Tuesday, September 25, 2018

26-09-2018 प्रात:मुरली

26-09-2018 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

''मीठे बच्चे - अब नाटक पूरा होता है, घर चलना है इसलिये इस शरीर रूपी कपड़े को भूलते जाओ, अपने को अशरीरी आत्मा समझो''
प्रश्नः-
कौनसा वन्डरफुल खेल संगम पर ही चलता है, दूसरे युगों में नहीं?
उत्तर:-
फारकती दिलाने का। राम, रावण से फारकती दिलाते हैं। रावण फिर राम से फारकती दिला देते। यह बड़ा वन्डरफुल खेल है। बाप को भूलने से माया का गोला लग जाता है इसीलिये बाप शिक्षा देते हैं - बच्चे, अपने स्वधर्म में टिको, देह सहित देह के सब धर्मों को भूलते जाओ। याद करने का खूब पुरुषार्थ करते रहो। देही-अभिमानी बनो।
गीत:-
जो पिया के साथ है........  
ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे बच्चों ने नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार गीत सुना। हरेक बात में नम्बरवार कहा जाता है क्योंकि यह कॉलेज है अथवा युनिवर्सिटी कहो, साथ-साथ सच्चा सत का संग भी है। सत कहा जाता है एक को। वह एक ही बार आते हैं। अब इस समय तुम सच-सच कहते हो कि हम सत के संग में हैं। तुम ब्राह्मण ही उस सत कहने वाले ज्ञान सागर के सम्मुख बैठे हो। गाया भी जाता है जो पिया के साथ है उनके लिये ज्ञान की बरसात है। पिया, पिता को कहा जाता है। तुम बच्चों के सम्मुख पिया की ज्ञान बरसात है। तुम बच्चे जानते हो बरोबर ज्ञान सागर, पतित-पावन अब हमारे सम्मुख है। हम पतित से पावन वा कांटे से फूल बन रहे हैं। फूल बन जायेंगे फिर यह शरीर नहीं रहेगा। कली भी आहिस्ते-आहिस्ते खिलती जाती है। फट से खिल नहीं जाती। खिलते-खिलते फिर कम्पलीट फूल बन जाती है। अभी कोई भी कम्पलीट फूल नहीं बने हैं। वह तो कर्मातीत अवस्था हो जाती है। देही-अभिमानी तो अन्त में ही बनना है। अभी तुम सबका पुरुषार्थ चल रहा है। बाप है पारलौकिक पिता। यह दोनों संगमयुग के अलौकिक मात-पिता ठहरे। कोई कांटे भी हैं, कोई कली भी हैं। कली को खिलने में टाइम लगता है। तुम सब नम्बरवार कलियां हो, फूल बनने वाले हो। कोई अच्छी रीति खिले हैं, कोई आधा। एक दिन कम्पलीट भी जरूर खिलेंगे। बगीचा तो है ना। जानते हो हम कांटे से कली तो बने हैं फिर फूल बन रहे हैं, पुरुषार्थ कर रहे हैं। कोई तो कली ही ख़त्म हो जाती है, कोई थोड़ा खिलकर ख़त्म हो जाते। माया के बड़े भारी तूफान आते हैं। सेन्टर्स खोलते भी कोई-कोई ख़त्म हो जाते हैं, गिर पड़ते हैं। माया बड़ी जबरदस्त है। यह है चटाबेटी - राम और रावण की। राम-राम कहा जाता है। ऐसे नहीं त्रेता वाले राम को याद करते हैं। यह राम-राम परमात्मा के लिये कहते हैं। रावण से राम की भेंट होती है। राम है बाप, रावण है दुश्मन माया। माया भी जबरदस्त है। यह खेल है एक-दो को फ़ारकती दिलाना। राम तुमको माया रावण से त्याग दिला रहे हैं। माया फिर तुमको बाप राम से त्याग दिलाती है। बाप कहते हैं देह सहित जो भी सम्बन्धी आदि देह के हैं, सबका बुद्धि से त्याग करो। सर्व धर्मानि..... मैं फलाना हूँ, फलाने धर्म का हूँ - यह भूल अपने स्वधर्म में टिको। देह के सब धर्म छोड़ अपने को अकेला समझो। इस दुनिया की हर एक चीज़ से त्याग दिलाते हैं। अशरीरी बन जाओ। मेरा बनकर और मेरे को याद करो। बाप को भूले तो माया का गोला लग जायेगा। बाप को याद करने का खूब पुरुषार्थ करते रहो। माया भी बड़ी जबरदस्त है। बाप का बनकर भी फिर माया त्याग दिलाकर बाप से छुड़ा देती है। बाप को शल कोई फारकती न दे। आधा-कल्प तुम मुझे याद करते आये हो। तुम ही सम्पूर्ण भक्त हो ना। भक्ति भी तुमने ही शुरू की है। तो बाप आकर माया से त्याग दिलाते हैं। कहते हैं अपने को आत्मा समझो। इस कपड़े को (देह को) भूलते जाओ। बस, अभी हमको जाना है। उस नाटक में भी एक्टर्स होते हैं। उनको भी मालूम रहता है - बस, अभी 5-10 मिनट बाद हमारा खेल पूरा होने का समय आया है, फिर हम घर चले जायेंगे। खेल पूरा होने के समय यह बुद्धि में रहता है, शुरू में नहीं। तुम भी समझते हो हमारे 84 जन्म पूरे हुए। बाकी कितना समय होगा? तुम कहेंगे हम कब स्वर्ग वा सुखधाम में जायेंगे? परन्तु बाप कहते हैं इस लाइफ को तो वैल्युबुल, अमूल्य कहा जाता है। तुम बड़ी भारी सर्विस करते हो श्रीमत पर। सिर्फ तुम पाण्डव ही श्रीमत पर चलते हो। गीता आदि में यह बातें नहीं हैं। यह बाबा बहुत ही शास्त्र आदि पढ़ा हुआ है, गुरू किये हुए हैं। जो भी सब एक्टर्स की एक्टिविटीज़ हैं, उन सबको तुम जानते हो। शास्त्र तो बाद में बैठ बनाते हैं। वह क्या जानें? यह भी ड्रामा में खेल बना हुआ है। गीता-भागवत आदि सब अपने-अपने समय पर रिपीट होंगे। गीता है माई बाप। गीता को माता कहा जाता है। और कोई पुस्तक को माता नहीं कहेंगे। इनका नाम ही है गीता माता। अच्छा, उनको किसने रचा? पहले-पहले पुरुष स्त्री को एडाप्ट करते हैं ना। पुरुष शादी करते हैं तो मुख से कहते हैं यह मेरी स्त्री है। तो रचता हुए ना। फिर उनसे बच्चे होते हैं तो भी कहेंगे यह हमारे हैं। बच्चे भी कहेंगे यह हमारा बाप है। तुम भी बाबा की मुख वंशावली हो। कहते हो - बाबा, हम आपके हैं। इतना समय हम माया की मत पर चलते आये, अभी आपकी मत पर चलेंगे। माया कोई मुख से मत नहीं देती है। एक्ट ऐसी करते हैं, यहाँ तो बाप मुख से बैठ समझाते हैं।

तुम सब भारतवासी हो। जानते हो कि भारत ही सिरताज था। अभी दोनों ताज नहीं हैं। न होली, न अन-होली। गाया जाता है हर होलीनेस, हिज होलीनेस। स्त्री-पुरुष दोनों को कहते हैं। सन्यासियों को हिज़ होलीनेस कहते हैं। परन्तु प्रवृत्ति मार्ग है नहीं। प्रवृत्ति मार्ग में तो स्त्री-पुरुष दोनों पवित्र रहते हैं। सो तो सतयुग में दोनों पवित्र होते ही हैं, जिसको कम्पलीट पवित्र कहा जाता है। आत्मा और शरीर दोनों पवित्र रहते हैं। यहाँ पतित दुनिया में दोनों पवित्र तो हो न सके। तो अभी तुम बाप के सम्मुख सुन रहे हो, जिसको ज्ञान बरसात कहा जाता है। वह है विष की बरसात, यह है ज्ञान अमृत की बरसात। गाते हैं ना - अमृत छोड़ विष काहे को खाये। तुमको अब ज्ञान अमृत मिल रहा है। भक्ति मार्ग में तो ऐसे ही सिर्फ गाते रहते हैं। अभी तुमको प्रैक्टिकल में ज्ञान अमृत मिलता है, इससे ही अमृतसर नाम पड़ा है। बाकी तालाब तो ऐसे बहुत हैं। मानसरोवर भी है ना। मानसरोवर, मनुष्यों का सरोवर तो वह है नहीं। यह है ज्ञान अमृत का सरोवर, इनको ज्ञान मान-सरोवर भी कहा जाता है। ज्ञान सागर भी है। कोई नदियां हैं, कोई कैनाल्स हैं, कोई टुबके हैं। नम्बरवार हैं ना। बच्चे समझ गये हैं, कल्प पहले भी बाप ने समझाया था फिर अब समझा रहे हैं। तुम निश्चय करते हो हम बाबा से राजयोग सीख रहे हैं। जिससे कल्प पहले भी हम स्वर्ग के मालिक बने थे। प्रजा भी कहेगी हम मालिक हैं। भारतवासी कहते हैं ना हमारा भारत सबसे ऊंच था। अभी हमारा भारत सबसे नीच है। हमारा भारत बहुत श्रेष्ठाचारी था, अब हमारा भारत बहुत भ्रष्टाचारी हो गया है। और कोई खण्ड के लिये ऐसे नहीं कहेंगे। सभी धर्म वाले भी जानते हैं कि भारत प्राचीन था तब हम लोग नहीं थे। सतयुग में जरूर सिर्फ भारतवासी ही होंगे। गाते भी हैं क्राइस्ट से 3 हजार वर्ष पहले भारत ही था और कोई धर्म नहीं था, नई दुनिया में नया भारत था। अभी पुराना भारत है। भारत हेविन था। परन्तु किसकी बुद्धि में पूरा बैठता नहीं है। यह तो बहुत सहज समझने की बात है। बाप तुमको समझा रहे हैं। तुम प्रैक्टिकल में कर्तव्य कर रहे हो। नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार सच्चा-सच्चा व्यास बनना है। सच्ची गीता सुनानी है। तुमको कोई पुस्तक आदि तो हाथ में उठाना नहीं है। तुम तो रूप-बसन्त हो। तुम्हारी आत्मा गीता का ज्ञान सुनती है बाप से। तुम्हारी बुद्धि में एक ही बाप है और कोई गुरू-गोसाई साधू-सन्त आदि तुम्हारी बुद्धि में नहीं हैं। तुम कहेंगे हम ज्ञान सागर परमपिता परमात्मा से सुनते हैं, जिसको ही सत श्री अकाल कहा जाता है। अक्षर कितना मीठा है। अकाली लोग बड़ी जोर से कहते हैं सत श्री अकाल.......।

यहाँ तुम बच्चे ज्ञान डांस करते हो इसलिए कहा जाता है सच तो बिठो नच, (सच्चे हो तो खुशी में नाचते रहो) फिर तुम वहाँ जाकर रास-विलास करेंगे। मीरा भी ध्यान में रास आदि करती थी। परन्तु उसने भक्ति की। तुम कोई भक्ति नहीं करते हो। दिव्य दृष्टि दाता बाप स्वयं तुमको पढ़ा रहे हैं। बहुत बच्चे साक्षात्कार करते रहते हैं तो मनुष्य समझते हैं - यह तो जादू है। बच्चे पढ़ाई में घूमते-फिरते हैं ना। तुम्हारे लिये भी यह खेलपाल है। यह कोई सब्जेक्ट नहीं, इनके मार्क्स नहीं। खेलने-कूदने की मार्क्स नहीं होती हैं। यहाँ भी जो इस खेलपाल में रहते हैं, उनको ज्ञान की मार्क्स नहीं मिल सकती। यह तो खेलपाल है इसको अव्यक्त खेल कहा जाता है। वह व्यक्त खेल, यह अव्यक्त खेल। रास आदि करने वाले को मार्क्स नहीं मिलती हैं इसलिये बाबा कहते हैं ध्यान से ज्ञान अच्छा है, श्रेष्ठ है। ध्यान तो सिर्फ एम ऑब्जेक्ट का साक्षात्कार है। यह है ही राजयोग। एम ऑब्जेक्ट बुद्धि में है। वह तो इन आंखों से देखते हैं - हम फलाना बनेंगे। यहाँ तो यह तुम्हारी है भविष्य की एम ऑब्जेक्ट। प्रिन्स-प्रिन्सेज बनना है। फिर तुम महाराजा-महारानी बनते हो। बिगर एम ऑब्जेक्ट अगर कोई कॉलेज में बैठे तो उनको क्या कहेंगे? भारत में और जो सतसंग हैं उनमें कोई एम ऑब्जेक्ट नहीं है। इसको युनिवर्सिटी भी कह सकते हैं, पाठशाला भी कह सकते हैं। सतसंग को कभी पाठशाला नहीं कहा जाता।

तुम बच्चे जानते हो हम पतित-पावन गॉड फादरली युनिवर्सिटी में पढ़ते हैं। सारी युनिवर्स को तुम पवित्र स्वर्ग बनाते हो। अपने लिये ही इस युनिवर्स को स्वर्ग बनाते हो, जो बनायेंगे वही फिर राज्य करेंगे। ऐसे तो नहीं, सब स्वर्ग के मालिक बनेंगे। जो पूरे नर्कवासी हैं, जिन्होंने द्वापर से भक्ति की है वही स्वर्गवासी होंगे। बाकी सब मनुष्य सरसों मिसल पीसकर ख़त्म होंगे, आत्मायें वापस बाप के पास जायेंगी। कितना बड़ा विनाश होना है! अभी तो बहुत प्रजा है। कितना बैठ गिनेंगे। एक्यूरेट गिनती कर न सकें। दुनिया में कितने मनुष्य हैं। यह सब ख़त्म हो जायेंगे। बच्चों को बनेन ट्री का भी मिसाल बताया गया है। कलकत्ते में बहुत बड़ा झाड़ है, उसमें थुर (फाउन्डेशन) है नहीं, बाकी सारा झाड़ खड़ा है। अभी देवी-देवता धर्म भी है परन्तु उनका नाम प्राय:लोप है। ऐसे नहीं कहेंगे कि फाउन्डेशन है ही नहीं, सड़ा हुआ भी कुछ न कुछ निशान तो रहेगा ना। प्राय:लोप का अर्थ ही है बाकी थोड़ा रहा है। चित्र हैं। भारत में लक्ष्मी-नारायण राज्य करते थे। यह तो बड़ा सहज है परन्तु माया रावण बुद्धि को ताला लगा देती है। परमपिता परमात्मा है बुद्धिवानों की बुद्धि। मनुष्यों में बुद्धि है परन्तु ताला लगा हुआ है। पत्थरबुद्धि हो गये हैं। अब बाबा फिर से तुमको पारसबुद्धि बनाते हैं। आत्मा को बनाते हैं। बुद्धि आत्मा में रहती है ना। कहा जाता है ना - तुम तो पत्थर-बुद्धि, भैंस बुद्धि हो। यहाँ भी ऐसे है। कुछ भी समझाओ तो समझते नहीं, श्रीमत पर चलते नहीं। श्रीमत तो सदैव कहेगी - बच्चे, अन्धों की लाठी बनो। सुनना और फिर सुनाना है इसलिये सर्विस में दूर जाना भी पड़ता है। एक जगह बैठ तो नहीं जाना है।

अभी तुम ज्ञान और योग सीख रहे हो। यहाँ तुम शिवबाबा के सम्मुख बैठे हो। सहज राजयोग सीख रहे हो - वर्सा लेने के लिए। तुम आये हो विष्णुपुरी की राजधानी लेने के लिये। विष्णु की विजय माला बनेगी। अभी तुम ड्रामा के राज़ को अच्छी रीति समझ गये हो। तुम जानते हो बरोबर डीटी सावरन्टी थी। सतयुग आदि में राजा-रानी थे। अभी कलियुग अन्त में तो राजा-रानी कोई भी कहला नहीं सकते। परन्तु गवर्मेन्ट को मदद करते हैं तो फिर महाराजा का टाइटिल मिल जाता है। वह गवर्मेन्ट भी टाइटिल देती थी राय साहेब, राय बहादुर आदि। अभी तो तुमको बड़ा टाइटिल मिल रहा है प्रैक्टिकल में। तुम हर होलीनेस, हिज होलीनेस महाराजा-महारानी बनेंगे। तुम पर डबल ताज है। पहले होता है होली राज्य फिर अनहोली राज्य। अभी फिर अनहोली, नो राज्य। प्रजा का प्रजा पर राज्य है। ड्रामा को समझना है। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिये मुख्य सार :-
1) रोज़ ज्ञान अमृत के मान-सरोवर में स्नान कर आत्मा और शरीर दोनों को पावन बनाना है। माया की मत छोड़ बाप की मत पर चलना है।
2) यह अमूल्य संगम का समय है, इस समय श्रीमत पर चल सर्विस करनी है। सच्चा व्यास बन सच्ची गीता सुननी और सुनानी है। रूप-बसन्त बनना है।
वरदान:-
सम्बन्ध में सन्तुष्टता रूपी स्वच्छता को धारण कर सदा हल्के और खुश रहने वाले सच्चे पुरुषार्थी भव
सारे दिन में वैरायटी आत्माओं से संबंध होता है। उसमें चेक करो कि सारे दिन में स्वयं की सन्तुष्टता और सम्बन्ध में आने वाली दूसरी आत्माओं की सन्तुष्टता की परसेन्टेज कितनी रही? सन्तुष्टता की निशानी स्वयं भी मन से हल्के और खुश रहेंगे और दूसरे भी खुश रहेंगे। संबंध की स्वच्छता अर्थात् सन्तुष्टता यही सम्बन्ध की सच्चाई और सफाई है, इसलिए कहते हैं सच तो बिठो नच। सच्चा पुरुषार्थी खुशी में सदा नाचता रहेगा।
स्लोगन:-
जिन्हें किसी भी बात का गम नहीं, वही बेगमपुर के बेफिक्र बादशाह हैं।