मृगतृष्णा समान) इस दुबन में फँस जाते हैं। फिर निकलना ही मुश्किल हो जाता है, एकदम फँस पड़ते हैं। जाते हैं औरों को निकालने फिर खुद ही फँस पड़ते हैं। ऐसे बहुत फँस पड़े। आश्चर्यवत सुनन्ती, कथन्ती औरों को निकालवन्ती, चलते-चलते फिर खुद फँस पड़ते हैं। कितने अच्छे-अच्छे फर्स्टक्लास थे। फिर उनको निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। बाप को भूल जाते हैं, तो दुबन से निकालने में कितनी मेहनत लगती है। कितना भी समझाओ बुद्धि में नहीं बैठता। अब तुम समझ सकते हो कि हम माया रूपी रावण की दल-दल से कितना निकले हैं। जितना-जितना निकलते जाते हैं, उतना-उतना खुशी होती है। जो खुद निकला होगा उनके पास शक्ति होगी दूसरे को निकालने की। बाण चलाने वाले कोई तीखे होते हैं, कोई कमजोर होते हैं। भील और अर्जुन का भी मिसाल है ना। अर्जुन साथ रहने वाला था, अर्जुन एक को नहीं, जो बाप के बनकर बाप के साथ रहते हैं, उनको कहा जाता है अर्जुन। साथ में रहने वाले और बाहर में रहने वाले की रेस कराई जाती है। भील अर्थात् बाहर रहने वाला तीखा चला गया। दृष्टान्त एक का दिया जाता है। बात तो बहुतों की है। तीर भी यह ज्ञान का है। हर एक अपने को समझ सकते हैं, हम कितना बाप को याद करते हैं, और कोई की याद तो नहीं आती है! अच्छी चीज पहनने वा खाने की लालच तो नहीं रहती! यहाँ अच्छा पहनेंगे तो वहाँ कम हो जायेगा। हमको यहाँ तो वनवाह में रहना है। बाप कहते हैं तुम अपने इस शरीर को भी भूल जाओ। यह तो पुराना तमोप्रधान शरीर है। तुम स्वर्ग के मालिक बनते हो। इच्छा मात्रम् अविद्या। बाप कहते हैं-तुम यहाँ जेवर आदि भी नहीं पहनों, ऐसे क्यों कहते हैं? इसके भी अनेक कारण हैं। कोई का जेवर गुम हो जायेगा तो कहेंगे वहाँ बी.के. को देकर आई है और फिर चोर-चकार भी रास्ते चलते छीन लेते हैं। आजकल माईयाँ भी लूटने वाली बहुत निकली हैं। फीमेल भी डाका मारती हैं। दुनिया का हाल देखो क्या है? तुम समझते हो, यह दुनिया बिल्कुल वेश्यालय है। हम यहाँ शिवालय में बैठे हैं– शिवबाबा के साथ। वह सत है, चैतन्य है, आनंद स्वरूप है। आत्मा की ही महिमा है। आत्मा ही कहती हैं मैं प्रेजीडेंट बना हूँ, मैं फलाना हूँ। और तुम्हारी आत्मा कहती है हम ब्राह्मण हैं। बाबा से वर्सा ले रहे हैं। आत्म-अभिमान में रहना है, इसमें ही मेहनत है। यह मेरा फलाना है, यह मेरा है.. यह याद रहता है, हम आत्मा भाई-भाई हैं, यह भूल जाते हैं। यहाँ मेरा-मेरा छोड़ना पड़ता है। मैं आत्मा हूँ, इनकी आत्मा भी जानती है। बाप समझा रहे हैं, मैं भी सुनता रहता हूँ। पहले मैं सुनता हूँ, भल मैं भी सुना सकता हूँ परन्तु बच्चों के कल्याण अर्थ कहता हूँ– तुम सदा समझो कि शिवबाबा समझाते हैं। विचार सागर मंथन करना बच्चों का काम है। जैसे तुम करते हो, वैसे मैं भी करता हूँ। नहीं तो पहले नम्बर में कैसे जायेंगे लेकिन अपने को गुप्त रखते हैं। अच्छा।

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) मेरा-मेरा सब छोड़ अपने को आत्मा समझना है। आत्म-अभिमानी रहने की मेहनत करनी है। यहाँ बिल्कुल वनवाह में रहना है। कोई भी पहनने, खाने की इच्छा से इच्छा मात्रम् अविद्या बनना है।
2) पार्ट बजाते हुए कर्म करते अपने शान्ति स्वधर्म में स्थित रहना है। शान्तिधाम और सुखधाम को याद करना है। इस दु:खधाम को भूल जाना है।
वरदान:
स्व-स्थिति द्वारा सर्व परिस्थितियों का सामना करने वाले अव्यक्त स्थिति के अभ्यासी भव!   
जब अव्यक्त स्थिति के अभ्यास की आदत बन जायेगी तब स्व स्थिति द्वारा हर परिस्थिति का सामना कर सकेंगे। और यह आदत अदालत में जाने से बचा देगी इसलिए इस अभ्यास को जब नेचरल और नेचर बनाओ तब नेचरल कैलेमिटीज हो क्योंकि जब सामना करने वाले स्व स्थिति से हर परिस्थिति को पार करने की शक्ति धारण कर लेंगे तब पर्दा खुलेगा। इसके लिए पुरानी आदतों से, पुराने संस्कारों से, पुरानी बातों से...पूरा वैराग्य चाहिए।
स्लोगन:
स्वयं को निमित्त करनहार समझो तो किसी भी कर्म में थकावट नहीं हो सकती।