Saturday, June 6, 2015

मुरली 07 जून 2015

“रूहानी अलंकार और उनसे सजी हुई मूर्तियाँ”

वरदान:-

सर्व खजानों की इकॉनामी का बजट बनाने वाले महीन पुरुषार्थी भव!

जैसे लौकिक रीति में यदि इकॉनामी वाला घर न हो तो ठीक रीति से नहीं चल सकता। ऐसे यदि निमित्त बने हुए बच्चे इकॉनामी वाले नहीं हैं तो सेन्टर ठीक नहीं चलता। वह हुई हद की प्रवृत्ति, यह है बेहद की प्रवृत्ति। तो चेक करना चाहिए कि संकल्प, बोल और शक्तियों में क्या-क्या एक्स्ट्रा खर्च किया? जो सर्व खजानों की इकॉनामी का बजट बनाकर उसी अनुसार चलते हैं उन्हें ही महीन पुरुषार्थी कहा जाता है। उनके संकल्प, बोल, कर्म व ज्ञान की शक्तियां कुछ भी व्यर्थ नहीं जा सकती।

स्लोगन:-

स्नेह के खजाने से मालामाल बन सबको स्नेह दो और स्नेह लो।




ओम् शांति ।

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07-06-15 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:12-12-79 मधुबन

“रूहानी अलंकार और उनसे सजी हुई मूर्तियाँ”

बापदादा अपने सर्व बच्चों को आज विशेष अलंकारी स्वरूप में देख रहे हैं - हरेक की सजी सजाई अलंकारधारी अति सुन्दर मूर्त देख रहे हैं। अपने-आप को देखा है! कौन-कौन से अलंकार धारण किये हुए हैं? अपने रूहानी अलंकारों की सजावट को सदा धारण कर चले रहे हो?

आज अमृतवेले हरेक बच्चे की सजी सजाई हुई मूरत देखी। क्या देखा? हरेक बच्चा अति सुन्दर छत्रछाया के नीचे बैठा हुआ है। जिस छत्रछाया के नीचे होने के कारण प्रकृति और माया के वार से बचे हुए थे। बहुत रूहानी सेफ्टी के साधन के अन्दर थे। जरा सा सूक्ष्म वायब्रेशन भी छत्रछाया के अन्दर पहुँच नहीं सकता। ऐसी छत्रछाया के अन्दर विश्व-कल्याण की सेवा के जिम्मेवारी के ताजधारी बैठे हुए थे। डबल ताज बहुत सुन्दर सज रहा था। एक सम्पूर्ण प्युरिटी के हिसाब से लाइट का क्राउन, दूसरा सेवा का ताज। इसमें नम्बरवार थे। किसी-किसी बच्चे की प्युरिटी की तीन स्टेजेस संकल्प, बोल और कर्म के लाइट का क्राउन एक तो फैला हुआ ज्यादा था। जितनी तीनों स्टेज की प्युरिटी उसी अनुसार लाइट का क्राउन, चारों ओर अपना प्रकाश फैला रहा था। किसी का ज्यादा तो किसी का कम था। साथ-साथ सेवा की जिम्मेवारी के अनुसार लाइट की पावर में अन्तर था अर्थात् परसेन्टेज में फर्क था। कोई 10 पावर के तो कोई हज़ार पावर के, परसेंटेज और फैलाव अनुसार भिन्न-भिन्न नम्बरवार ताजधारी थे।

जितने ताज में नम्बर थे उसी अनुसार छत्रछाया में भी फर्क था, किसी की छत्रछाया इतनी बड़ी थी जो उसी छत्रछाया के अन्दर रह कार्य कर सकते थे। सारे विश्व का भ्रमण छत्रछाया के अन्दर कर सकते थे, इतनी बेहद की छत्रछाया थी और किसी-किसी की यथा-शक्ति नम्बरवार हद की थी। ऐसी हद की छत्रछाया के अन्दर बैठे हुए अर्थात् अपने पुरूषार्थ के अन्दर सदा याद के बजाए नियम प्रमाण, समय प्रमाण याद में रहने वाले। 4 घण्टे वाले, 8 घण्टे वाले अर्थात् याद को भी हद में लाने वाले। याद बेहद के बाप की है लेकिन याद करने वालों ने बेहद की याद को भी हद में ला दिया है। सम्बन्ध अविनाशी है लेकिन सम्बन्ध निभाने वालों ने समय निश्चित कर विनाशी कर दिया है। कभी बाप से सम्बन्ध, कभी व्यक्ति से सम्बन्ध, कभी वैभवों से सम्बन्ध, कभी अपने ही पुराने संस्कार व स्वभाव के साथ सम्बन्ध। लेने के लिए तो अविनाशी अधिकार है, अविनाशी वर्सा है। लेकिन देने के समय विनाशी वर्से से भी किनारा कर देते हैं। लेने में फराखदिल हैं और देने में कहाँ-कहाँ इकॉनामी (बचत) करते हैं। इकॉनामी कैसे करते हो, वह जानते हो? कई बच्चे बड़ी होशियारी से बाप से रूह-रूहान करते हैं। क्या कहते हैं? फलानी-फलानी बात में इतना तो परिवर्तन कर लिया है, बाकी थोड़ा-सा है, वह भी हो जायेगा। इतना थोड़ा तो होगा ही ना। लेने में नहीं कहते कि थोड़ा-थोड़ा दे दो। अगर बाप कोई महारथी की स्पेशल खातिरी करें तो संकल्प उठेगा कि क्यों हम भी तो अधिकारी हैं। लेने में जरा भी नहीं छोड़ेंगे लेकिन देने में थोड़ा-थोड़ा कर खत्म कर देंगे। यह इकॉनामी करते हैं, चतुराई से बाप को भी दिलासे देते हैं। जरुर सम्पन्न बन जायेंगे, हो जायेगा। जब लेना - एक सेकेण्ड का अधिकार है तो देने में भी इतने फराखदिल बनो। परिवर्तन करने की शक्ति फुल परसेंटेज से यूज़ करो। तो निरन्तर याद को हद में लाये हुए हैं इसलिए छत्रछाया में भी नम्बर देखे। नम्बरवार होने के कारण माया के वायब्रेशन, वायुमण्डल, व्यक्ति-वैभव, स्वभाव-संस्कार वार करते हैं। नहीं तो छत्रछाया के अन्दर सदा सेफ रह सकते हैं।

ताजधारी देखे, छत्रधारी भी देखे। साथ-साथ सभी ताजधारी तख्तनशीन भी देखे। तख्त को तो जानते हो - बाप के दिलतख्तनशीन। लेकिन यह दिलतख्त इतना प्योर है जो इस तख्त पर सदा बैठ भी वही सकते जो सदा प्योर हैं। बाप तख्त से उतारते नहीं लेकिन स्वयं उतर आते हैं। बाप की सब बच्चों को सदाकाल के लिए ऑफर है कि सब बच्चे सदा तख्तनशीन रहो। लेकिन आटोमेटिक कर्म की गति के चक्र प्रमाण सदाकाल वही बैठ सकता है, जो सदा फालो फादर करने वाले हैं। संकल्प में भी अपवित्रता वा अमर्यादा आ जाती है तो तख्तनशीन की बजाए गिरती कला में अर्थात् नीचे आ जाते हैं। जैसे-जैसे कर्म करते हैं उसी अनुसार उसी समय पश्चाताप करते हैं व महसूस करते हैं कि तख्तनशीन से गिरती कला में आ गये। अगर कोई ज्यादा उल्टा कर्म होता है तो पश्चाताप की स्थिति में आ जाते हैं। अगर कोई विकर्म नहीं लेकिन व्यर्थ कर्म हो जाता है तो पश्चाताप की स्थिति नहीं लेकिन महसूसता की स्टेज होती है। बार-बार व्यर्थ संकल्प महसूसता की स्टेज पर लाता रहेगा कि यह करना नहीं चाहिए। यह राँग है, जैसे काँटे के समान चुभता रहेगा। जहाँ पश्चाताप की स्थिति व महसूसता की स्टेज अनुभव होगी वहाँ तख्तनशीन के नशे की स्टेज नहीं होगी। फर्स्ट स्टेज है - तख्त नशीन। सेकेण्ड स्टेज है - करने के बाद महसूसता की स्टेज। इसमें भी नम्बर है। कोई करने के बाद महसूस करते हैं। कोई करते समय ही महसूस करते हैं और कोई कर्म होने के पहले ही कैच करते हैं कि कुछ होने वाला है। कोई तूफान आने वाला है। आने के पहले ही महसूस कर, कैच कर समाप्त कर देते हैं। तो सेकेण्ड स्टेज है महसूसता की। तीसरी स्टेज है - पश्चाताप की। इसमें भी नम्बर हैं - कोई पश्चाताप के साथ परिवर्तन कर लेते हैं और कई पश्चाताप करते हैं लेकिन परिवर्तन नहीं कर पाते। पश्चाताप है लेकिन परिवर्तन की शक्ति नहीं है तो उसके लिए क्या करेंगे?

ऐसे समय पर विशेष स्वयं के प्रति कोई-न-कोई व्रत और नियम बनाना चाहिए। जैसे भक्ति मार्ग में भी अल्पकाल के कार्य की सिद्धि के लिए विशेष नियम और व्रत धारण करते हैं। व्रत से वृत्ति परिवर्तन होगी। वृत्ति से भविष्य जीवन रूपी सृष्टि बदल जायेगी क्योंकि विशेष व्रत के कारण बार-बार वही शुद्ध संकल्प, जिसके लिए व्रत रखा है, वह स्वत: याद आता है। जैसे भक्त लोग विशेष किसी देवी या देवता का व्रत रखते हैं तो न चाहते भी सारा दिन उसी देवी या देवता की याद आती है और याद के कारण ही बाप उसी देवी या देवता द्वारा याद के रिटर्न में उनकी आशा पूर्ण कर देते हैं। तो जब भक्तों के व्रत का भी फल मिलता है तो ज्ञानी तू आत्मा अधिकारी बच्चों को शुद्ध संकल्प रूपी व्रत का व दृढ़ संकल्प रूपी व्रत का प्रत्यक्ष फल जरूर प्राप्त होगा। तो सुना तख्तनशीन तो सब देखे लेकिन कोई सदाकाल के, कोई उतरते चढ़ते हुए देखे, अभी-अभी तख्तनशीन, अभी-अभी नीचे। चौथा अलंकार क्या देखा?

हरेक के पास स्वदर्शन चक्र देखा। स्वदर्शन चक्रधारी भी सब थे लेकिन कोई का चक्र स्वत: ही चल रहा था और कोई को चलाना पड़ता था और कोई फिर कभी-कभी राइट तरफ चलाने की बजाए राँग तरफ चला लेते थे। जो स्वदर्शन चक्र के बजाए माया की चकरी में आ जाते थे क्योंकि लेफ्ट साइड हो गया ना। स्वदर्शन चक्र के बजाए पर-दर्शन चक्र चला लेते थे, यह है लेफ्ट साइड चलाना। मायाजीत बनने के बजाए पर के दर्शन के उलझन के चक्र में आ जाते थे जिससे ‘क्यों’ और ‘क्या’ के क्वेश्चन की जाल बन जाती, जो स्वयं ही रचते और फिर स्वयं ही फँस जाते, तो सुना क्या-क्या देखा?

चारों ही अलंकार से सजे-सजाए जरुर थे लेकिन नम्बरवार थे। अब क्या करेंगे? बेहद की छत्रछाया के अन्दर आ जाओ अर्थात् कभी-कभी की याद का अन्तर मिटाकर निरन्तर याद की छत्रछाया में आ जाओ। प्युरिटी और सेवा के डबल ताज की परसेन्टेज बेहद में करो अर्थात् बेहद फैली हुई लाइट के ताजधारी बनो। देने और लेने में सेकेण्ड के अभ्यासी बन सदा तख्तनशीन बनो। चढ़ने और उतरने में थक जायेंगे, सदा बेहद के रूहानी आराम में तख्तनशीन रहो अर्थात् निर्बन्धन आत्मा के आराम की स्थिति में रहो, नॉलेजफुल मास्टर हो सदा और स्वत: स्वदर्शन चक्र फिराते रहो। पर-दर्शन चक्र क्यों, क्या के क्वेश्चन की जाल से सदा मुक्त हो जाओ तो क्या होगा? सदा योग-युक्त, जीवन मुक्त चक्रवर्ती बन बाप के साथ विश्व-कल्याण की सेवा में चक्र लगाते रहेंगे। विश्व-सेवाधारी चक्रव्रती राजा बन जायेंगे।

ऐसे सदा अलंकारी, सदा स्वदर्शन चक्रधारी, माया के हर स्वरूप को मास्टर नॉलेजफुल स्टेज पर स्थित हो पहले ही परखने वाले, अनेक प्रकार के माया के वार को समाप्त कर माया को बलिहार बनाने वाले, बाप के गले के हार बनने वाले, अविनाशी सर्व सम्बन्धों की सदा प्रीति की रीति निभाने वाले, ऐसे बाप समान बच्चों को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

यू.पी. निवासी आये हैं। यू.पी. की विशेषता है जैसे भक्ति के तीर्थस्थान यू.पी. में बहुत हैं, वैसे ज्ञान के सेवाकेन्द्र का विस्तार भी अच्छा कर रहे हैं। यू.पी. में भक्त आत्माएं भी बहुत हैं तो मास्टर भगवान अब भक्तों की पुकार सुन और भी जल्दी-जल्दी भक्ति का फल उनको दो। दे रहे हैं, लेकिन और भी स्पीड को बढ़ाओ। यू.पी. की विशेषता - अनेक गरीबों को साहूकार बनाने का बहुत अच्छा चान्स ले रहे हैं। रहमदिल बन रहम की भावना अच्छी दिखा रहे हैं। यू.पी. का उस गवर्मेन्ट के नक्शे में भी विस्तार है, एरिया बहुत लम्बी है। ऐसे ही पाण्डव गवर्नमेन्ट के नक्शे में सेवा की एरिया सबसे वारिसों को प्रत्यक्ष करो। अब तक जो किया है वह बहुत अच्छा नम्बरवन करके दिखाओ। विशेष इस वर्ष में रहे हुए गुप्त किया है, अभी और भी चारों ओर की आत्मायें वन्समोर करें। वाह-वाह की ताली बजायें। ऐसा विशेष कार्य भी यू.पी. वाले करेंगे। अभी और भी ज्यादा ज्ञान-स्थान बनाओ। तीर्थस्थानों से ज्ञान-स्थान बनाते जाओ। अच्छा - बाकी जो भी सब आए हैं जैसे भी पुरूषार्थ में आगे बढ़ रहे हैं, आगे बढ़ने के लिए मुबारक हो। उससे भी अधिक हाई जम्प देने के लिए सदा स्मृति स्वरूप भव।

पार्टियों के साथ अव्यक्त बाप-दादा की पर्सनल मुलाकात :

1. सहजयोगी का चित्र है - विष्णु की शेश शैया: आप सब सदा फाउण्डेशन के समान मजबूत रहने वाले, सदा अचल हो ना? हिलने वाले तो नहीं हो? अंगद का जो अब तक गायन हो रहा है, वह किसका गायन है? अपना ही गायन फिर से सुन रहे हो। जो कल्प पहले विजय प्राप्त की है, उस विजय का नगाड़ा अब भी सुन रहे हो। वह नक्शा अभी आपके सामने है, कल्प-कल्प के विजयी हो। अनेक बार के विजयी हो, इसलिए सहजयोगी कहा जाता है। अनेक बार किया हुआ फिर करना तो सहज हो जाता है ना। नई बात नहीं कर रहे हो। बने हुए को बना रहे हो इसलिए कहा जाता है बना-बनाया बना रहे हैं, बना हुआ है लेकिन फिर रिपीट कर बनाया है। पहले भी पदमापदम भाग्यशाली बने थे, अब भी बन रहे हो। ऐसे सहजयोगी हो। उनकी निशानी तथा रहन- सहन का चित्र कौन-सा दिखाया है? विष्णु की शेश शैया अर्थात् साँप को भी शैया बना दिया अर्थात् वह अधीन हो गए, वह अधिकारी हो गए। नहीं तो साँप को कोई हाथ नहीं लगाता, साँपों को शैया बना दिया अर्थात् विजयी हो गये। विकारों रूपी साँप ही अधीन हो गये अर्थात् शैया बन गये तो निश्चिन्त हो गये ना। जो विजयी होते हैं वह सदा निश्चिन्त विष्णु के समान सदा हर्षित रहते हैं। हर्ष भी तब होगा जब ज्ञान का सुमिरण करते रहेंगे। तो यह चित्र आपका ही है ना। जो भी बाप के बच्चे बने और विजयी हो रहे हैं, उन सबका यह चित्र है। सदा सामने देखो कि विकारों को अधीन किया हुआ अधिकारी हूँ। आत्मा सदा आराम की स्थिति में रहे। शरीर को सोने का आराम नहीं, वह तो सेवा में हड्डियाँ देनी हैं लेकिन आत्मा की निश्चिन्त स्थिति - यह है आराम क्योंकि अब भटकने से बच गये।

मातायें सभी गोपिकायें, गोपी वल्लभ के साथ झूले में झूलने वाली हो ना? आधा कल्प जड़ चित्रों को बहुत प्यार से झुलाया, अब झुलाना खत्म हुआ झूलना शुरू हो गया। कभी सुख के झूले में, कभी शान्ति के झूले में... अनेक झूले हैं, जिसमें चाहो झूलो, नीचे नहीं आओ। माताओं को झूला अच्छा लगता है। तब तो बच्चों को भी झुलाती रहती हैं। भक्ति में बहुत झुलाया अब भक्ति का फल तो लेंगी ना! भक्ति है झुलाना और फल है झूलना। तो अब जो फल मिल रहा है वह खा रही हो या देख-देख कर खुश हो रही हो। माताओं में यह भी आदत होती है - खायेंगी नहीं, रख देंगी। यह तो जितना खायेंगे उतना बढ़ेगा। एक सेकण्ड खायेंगी तो एक समय का अनुभव सदाकाल का अनुभवी बना देगा इसलिए खूब खाओ। माताओं को देख करके बाप को भी खुशी होती है। जिन्हें दुनिया ने ना उम्मींदवार बनाया, बाप ने उन्हें ही सिर का ताज बना दिया। उन्होंने पुरानी जुत्ती समझा और बाप ने सिर का ताज बनाया तो कितनी खुशी होनी चाहिए। पाण्डवों का भी सदा सहयोगी और सदा साथ रहने का गायन है। यादगार में देखो गोपी वल्लभ के साथ ग्वाल-बाल दिखाये हैं। हर कार्य में सहयोग और सदा साथ रहने वाले हो ना? सभी याद और सेवा दोनों में तत्पर रहो। सेवा से भविष्य प्रारब्ध बनेगी और याद से वर्तमान खुशी में रहेंगे। कोई अप्राप्त वस्तु ही नहीं, सदा तृप्त। अच्छा।

वरदान:-

सर्व खजानों की इकॉनामी का बजट बनाने वाले महीन पुरुषार्थी भव!

जैसे लौकिक रीति में यदि इकॉनामी वाला घर न हो तो ठीक रीति से नहीं चल सकता। ऐसे यदि निमित्त बने हुए बच्चे इकॉनामी वाले नहीं हैं तो सेन्टर ठीक नहीं चलता। वह हुई हद की प्रवृत्ति, यह है बेहद की प्रवृत्ति। तो चेक करना चाहिए कि संकल्प, बोल और शक्तियों में क्या-क्या एक्स्ट्रा खर्च किया? जो सर्व खजानों की इकॉनामी का बजट बनाकर उसी अनुसार चलते हैं उन्हें ही महीन पुरुषार्थी कहा जाता है। उनके संकल्प, बोल, कर्म व ज्ञान की शक्तियां कुछ भी व्यर्थ नहीं जा सकती।

स्लोगन:-

स्नेह के खजाने से मालामाल बन सबको स्नेह दो और स्नेह लो।