Saturday, October 24, 2015

मुरली 25 अक्टूबर 2015

25-10-15 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा”
रिवाइज:06-02-80 मधुबन

     "अशरीरी बनने की सहज विधि”

आज कल्प पहले वाले सिकीलधे अति लाडले, स्नेही और सहयोगी शक्ति स्वरूप बच्चों से मिलने के लिए आये हैं। बाप- दादा अपने सहयोगी बच्चों के साथ ही रहते हैं। सहयोग और स्नेह का अटूट धागा सदा अविनाशी है। आज वतन में बाप- दादा अति प्यारे-प्यारे बच्चों के स्नेह की माला बना रहे थे। स्नेही तो सब हो फिर भी नम्बरवार तो कहेंगे। आज हरेक बच्चे की विशेषताओं के आधार पर नम्बर बना रहे थे। कई बच्चों में विशेषतायें इतनी ज्यादा देखी जो बिल्कुल बाप-समान समीप रत्न देखे। कई बच्चे विशेषताओं को धारण करने में मेहनत करने वाले भी देखे, जो मेहनत देखकर बाप को भी रहम आता है। मेरे बच्चे और मेहनत क्योंकि सबसे ज्यादा मेहनत अशरीरी बनने में देखी।
बाप-दादा आपस में बोले कि अशरीरी आत्मा को अशरीरी बनने में मेहनत क्यों? ब्रह्मा बाप बोले - ``84 जन्म चोला धारण कर पार्ट बजाने के कारण पार्ट बजाते-बजाते शरीरधारी बन जाते हैं।'' शिव बाप बोले - ``पार्ट बजाया लेकिन अब समय कौन-सा है''
समय की स्मृति प्रमाण कर्म भी स्वत: ही वैसे होता है। यह तो अभ्यास है ना?
बाप बोले अब पार्ट समाप्त कर घर जाना है। पार्ट की ड्रेस तो छोड़नी पड़ेगी ना? घर जाना है तो भी यह पुराना शरीर छोड़ना पड़ेगा, राज्य में अर्थात् स्वर्ग में जाना है तो भी यह पुरानी ड्रेस छोड़नी पड़ेगी। तो जब जाना ही है तो भूलना मुश्किल क्यों?
जाना है - क्या यह भूल जाते हो?
आप सभी तो जाने के लिए एवररेडी हो ना कि अब भी कुछ रस्सियाँ बँधी हुई हैं? एवररेडी हो ना?

ये तो बाप-दादा ने सेवा के लिए समय दिया हुआ है। सेवाधारी का पार्ट बजा रहे हो। तो अपने को देखो यह शरीर का बन्धन तो नहीं है अथवा यह पुराना चोला टाइट तो नहीं है? टाइट ड्रेस तो पसन्द नहीं करते हो ना? ड्रेस टाइट होगी तो एवररेडी नहीं होंगे। बन्धन मुक्त अर्थात् लू॰ज ड्रेस, टाइट नहीं। आर्डर मिला और सेकेण्ड में गया।
ऐसे बन्धन-मुक्त, योगयुक्त बने हो?
जब वायदा ही है `एक बाप दूसरा न कोई' तो बन्धनमुक्त हो गये ना!

अशरीरी बनने के लिए विशेष 4 बातों का अटेन्शन रखो -

1. कभी भी अपने आपको भुलाना होता है तो दुनिया में भी एक सच्ची प्रीत में खो जाते हैं। तो सच्ची प्रीत ही भूलने का सहज साधन है। प्रीत दुनिया को भुलाने का साधन है, देह को भुलाने का साधन है।

2. दूसरी बात -
सच्चा मीत भी दुनिया को भुलाने का साधन है। अगर दो मीत आपस में मिल जाएं तो उन्हें न स्वयं की, न समय की स्मृति रहती है।

3. तीसरी बात दिल के गीत -
अगर दिल से कोई गीत गाते हैं तो उस समय के लिए वह स्वयं और समय को भूला हुआ होता है।

4. चौथी बात -
यथार्थ रीत। अगर यथार्थ रीत है तो अशरीरी बनना बहुत सहज है। रीत नहीं आती तब मुश्किल होता है।
तो एक हुआ प्रीत 2- मीत 3- गीत 4- रीत।

इन चारों ही बातों के आप सब तो अनुभवी हो ना? प्रीत के भी अनुभवी हो। बाप और आप तीसरा न कोई। बाप मिला माना सब कुछ मिला, बाकी काम ही क्या रहा। प्रभू प्रीत के तो आज भी भक्त कीर्तन करते रहते हैं। सिर्फ प्रीत के गीत में ही खो जाते हैं तो सोचो प्रीत निभाने वाले कितने खोये हुए होंगे! प्रीत के तो अनुभवी हो ना? विपरीत बुद्धि से प्रीत बुद्धि हो गये हो ना? तो जहाँ प्रभु प्रीत है वहाँ अशरीरी बनना क्या लगता है? प्रीत के आगे अशरीरी बनना एक सेकेण्ड के खेल के समान है। बाबा बोला और शरीर भूला। बाबा शब्द ही पुरानी दुनिया को भूलने का आत्मिक बॉम्ब है। (बिजली बन्द हो गई) जैसे यह स्विच बदली होने का खेल देखा ऐसे वह स्मृति का स्विच है। बाप का स्विच ऑन और देह और देह की दुनिया की स्मृति का स्विच ऑफ। यह है एक सेकेण्ड का खेल। मुख से बाबा बोलने में भी टाइम लगता है लेकिन स्मृति में लाने में कितना समय लगता है। तो प्रीत में रहना अर्थात् अशरीरी सहज बनना।ऐसे सबसे सच्चा मीत जो शमशान के आगे भी साथ जाए। शरीरधारी मीत तो शमशान तक ही जायेंगे तो वे दु:ख हर्ता सुख कर्ता नहीं बन सकेंगे। थोड़ा-बहुत दु:ख के समय सहयोगी बन सकते हैं। सहयोग दे सकते हैं लेकिन दु:ख हर नहीं सकते। तो सच्चा मीत मिल गया है ना? सदा इसी अविनाशी मीत के साथ रहो तो मोहब्बत में मेहनत खत्म हो जायेगी। जब मोहब्बत करना आता है तो मेहनत क्यों करते हो। बाप-दादा को कभी-कभी हँसी आती है। जैसे किसी को बोझ उठाने का अभ्यास होता है उसको आराम से बिठाओ तो वह बैठ नहीं सकता।

बार-बार बोझ की तरफ भागता है और फिर साँस भी फूलता है, तो पुकारते हैं - `छुड़ाओ' तो सदा प्रीत और मीत में रहाे तो मेहनत समाप्त हो जायेगी। मीत से किनारा नहीं करो। सदा के साथी बन करके चलो।

ऐसे ही बाप-दादा द्वारा प्राप्त हुई सर्व प्राप्तियों के गुणों के सदा गीत गाते रहो। बाप की महिमा व आपकी महिमा के कितने गीत हैं, इस गीत में सा॰ज भी ऑटोमेटिकली चलते हैं। जितना-जितना गुणों की महिमा के गीत गायेंगे तो खुशी के सा॰ज साथ-साथ स्वत: बजते रहेंगे। यह भी गीत गाने वाले आये हैं (भरतव्यास आदि आये हैं) आपके सा॰ज तो दूसरे हैं। यह खुशी के सा॰ज हैं। ये कभी खराब नहीं होते जो रिपेयर करना पड़े। तो सदा ऐसे गीत गाते रहो। यह गीत गाना तो सबको आता है ना। तो सदा यह गीत गाते रहो तो सहज ही अशरीरी बन जायेंगे। बाकी रही रीत - यथार्थ रीत सेकेण्ड की रीत है। मैं अशरीरी आत्मा हूँ यह सबसे सहज यथार्थ रीत है। सहज है ना। जैसे बाप की महिमा है कि वह मुश्किल को सहज करने वाला है। ऐसे ही बाप समान बच्चे भी मुश्किल को सहज करने वाले हैं। जो विश्व की मुश्किल को सहज करने वाले हैं वह स्वयं मुश्किल अनुभव करें यह कैसे हो सकता है? इसलिए सदा सर्व सहजयोगी।संगमयुगी ब्राह्मणों के मुख से मेहनत है व `मुश्किल है' - यह शब्द मुख से क्या लेकिन संकल्प में भी नहीं आ सकता। तो इस वर्ष का विशेष अटेन्शन `सदा सहज योगी'। जैसे बाप को बच्चों पर रहम आता है वैसे स्वयं पर भी रहम करो और सर्व प्रति भी रहमदिल बनो। टाइटल रहमदिलका तो आप सबका भी है ना?अपना टाइटल याद है ना?लेकिन रहमदिल बनने के बदले एक छोटी-सी गलती करते हो। रहम भाव के बजाए अहम् भाव में आ जाते हो। तो रहम भूल जाते हो। कोई अहम् भाव में आ जाते हैं। कोई वहम भाव में आ जाते हैं। पता नहीं, पहुँच सकेंगे कि नहीं पहुँच सकेंगे। यथार्थ मार्ग है या नहीं है - ऐसे अनेक प्रकार के स्वयं के प्रति वहम भाव और कभी-कभी नॉलेज के प्रति वहम भाव इसलिए रहम का भाव बदल जाता है। समझा?
दिलशिकस्त नहीं बनो लेकिन सदा
दिलतख्तनशीन बनो। तो समझा इस वर्ष में क्या करना है?
इस वर्ष का होमवर्क दे रहे हैं। सहजयोगी बनो। रहमदिल बनो और दिल-तख्तनशीन बनो। तो सदा भाग्य- विधाता बाप ऐसे आज्ञाकारी बच्चों को अमृतवेले रो॰ज सफलता का तिलक लगाते रहेंगे। यह भी तिलक का गायन है ना कि भक्तों को भगवान तिलक लगाने आया। तो इस वर्ष आज्ञाकारी बच्चों को स्वयं बाप आपके सेवास्थान अर्थात् तीर्थ स्थान पर सफलता का तिलक देने आयेंगे। बाप तो रो॰ज चक्र लगाने आते ही हैं। अगर बच्चे सोये हुए हों, तो यह उनकी ग॰फलत है।

जैसे दीपावली में जगह-जगह ज्योति जगाकर रखते हैं, सफाई भी करते हैं, आह््वान भी करते हैं। स्वच्छता, प्रकाश और आ»ान। वह लक्ष्मी का आह््वान करते और यह लक्ष्मी के रचयिता का आह््वान है। तो ज्योति जगाकर बैठो तब तो बाप आयेंगे। कईयों को जगाते भी हैं फिर सो जाते हैं। आवाज भी अनुभव करते हैं फिर भी अलबेलेपन की नींद में सो जाते हैं। सतयुग में सोना ही सोना है। डबल सोना हैइसलिए अभी जागती ज्योत बनो। ऐसे नहीं कि सोने के संस्कार से वहाँ सोना मिलेगा। जो जागेगा वह सोना पायेगा। अलबेलेपन की नींद भी तब आती है जब विनाशकाल भूल जाते हो। भक्तों की पुकार सुनो। दु:खी आत्माओं के दु:ख की पुकार सुनो। प्यासी आत्माओं के प्रार्थना की आवाज सुनो। तो कभी भी नींद नहीं आयेगी। तो इस वर्ष अलबेलेपन की नींद को तलाक देना तब भक्त लोग आप साक्षात्कार मूर्तियों का साक्षात्कार करेंगे। तो इस वर्ष साक्षात्कार मूर्त बन भक्तों को साक्षात्कार कराओ। ऐसे चक्रवर्ता बनो।

ऐसे सदा प्रीत निभाने वाले, सदा सच्चे मीत के साथ रहने वाले, सदा प्राप्तियों और गुणों की महिमा के गीत गाते वाले, सदा सेकण्ड की यथार्थ रीत द्वारा सहजयोगी बनने वाले, ऐसे सदा रहमदिल, मुश्किल को सहज बनाने वाले निद्राजीत, चक्रवर्ता बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

    मधुबन निवासी भाई बहिनों के साथ
     अव्यक्त बापदादा की मुलाकात -
                   9-2-80
      आज विशेष मधुबन निवासी
भाग्यशाली आत्माओं से मिलने आये हैं। मधुबन निवासियों की महिमा आज दिन तक भक्त भी गा रहे हैं और ब्राह्मण भी गाते हैं क्योंकि जो मधुबन धरती की महिमा है तो उस धरती पर रहने वालों की महिमा स्वत: ही महान हो जाती है। मधुबन वालों को ड्रामानुसार सब बातों का विशेष चान्स मिला हुआ है। बापदादा की चरित्रभूमि, कर्मभूमि होने के कारण जैसे स्थान का स्थिति पर प्रभाव पड़ता है, ऐसे स्व स्थिति में श्रेष्ठता लाने का व तीव्र पुरूषार्था बनाने का स्थान होने के कारण भी मधुबन वालों को विशेष चान्स है।
मनसा को विश्व कल्याणकारी वृत्ति में शक्तिशाली बनने का अर्थात् विश्व-सेवा का मुख्य केन्द्र `मधुबन' है।
मधुबन में आये हुए मेहमानों की मनसा-वाचा-कर्मणा सेवा के साथ- साथ रूहानी अव्यक्त वातावरण बनाने की सेवा का विशेष चान्स है। मधुबन वालों को देख सर्व आत्मायें सहज फॉलो करना सीखती हैं। जैसे मधुबन बेहद का है वैसे मधुबन निवासियों को भी बेहद सेवा का चान्स है। अपने कर्म की प्रालब्ध के हिसाब से तो हर आत्मा व्ा यथा कर्म तथा फल मिलता ही है लेकिन जितनी भी आत्मायें आयी उनकी सेवा हुई और तृप्त होकर गई तो इतनी सब आत्माओं की सनतुष्टता का शेयर मधुबन निवासी, मेहमान-निवा॰जी करने वालों का बन गया ना। घर बैठे अगर सेवा के शेयर्स जमा हो गये तो विशेषता हुई ना। और मधुबन वालों को प्रत्यक्ष फल मिलने में भी विशेषता है भविष्य फल तो बन ही रहा है, मधुबन वालों को और भी विशेष लिफ्ट है। बापदादा की पालना तो मिलती ही है, लेकिन साकार रूप में निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं की भी पालना मिलती है, तो डबल पालना की लिफ्ट है और बना-बनाया सब साधन प्राप्त होता है तो ऐसे श्रेष्ठ भाग्यशाली अपना श्रेष्ठ भाग्य जान सेवा के निमित्त बन चलते हो?
मेहनत सबने अच्छी की। रात-दिन जिन्होंने सेवा के कार्य में अपना तन-मन और शक्तियों का खजाना लगाया, ऐसे बच्चों को बापदादा भी मुबारक देते हैं। त्याग वालों को भाग्य नैचुरल खुशी के रूप में और हल्केपन की अनुभूति के रूप में उसी समय ही प्राप्त होता रहता है। इस निशानी से हरेक अपने रि॰जल्ट को चेक कर सकते हैं कि कितना समय त्याग और निष्काम भाव रहा, निमित्तपन का भाव रहा या बीच-बीच में और भी कोई भाव मिक्स हुआ। चेक कर आगे के लिए चेन्ज कर देना, यह है चढ़ती कला का विशेष पुरूषार्थ।

दूसरी बात:-
एक विशेष गुण सबको सदा और सहज धारण हो जैसे कि मेरा निजी गुण है। जब वह निजी बन जाता है तो कोशिश नहीं करनी पड़ती है, नैचुरल जीवन ही वह बन जाता है। वह विशेष गुण है - एक दूसरे की कमजोरी न धारण करो न वर्णन करो। वर्णन होने से वह वातावरण फैलता है। अगर कोई सुनाये भी तो दूसरा शुभ भावना से उससे किनारा कर ले। यह नहीं कि इसने सुनाया, मैंने नहीं कहा लेकिन सुना तो सहीं ना!
जैसे कहने वाले का बनता है, सुनने वाले का भी बनता है। परसेन्टेज में अन्तर है लेकिन बनता तो है ना?
व्यर्थ चिन्तन या कमजोरी की बातें नहीं चलनी चाहिए। बीती हुई बात को भी रहमदिल बन समा दो। समाकर शुभ भावना से उस आत्मा के प्रति मनसा सेवा करते रहो। जब 5 तत्वों के प्रति भी आपकी शुभ भावना है, ये तो फिर भी सहयोगी ब्राह्मण आत्मायें हैं। भले संस्कार के वश कोई उल्टा भी कहता, करता या सुनता है लेकिन आप उस एक को परिवर्तन करो। एक से दो तक, दो से तीन तक ऐसे व्यर्थ बातों के माला की दीपमाला न हो जाये। यह गुण धारण करो। किसी का सुनना, सुनाना नहीं लेकिन समाना है। सहयोगी बन मनसा से या वाणी से उनको भी आगे बढ़ाना है। होता क्या है हरेक का एक मित्र होता है उस एक का फिर दूसरा मित्र होता, दूसरे का फिर तीसरा होता है। ऐसे व्यर्थ बातों की माला बड़ा रूप लेकर चारों ओर फैल जाती है इसलिए इन बातों का अटेन्शन रखना।
अच्छा!

मधुबन के पाण्डवों की यूनिटी (एकता) की भी विशेषता है।
पूरी सी॰जन निर्विघ्न चले तो निर्विघ्न भव के वरदानी हो गये ना!
सेवा की सफलता में सब पास हैं। सेवा नहीं करते लेकिन मेवा खाते हो।
सर्व ब्राह्मण परिवार की आशीर्वाद के अधिकारी बनना, यह मेवा खाया या सेवा की?

वरदान:

निर्विघ्न स्थिति द्वारा स्वयं के फाउन्डेशन को मजबूत बनाने वाले पास विद आनर भव!

जो बच्चे बहुतकाल से निर्विघ्न स्थिति के अनुभवी हैं उनका फाउन्डेशन पक्का होने के कारण स्वयं भी शक्तिशाली रहते हैं और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाते हैं। बहुतकाल की शक्तिशाली, निर्विघ्न आत्मा अन्त में भी निर्विघ्न बन पास विद आनर बन जाती है या फर्स्ट डिवीजन में आ जाती है। तो सदा यही लक्ष्य रहे कि बहुत काल से निर्विघ्न स्थिति का अनुभव अवश्य करना है।

स्लोगन:

हर आत्मा के प्रति सदा उपकार अर्थात् शुभ कामना रखो तो स्वत:दुआयें प्राप्त होंगी।