Wednesday, April 26, 2017

मुरली 27 अप्रैल 2017

27/04/17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा” मधुबन

“मीठे बच्चे- ज्ञान की गुह्य बातों को सिद्ध करने के लिए विशालबुद्धि बन बहुत युक्ति से समझाना है, कहा जाता है सांप भी मरे लाठी भी न टूटे”
प्रश्न:
हाहाकार के समय पास होने के लिए कौन सा मुख्य गुण जरूर चाहिए?
उत्तर:
धैर्यता का। लड़ाई के समय ही तुम्हारी प्रत्यक्षता होगी। जो मजबूत होंगे, वही पास हो सकेंगे, घबराने वाले नापास हो जाते हैं। अन्त में तुम बच्चों का प्रभाव निकलेगा तब कहेंगे अहो प्रभु तेरी लीला.... सब जानेंगे गुप्त वेष में प्रभु आया है।
प्रश्न:
सबसे बड़ा सौभाग्य कौन सा है?
उत्तर:
स्वर्ग में आना भी सबसे बड़ा सौभाग्य है। स्वर्ग के सुख तुम बच्चे ही देखते हो। वहाँ आदि-मध्य- अन्त दु:ख नहीं होता। यह बातें मनुष्यों की बुद्धि में मुश्किल ही बैठती हैं।
गीत:-
नई उमर की कलियाँ.....  
ओम् शान्ति।
भगवानुवाच। आगे श्रीकृष्ण भगवानुवाच कहते थे। अब तुम बच्चों को निश्चय हुआ है श्रीकृष्ण भगवानुवाच नहीं है। श्रीकृष्ण तो त्रिकालदर्शी अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी नहीं है। अब यह अगर भक्त लोग सुनें तो बिगड़ेंगे। कहेंगे, तुम इन्हों की श्रद्धा क्यों कम करते हो। जबकि इनका निश्चय कृष्ण में हैं कि वह स्वदर्शन चक्रधारी है, स्वदर्शन चक्र हमेशा विष्णु को या कृष्ण को ही देते हैं। दुनिया को तो यह मालूम ही नहीं कि श्रीकृष्ण और विष्णु का क्या सम्बन्ध है, न जानने के कारण सिर्फ विष्णु को वा कृष्ण को स्वदर्शन चक्रधारी कह देते हैं। स्वदर्शन चक्र के अर्थ का भी किसको पता नहीं है। सिर्फ चक्र दे दिया है, मारने के लिए। उसे एक हिंसक हथियार बना दिया है। वास्तव में उनके पास न हिंसक चक्र है, न अहिंसक। ज्ञान भी राधे कृष्ण या विष्णु के पास नहीं हैं। कौन सा ज्ञान? यह सृष्टि चक्र के फिरने का ज्ञान। वह सिर्फ तुम्हारे में हैं। अब यह तो बड़ी गुह्य बातें हैं। यह सब बातें युक्ति से कैसे समझाई जाएं जो समझ भी जायें, प्रीत भी कायम रहे। सीधा समझाने से बिगड़ेंगे। कहेंगे कि आप देवताओं की निन्दा करते हैं क्योंकि वह सब हैं एक समान, सिवाए तुम ब्राह्मणों के। तुम कितनी छोटी-छोटी बच्चियाँ हो। बाबा तो कहते हैं छोटी-छोटी बच्चियों को ऐसा होशियार करना चाहिए जो प्रदर्शनी में समझाने के लायक बनें। जिसमें ज्ञान है वह आपेही आफर करते हैं - हम प्रदर्शनी समझा सकते हैं। ब्राह्मणियों की बड़ी विशालबुद्धि चाहिए। प्रदर्शनी में समझाने के लिए सर्विसएबुल को भेजना चाहिए। सिर्फ देखने का शौक नहीं। पहले-पहले तो यह निश्चय चाहिए कि गीता का भगवान निराकार परमपिता परमात्मा शिव है, श्रीकृष्ण को भगवान नहीं कहा जाता है, इसलिए गीता भी रांग है। यह बिल्कुल नई बात हो गई दुनिया में। दुनिया में सब कहते हैं कृष्ण ने गीता गाई। यहाँ समझाया जाता है कृष्ण गीता गा न सके। जो मोर मुकुटधारी है, डबल सिरताज वा सिंगलताज सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी वा वैश्य, शूद्र वंशी, कोई भी गीता की नॉलेज को नहीं जानते। वह नॉलेज भगवान ने ही सुनाए भारत को स्वर्ग बनाया था। तो दुनिया में सच्चा गीता का ज्ञान आये कहाँ से? यह सब भक्ति की लाईन में आ जाते हैं। वेद शास्त्र आदि पढ़ते-पढ़ते नतीजा क्या हुआ? गिरते ही आये हैं, कलायें कमती होती ही गई हैं। भल कितनी भी घोर तपस्या करें। सिर काट कर रखें, कुछ भी फायदा हो न सके। हर एक मनुष्य मात्र को तमोप्रधान जरूर बनना है। उसमें भी खास भारतवासी देवी-देवता धर्म वाले ही सबसे नीचे गिरे हुए हैं। पहले सबसे सतोप्रधान थे, अब तमोप्रधान बन गये हैं। जो बिल्कुल ऊंच पैराडाइज के मालिक थे, वह अब नर्क के मालिक बन गये हैं। तुम बच्चों की बुद्धि में यह रहना चाहिए कि शरीर पुरानी जुत्ती है, जिससे हम पढ़ रहे हैं। देवी देवता धर्म वालों की सबसे जास्ती पुरानी जुत्ती है। भारत शिवालय था, देवताओं का राज्य था। हीरे जवाहरों के महल थे। अब तो वेश्यालय में असुर विकारियों का राज्य है। ड्रामा अनुसार फिर इनको वेश्यालय से शिवालय बनना ही है। बाप समझाते हैं सबसे जास्ती भारतवासी ही गिरे हैं। आधाकल्प तुम ही विषय विकारी थे। अजामिल जैसी पाप आत्मा भी भारत में ही थे। सबसे बड़ा पाप है विकार में जाना। देवतायें जो सम्पूर्ण निर्विकारी थे, वह अब विकारी बने हैं। गोरे से सांवरे बने हैं। सबसे ऊंच ही सबसे नींच बने हैं। बाप कहते हैं जब सम्पूर्ण तमोप्रधान बन जाते हैं तब उन्हों को मैं आकर सम्पूर्ण सतोप्रधान बनाता हूँ। अभी तो कोई को सम्पूर्ण निर्विकारी कह न सकें, बहुत फ़र्क है। भल करके यह जन्म कुछ अच्छा है। आगे का जन्म तो अजामिल जैसा होना चाहिए। बाप कहते हैं मैं पतित दुनिया और पतित शरीर में ही प्रवेश करता हूँ, जो पूरे 84 जन्म भोग तमोप्रधान बने हैं। भल इस समय अच्छे घर में जन्म हैं क्योंकि फिर भी बाबा का रथ बनना है। ड्रामा भी कायदेसिर बना हुआ है, इसलिए साधारण रथ को पकड़ा है। यह भी समझने की बातें हैं। तुम बच्चों को सर्विस का बहुत शौक होना चाहिए, बाबा को देखो कितना शौक है। बाप तो पतित-पावन है, सर्व का अविनाशी सर्जन है। तुमको कैसे अच्छी दवाई देते हैं। कहते हैं मुझे याद करने से तुम कब रोगी नहीं बनेंगे। तुमको कोई दवा दर्मल नहीं करनी पड़ेगी। यह श्रीमत है न कि कोई गुरू का मंत्र आदि है। बाप कहते हैं मुझे याद करने से तुम्हारे विकर्म विनाश होंगे। फिर माया का विघ्न नहीं आयेगा। तुम महावीर कहलायेंगे। स्कूल में रिजल्ट पिछाड़ी को ही निकलती है। यह भी अन्त में मालूम पड़ेगा। जब लड़ाई शुरू होती है, तब तुम्हारी भी प्रत्यक्षता होती है। देखेंगे, तुम कितने निडर, निर्भय बने हो। बाप भी निर्भय है ना। कितना भी हाहाकार मच जाए, धैर्यता से समझाना है कि हमें तो जाना ही है, चलो तो हम चलें अपनी मंजिल माउण्ट आबू...... बाबा के पास। घबराना नहीं है, घबराने में भी नापास हो जाते हैं। इतना मजबूत बनना है। पहले-पहले आफतें आयेंगी फैमन की। बाहर से अनाज आ नहीं सकेगा, मारामारी हो जायेगी। उस समय कितना निडर बनना पड़े। लड़ाई में कितने पहलवान होते हैं, कहते हैं मरना और मारना है। जान का भी डर नहीं है। भल उनको यह भी ज्ञान नहीं है कि शरीर छोड़ दूसरा लेंगे। उनको तो सर्विस करनी है। वो लोग सिखाते हैं बोलो गुरूनानक की जय.... हनुमान की जय... तुम्हारी शिक्षा है शिवबाबा को याद करो। वह नौकरी तो करनी ही है अथवा देश सेवा तो करनी ही है। जैसे तुम शिवबाबा को याद करते हो, इस प्रकार कोई भी याद नहीं करते हैं, शिव के भगत तो ढेर हैं। परन्तु तुमको डायरेक्शन मिलते हैं शिवबाबा को याद करो। वापिस जाना है फिर स्वर्ग में आना है। अब सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी दोनों ही राज्य स्थापन हो रहे हैं। यह ज्ञान सबको मिलेगा। जो प्रजा बनने लायक होगा वह उतना ही समझेगा। अन्त में तुम्हारा बहुत प्रभाव निकलेगा, तब तो कहेंगे अहो प्रभू तेरी लीला.... जानेंगे कि प्रभु गुप्त वेष में आया है। कोई कहे परमात्मा का वा आत्मा का साक्षात्कार हो परन्तु साक्षात्कार से कोई फायदा नहीं है। समझो सिर्फ लाइट चिंगारी देखी परन्तु समझेंगे कुछ भी नहीं कि यह कौन है। किसकी आत्मा है वा परमात्मा है? देवताओं के साक्षात्कार में फिर भी कुछ भभका होता है, खुशी होती है। यहाँ तो यह भी नहीं जानते कि परमात्मा का रूप क्या है, जितनी पिछाड़ी होती जायेगी तो बाबा बुद्धि का ताला खोलता जायेगा। स्वर्ग में आना यह भी सौभाग्य है। स्वर्ग के सुख और कोई देख न सके। स्वर्ग में यथा राजा तथा प्रजा रहते हैं। अब न्यू देहली नाम रखा है। परन्तु न्यू भारत कब था? यह तो पुराना भारत है। नये भारत में सिर्फ देवता धर्म था। बिल्कुल थोड़े थे। अब तो बहुत हैं। कितना रात दिन का फ़र्क है। अखबार में भी समझा सकते हैं। तुम न्यु देहली, न्यु भारत कहते हो परन्तु नव भारत, न्यू देहली तो नई दुनिया में होगी। वह तो पैराडाइज होगा, सो तुम कैसे बना सकते हो। यहाँ तो अनेक धर्म हैं। वहाँ एक ही धर्म है। यह सारी समझने की बातें हैं। हम सब मूलवतन से आये हैं। हम सब आत्मायें ज्योर्तिबिन्दु स्टार मिसल हैं, जैसे स्टार आकाश में खड़े हैं, कोई गिरते भी नहीं है, ऐसे हम आत्मायें ब्रह्माण्ड में रहती हैं। बच्चों को अब मालूम पड़ा है कि निर्वाणधाम में आत्मा बोल न सके क्योंकि शरीर नहीं है। तुम कह सकते हो हम आत्मायें परमधाम की रहने वाली हैं, यह नई बात है। शास्त्रों में लिख दिया है कि आत्मा बुदबुदा है। सागर में समा जाती है। तुम अब जानते हो पतित-पावन बाप सबको लेने के लिए आया है। 5 हजार वर्ष के बाद ही भारत स्वर्ग बनता है। यह ज्ञान किसी की बुद्धि में नहीं है। बाप ही आकर समझाते हैं - हम ही राज्य लेते हैं, हम ही राज्य गँवाते हैं। इनकी नो इन्ड। ड्रामा से कोई छूट नहीं सकता। कितनी सहज बाते हैं, परन्तु किसी की बुद्धि में ठहरती नहीं हैं। अभी आत्मा को अपने 84 जन्मों के चक्र का मालूम पड़ा है, जिससे चक्रवर्ती महाराजा महारानी बनते हैं। यह सब खत्म होने वाला है। विनाश सामने खड़ा है, फिर क्यों लोभ जास्ती करें, धन इकट्ठा करने का। सर्विसएबुल बच्चा है तो उनकी यज्ञ से पालना होती है। सर्विस नहीं करते तो ऊंच पद भी नहीं मिलेगा। बाबा से पूछ सकते हो हम इतनी सर्विस करते हैं जो ऊंच पद पायें? बाबा कह देते हैं आसार ऐसे दिखाई देते हैं जो तुम प्रजा में चले जायेंगे। यहाँ ही मालूम पड़ जाता है। छोटे-छोटे बच्चों को भी सिखलाकर इतना होशियार बनाना चाहिए जो प्रदर्शनी में सर्विस करके शो करें। अच्छा-

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) बाप समान निर्भय, निडर बनना है। धैर्यता से काम लेना है, घबराना नहीं है।
2) विनाश सामने है इसलिए जास्ती धन इकट्ठा करने का लोभ नहीं करना है। ऊंच पद के लिए ईश्वरीय सेवा कर कमाई जमा करनी है।
वरदान:
अटूट निश्चय के आधार पर विजय का अनुभव करने वाले सदा हर्षित और निश्चिंत भव
निश्चय की निशानी है-मन्सा-वाचा-कर्मणा, सम्बन्ध-सम्पर्क हर बात में सहज विजयी। जहाँ निश्चय अटूट है वहाँ विजय की भावी टल नहीं सकती। ऐसे निश्चयबुद्धि ही सदा हर्षित और निश्चिंत रहेंगे। किसी भी बात में यह क्या, क्यों, कैसे कहना भी चिंता की निशानी है। निश्चयबुद्धि निश्चिंत आत्मा का स्लोगन है “जो हुआ अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है।” वह बुराई में भी अच्छाई का अनुभव करेंगे। चिंता शब्द की भी अविद्या होगी।
स्लोगन:
सदा प्रसन्नचित रहना है तो बुद्धि रूपी कम्प्युटर में फुलस्टॉप की मात्रा लगाओ।