Monday, September 9, 2019

09-09-2019 प्रात:मुरली

09-09-2019 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

"मीठे बच्चे - ब्राह्मण हैं चोटी और शूद्र हैं पांव, जब शूद्र से ब्राह्मण बनें तब देवता बन सकेंगे''
प्रश्नः-
तुम्हारी शुभ भावना कौन-सी है, जिसका भी मनुष्य विरोध करते हैं?
उत्तर:-
तुम्हारी शुभ भावना है कि यह पुरानी दुनिया खत्म हो नई दुनिया स्थापन हो जाए इसके लिए तुम कहते हो कि यह पुरानी दुनिया अब विनाश हुई कि हुई। इसका भी मनुष्य विरोध करते हैं।
प्रश्नः-
इस इन्द्रप्रस्थ का मुख्य कायदा क्या है?
उत्तर:-
कोई भी पतित शूद्र को इस इन्द्रप्रस्थ की सभा में नहीं ला सकते। अगर कोई ले आते हैं तो उस पर भी पाप लग जाता है।
ओम् शान्ति।
रूहानी बच्चों प्रति रूहानी बाप बैठ समझाते हैं। रूहानी बच्चे जानते हैं हम अपने लिए अपना दैवी राज्य फिर से स्थापन कर रहे हैं क्योंकि तुम ब्रह्माकुमार-कुमारियां हो, तुम ही जानते हो। परन्तु माया तुम्हें भी भुला देती है। तुम देवता बनना चाहते हो तो माया तुमको ब्राह्मण से शूद्र बना देती है। शिवबाबा को याद न करने से ब्राह्मण शूद्र बन जाते हैं। बच्चों को यह मालूम है कि हम अपना राज्य स्थापन कर रहे हैं। जब राज्य स्थापन हो जायेगा फिर यह पुरानी सृष्टि नहीं रहेगी। सबको इस विश्व से शान्तिधाम में भेज देते हैं। यह है तुम्हारी भावना। परन्तु तुम जो कहते हो यह दुनिया खत्म हो जानी है तो जरूर लोग विरोध करेंगे ना। कहेंगे कि ब्रह्माकुमारियां यह फिर क्या कहती हैं। विनाश, विनाश ही कहती रहती हैं। तुम जानते हो इस विनाश में ही खास भारत और आम दुनिया की भलाई है। यह बात दुनिया वाले नहीं जानते। विनाश होगा तो सब चले जायेंगे मुक्तिधाम। अभी तुम ईश्वरीय सम्प्रदाय के बने हो। पहले आसुरी सम्प्रदाय के थे। तुमको ईश्वर खुद कहते हैं मामेकम् याद करो। यह तो बाप जानते हैं सदैव याद में कोई रह न सके। सदैव याद रहे तो विकर्म विनाश हो जाएं फिर तो कर्मातीत अवस्था हो जाए। अभी तो सब पुरूषार्थी हैं। जो ब्राह्मण बनेंगे वही देवता बनेंगे। ब्राह्मणों के बाद हैं देवतायें। बाप ने समझाया है ब्राह्मण हैं चोटी। जैसे बच्चे बाजोली खेलते हैं - पहले आता है माथा चोटी। ब्राह्मणों को हमेशा चोटी होती है। तुम हो ब्राह्मण। पहले शूद्र अर्थात् पैर थे। अभी बने हो ब्राह्मण चोटी फिर देवता बनेंगे। देवता कहते हैं मुख को, क्षत्रिय भुजाओं को, वैश्य पेट को, शूद्र पैर को। शूद्र अर्थात् क्षुद्र बुद्धि, तुच्छ बुद्धि। तुच्छ बुद्धि उनको कहते हैं जो बाप को नहीं जानते और ही बाप की ग्लानि करते रहते हैं। तब बाप कहते हैं जब-जब भारत में ग्लानि होती है, मैं आता हूँ। जो भारतवासी हैं बाप उन्हों से ही बात करते हैं। यदा यदाहि धर्मस्य..... बाप आते भी हैं भारत में। और कोई जगह आते ही नहीं। भारत ही अविनाशी खण्ड है। बाप भी अविनाशी है। वह कभी जन्म-मरण में नहीं आते। बाप अविनाशी आत्माओं को ही बैठ सुनाते हैं। यह शरीर तो है विनाशी। अभी तुम शरीर का भान छोड़कर अपने को आत्मा समझने लगे हो। बाप ने समझाया था कि होली पर कोकी पकाते हैं तो कोकी सारी जल जाती है, धागा नहीं जलता। आत्मा कभी विनाश नहीं होती है। इस पर ही यह मिसाल है। यह कोई भी मनुष्य मात्र को मालूम नहीं कि आत्मा अविनाशी है। वह तो कह देते आत्मा निर्लेप है। बाप कहते हैं - नहीं, आत्मा ही अच्छा वा बुरा कर्म करती है इस शरीर द्वारा। एक शरीर छोड़ फिर दूसरा लेती है और कर्मभोग भोगती है, तो वह हिसाब-किताब ले आई ना, इसलिए आसुरी दुनिया में मनुष्य अपार दु:ख भोगते हैं। आयु भी कम रहती है परन्तु मनुष्य इन दु:खों को भी सुख समझ बैठे हैं। तुम बच्चे कितना कहते हो निर्विकारी बनो फिर भी कहते हैं विष बिगर हम रह नहीं सकते हैं क्योंकि शूद्र सम्प्रदाय हैं ना। क्षुद्र बुद्धि हैं। तुम बने हो ब्राह्मण चोटी। चोटी तो सबसे ऊंच है। देवताओं से भी ऊंच है। तुम इस समय देवताओं से भी ऊंच हो क्योंकि बाप के साथ हो। बाप इस समय तुमको पढ़ाते हैं। बाप ओबीडियन्ट सर्वेन्ट बना है ना। बाप बच्चों का ओबीडियन्ट सर्वेन्ट होता है ना। बच्चे को पैदा कर, सम्भाल कर, पढ़ाकर फिर बड़ा कर जब बुढ़े होते हैं तो सारी मिलकियत बच्चे को देकर खुद गुरू कर किनारे जाकर बैठते हैं। वानप्रस्थी बन जाते हैं। मुक्तिधाम जाने के लिए गुरू करते हैं। परन्तु वह मुक्तिधाम में तो जा न सकें। तो माँ-बाप बच्चों की सम्भाल करते हैं। समझो माँ बीमार पड़ती है, बच्चे टट्टी कर देते हैं तो बाप को उठानी पड़े ना। तो माँ-बाप बच्चे के सर्वेन्ट ठहरे ना। सारी मिलकियत बच्चों को दे देते हैं। बेहद का बाप भी कहते हैं मैं जब आता हूँ तो कोई छोटे बच्चों के पास नहीं आता हूँ। तुम तो बड़े हो ना। तुमको बैठ शिक्षा देते हैं। तुम शिवबाबा के बच्चे बनते हो तो बी.के. कहलाते हो। उनसे पहले शूद्र कुमार-कुमारी थे, वेश्यालय में थे। अभी तुम वेश्यालय में रहने वाले नहीं हो। यहाँ कोई विकारी रह न सकें। हुक्म नहीं। तुम हो बी.के.। यह स्थान है ही बी.के. के रहने लिए। कोई-कोई बहुत अनाड़ी बच्चे हैं जो यह समझते नहीं कि शूद्र कहा जाता है पतित विकार में जाने वाले को, उन्हों को यहाँ रहने का हुक्म नहीं, आ नहीं सकते। इन्द्र सभा की बात है ना। इन्द्रसभा तो यह है, जहाँ ज्ञान वर्षा होती है। कोई बी.के. ने अपवित्र को छिपाकर सभा में बिठाया तो दोनों को श्राप मिल गया कि पत्थर बन जाओ। सच्चा-सच्चा यह इन्द्रप्रस्थ है ना। यह कोई शूद्र कुमार-कुमारियों का सतसंग नहीं है। पवित्र होते हैं देवतायें, पतित होते हैं शूद्र। पतितों को बाप आकर पावन देवता बनाते हैं। अभी तुम पतित से पावन बन रहे हो। तो यह हो गई इन्द्र सभा। अगर बिगर पूछे कोई विकारी को ले आते हैं तो बहुत सज़ा मिल जाती है। पत्थरबुद्धि बन जाते हैं। यहाँ पारस बुद्धि बन रहे हो ना। तो उनको जो ले आते हैं, उनको भी श्राप मिल जाता है। तुम विकारियों को छिपाकर क्यों ले आई? इन्द्र (बाप) से पूछा भी नहीं। तो कितनी सजा मिलती है। यह हैं गुप्त बातें। अभी तुम देवता बन रहे हो। बड़े कड़े कायदे हैं। अवस्था ही गिर पड़ती है। एकदम पत्थरबुद्धि बन पड़ते हैं। हैं भी पत्थरबुद्धि। पारसबुद्धि बनने का पुरूषार्थ ही नहीं करते। यह गुप्त बातें हैं जो तुम बच्चे ही समझ सकते हो। यहाँ बी.के. रहते हैं, उन्हों को देवता अर्थात् पत्थरबुद्धि से पारसबुद्धि बाप बना रहे हैं।
बाप मीठे-मीठे बच्चों को समझाते हैं - कोई भी कायदा न तोड़े। नहीं तो उन्हें 5 भूत पकड़ लेंगे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार - यह 5 बड़े-बड़े भूत हैं, आधाकल्प के। तुम यहाँ भूतों को भगाने आये हो। आत्मा जो शुद्ध पवित्र थी वह अपवित्र, अशुद्ध, दु:खी, रोगी बन गई है। इस दुनिया में अथाह दु:ख हैं। बाप आकर ज्ञान वर्षा करते हैं। तुम बच्चों द्वारा ही करते हैं। तुम्हारे लिए स्वर्ग रचते हैं। तुम ही योगबल से देवता बनते हो। बाप खुद नहीं बनते हैं। बाप तो है सर्वेन्ट। टीचर भी स्टूडेन्ट का सर्वेन्ट होता है। सेवा कर पढ़ाते हैं। टीचर कहते हैं हम तुम्हारा मोस्ट ओबीडियन्ट सर्वेन्ट हूँ। कोई को बैरिस्टर, इन्जीनियर आदि बनाते हैं तो सर्वेन्ट हुआ ना। वैसे ही गुरू लोग भी रास्ता बताते हैं। सर्वेन्ट बन मुक्तिधाम ले जाने की सेवा करते हैं। परन्तु आजकल तो गुरू कोई ले नहीं जा सकते हैं क्योंकि वह भी पतित हैं। एक ही सतगुरू सदा पवित्र है बाकी गुरू लोग भी सब पतित हैं। यह दुनिया ही सारी पतित है। पावन दुनिया कहा जाता है सतयुग को, पतित दुनिया कहा जाता है कलियुग को। सतयुग को ही पूरा स्वर्ग कहेंगे। त्रेता में दो कला कम हो जाती हैं। यह बातें तुम बच्चे ही समझकर और धारण करते हो। दुनिया के मनुष्य तो कुछ नहीं जानते। ऐसे भी नहीं, सारी दुनिया स्वर्ग में जायेगी। जो कल्प पहले थे, वही भारतवासी फिर आयेंगे और सतयुग-त्रेता में देवता बनेंगे। वही फिर द्वापर से अपने को हिन्दू कहलायेंगे। यूँ तो हिन्दू धर्म में अब तक भी जो आत्मायें ऊपर से उतरती हैं, वह भी अपने को हिन्दू कहलाती हैं लेकिन वह तो देवता नहीं बनेंगी और ना ही स्वर्ग में आयेंगी। वह फिर भी द्वापर के बाद अपने समय पर उतरेंगी और अपने को हिन्दू कहलायेंगी। देवता तो तुम ही बनते हो, जिनका आदि से अन्त तक पार्ट है। यह ड्रामा में बड़ी युक्ति है। बहुतों की बुद्धि में नहीं बैठता है तो ऊंच पद भी नहीं पा सकते हैं।
यह है सत्य नारायण की कथा। वह तो झूठी कथा सुनाते हैं, उससे कोई लक्ष्मी वा नारायण बनते थोड़ेही हैं। यहाँ तुम प्रैक्टिकल में बनते हो, कलियुग में है ही सब झूठ। झूठी माया....... रावण का राज्य है ही झूठ। सच खण्ड बाप बनाते हैं। यह भी तुम ब्राह्मण बच्चे जानते हो, सो भी नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार क्योंकि पढ़ाई है, कोई बहुत थोड़ा पढ़ते हैं तो फेल हो पड़ते हैं। यह तो एक ही बार पढ़ाई हो सकती है। फिर तो पढ़ना मुश्किल हो जायेगा। शुरू में जो पढ़कर शरीर छोड़कर गये हैं तो संस्कार वह लेकर गये हैं। फिर आकर पढ़ते होंगे। नाम-रूप तो बदल जाता है। आत्मा को ही सारा 84 का पार्ट मिला हुआ है, जो भिन्न-भिन्न नाम, रूप, देश, काल में पार्ट बजाती है। इतनी छोटी आत्मा उनको कितना बड़ा शरीर मिलता है। आत्मा तो सबमें होती है ना। इतनी छोटी आत्मा इतने छोटे मच्छर में भी है। यह सब बहुत सूक्ष्म समझने की बातें हैं। जो बच्चे यह अच्छी रीति समझते हैं वही माला का दाना बनते हैं। बाकी तो जाकर पाई पैसे का पद पायेंगे। अभी तुम्हारा यह फूलों का बगीचा बन रहा है। पहले तुम कांटे थे। बाप कहते हैं काम विकार का कांटा बड़ा खराब है। यह आदि, मध्य, अन्त दु:ख देता है। दु:ख का मूल कारण ही है काम। काम को जीतने से ही जगतजीत बनेंगे, इसमें ही बहुतों को मुश्किलातें फील होती हैं। बड़ा मुश्किल पवित्र बनते हैं। जो कल्प पहले बने थे वही बनेंगे। समझा जाता है कौन पुरूषार्थ कर ऊंच ते ऊंच देवता बनेंगे। नर से नारायण, नारी से लक्ष्मी बनते हैं ना। नई दुनिया में स्त्री-पुरूष दोनों पावन थे। अब पतित हैं। पावन थे तो सतोप्रधान थे। अभी तमोप्रधान बन गये हैं। यहाँ दोनों को पुरूषार्थ करना है। यह ज्ञान सन्यासी दे नहीं सकते। वह धर्म ही अलग है, निवृत्ति मार्ग का। यहाँ भगवान तो स्त्री-पुरूष दोनों को पढ़ाते हैं। दोनों को कहते हैं अब शूद्र से ब्राह्मण बनकर फिर लक्ष्मी-नारायण बनना है। सब तो नहीं बनेंगे। लक्ष्मी-नारायण की भी डिनायस्टी होती है। उन्हों ने राज्य कैसे लिया - यह कोई नहीं जानते हैं। सतयुग में इनका राज्य था, यह भी समझते हैं परन्तु सतयुग को फिर लाखों वर्ष दे दिया है तो यह अज्ञानता हुई ना। बाप कहते हैं यह है ही कांटों का जंगल। वह है फूलों का बगीचा। यहाँ आने से पहले तुम असुर थे। अभी तुम असुर से देवता बन रहे हो। कौन बनाते हैं? बेहद का बाप। देवताओं का राज्य था तो दूसरा कोई था नहीं। यह भी तुम समझते हो। जो नहीं समझ सकते हैं, उनको ही पतित कहा जाता है। यह है ब्रह्माकुमार-कुमारियों की सभा। अगर कोई शैतानी का काम करते हैं तो अपने को श्रापित कर देते हैं। पत्थरबुद्धि बन पड़ते हैं। सोने की बुद्धि नर से नारायण बनने वाले तो हैं नहीं - प्रूफ मिल जाता है। थर्ड ग्रेड दास-दासियां जाकर बनेंगे। अभी भी राजाओं के पास दास-दासियां हैं। यह भी गायन है - किनकी दबी रहेगी धूल में.......। आग के गोले भी आयेंगे तो ज़हर के गोले भी आयेंगे। मौत तो आना है जरूर। ऐसी-ऐसी चीजें तैयार कर रहे हैं जो कोई मनुष्य की वा हथियारों आदि की दरकार नहीं रहेगी। वहाँ से बैठे-बैठे ऐसे बाम्ब्स छोड़ेंगे, उनकी हवा ऐसे फैलेगी जो झट खलास कर देगी। इतने करोड़ों मनुष्यों का विनाश होना है, कम बात है क्या! सतयुग में कितने थोड़े होते हैं। बाकी सब चले जायेंगे शान्तिधाम, जहाँ हम आत्मायें रहती हैं। सुखधाम में है स्वर्ग, दु:खधाम में है यह नर्क। यह चक्र फिरता रहता है। पतित बन जाने से दु:खधाम बन जाता है फिर बाप सुखधाम में ले जाते हैं। परमपिता परमात्मा अभी सर्व की सद्गति कर रहे हैं तो खुशी होनी चाहिए ना। मनुष्य डरते हैं, यह नहीं समझते मौत से ही गति-सद्गति होनी है। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) फूलों के बगीचे में चलने के लिए अन्दर जो काम-क्रोध के कांटे हैं, उन्हें निकाल देना है। ऐसा कोई कर्म नहीं करना है जिससे श्राप मिल जाए।
2) सचखण्ड का मालिक बनने के लिए सत्य नारायण की सच्ची कथा सुननी और सुनानी है। इस झूठ खण्ड से किनारा कर लेना है।
वरदान:-
स्वदर्शन चक्र द्वारा माया के सब चक्रों को समाप्त करने वाले मायाजीत भव
अपने आपको जानना अर्थात् स्व का दर्शन होना और चक्र का ज्ञान जानना अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी बनना। जब स्वदर्शन चक्रधारी बनते हो तो अनेक माया के चक्र स्वत: समाप्त हो जाते हैं। देहभान का पा, सम्बन्ध का पा, समस्याओं का पा...माया के अनेक चक्र हैं। 63 जन्म इन्हीं अनेक चक्रों में फंसते रहे अब स्वदर्शन चक्रधारी बनने से मायाजीत बन गये। स्वदर्शन चक्रधारी बनना अर्थात् ज्ञान योग के पंखों से उड़ती कला में जाना।
स्लोगन:-
विदेही स्थिति में रहो तो परिस्थितियां सहज पार हो जायेंगी।