Sunday, January 13, 2019

13-01-19 प्रात:मुरली

13-01-19 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ''अव्यक्त-बापदादा'' रिवाइज: 10-04-84 मधुबन

प्रभु प्यार - ब्राह्मण जीवन का आधार
आज बापदादा अपने स्नेही, सहयोगी, सहजयोगी आत्माओं को देख रहे हैं। योगी आत्मायें तो सभी हैं। ऐसे ही कहेंगे कि यह योगियों की सभा है। सभी योगी तू आत्मायें अर्थात् प्रभु प्रिय आत्मायें बैठी हैं। जो प्रभु को प्रिय लगती हैं वह विश्व की प्रिय बनती ही हैं। सभी को यह रूहानी नशा, रूहानी रूहाब, रूहानी फखुर सदा रहता है कि हम परमात्म प्यारे, भगवान के प्यारे जगत के प्यारे बन गये? सिर्फ एक आधी घड़ी की नज़र वा दृष्टि पड़ जाए, भक्त लोग इसके प्यासे रहते हैं और इसी को महानता समझते हैं। लेकिन आप ईश्वरीय प्यार के पात्र बन गये। प्रभु प्यारे बन गये। यह कितना महान भाग्य है। आज हर आत्मा बचपन से मृत्यु तक क्या चाहती है? बेसमझ बच्चा भी जीवन में प्यार चाहता है। पैसा पीछे चाहता लेकिन पहले प्यार चाहता। प्यार नहीं तो जीवन, निराशा की जीवन अनुभव करते, बेरस अनुभव करते हैं। लेकिन आप सर्व आत्माओं को परमात्म प्यार मिला, परमात्मा के प्यारे बने, इससे बड़ी वस्तु और कुछ है? प्यार है तो जहान है, जान है। प्यार नहीं तो बेजान, बेजहान हैं। प्यार मिला अर्थात् जहान मिला। ऐसा प्यार श्रेष्ठ भाग्य अनुभव करते हो? दुनिया इसकी प्यासी है। एक बूँद की प्यासी है और आप बच्चों का यह प्रभु प्यार प्रापर्टी है। इसी प्रभु प्यार से पलते हो अर्थात् ब्राह्मण जीवन में आगे बढ़ते हो। ऐसा अनुभव करते हो? प्यार के सागर में लवलीन रहते हो? वा सिर्फ सुनते वा जानते हो? अर्थात् सागर के किनारे पर खड़े-खड़े सिर्फ सोचते और देखते रहते हो। सिर्फ सुनना और जानना, यह है किनारे पर खड़ा होना। मानना और समा जाना, यह है प्रेम के सागर में लवलीन होना। प्रभु के प्यारे बनकर भी सागर में समा जाना, लीन हो जाना यह अनुभव नहीं किया तो प्रभु प्यार के पात्र बन करके पाने वाले नहीं लेकिन प्यासे रह गये। पास आते भी प्यास रह जाना इसको क्या कहेंगे? सोचो, किसने अपना बनाया! किसके प्यारे बने! किसकी पालना में पल रहे हैं? तो क्या होगा? सदा स्नेह में समाये हुए होने कारण समस्यायें वा किसी भी प्रकार की हलचल का प्रभाव पड़ नहीं सकता। सदा विघ्न-विनाशक समाधान स्वरूप, मायाजीत अनुभव करेंगे।

कई बच्चे कहते हैं- ज्ञान की गुह्य बातें याद नहीं रहती। लेकिन एक बात यह याद रहती है कि मैं परमात्मा का प्यारा हूँ। परमात्म-प्यार का अधिकारी हूँ। इसी एक स्मृति से भी सदा समर्थ बन जायेंगे। यह तो सहज है ना। यह भी भूल जाता फिर तो भूल भुलैया में फँस गये। सिर्फ यह एक बात सर्व प्राप्ति के अधिकारी बनाने वाली है। तो सदैव यही याद रखो, अनुभव करो कि मैं प्रभु का प्यारा जग का प्यारा हूँ। समझा! यह तो सहज है ना। अच्छा - सुना तो बहुत है, अब समाना है। समाना ही समान बनना है। समझा!

सभी प्रभु प्यार के पात्र बच्चों को, सभी स्नेह में समाए हुए श्रेष्ठ आत्माओं को, सभी प्यार की पालना के अधिकारी बच्चों को, रूहानी फखुर में रहने वाली, रूहानी नशे में रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

1. सभी सहज योगी आत्मायें हो ना! सर्व सम्बन्ध से याद सहज योगी बना देती है। जहाँ सम्बन्ध है वहाँ सहज है। मैं सहजयोगी आत्मा हूँ, यह स्मृति सर्व समस्याओं को सहज ही समाप्त करा देती है क्योंकि सहजयोगी अर्थात् सदा बाप का साथ है। जहाँ सर्व शक्तिवान बाप साथ है, सर्व शक्तियाँ साथ हैं तो समस्या समाधान के रूप में बदल जायेगी। कोई भी समस्या बाप जाने, समस्या जाने। ऐसे सम्बन्ध के अधिकार से समस्या समाप्त हो जायेगी। मैं क्या करूँ! नहीं। बाप जाने, समस्या जाने। मैं न्यारा और बाप का प्यारा हूँ। तो सब बोझ बाप का हो जायेगा और आप हल्के हो जायेंगे। जब स्वयं हल्के बन जाते तो सब बातें भी हल्की हो जाती हैं। जरा भी सोच चलता तो भारी हो जाते और बातें भी भारी हो जाती इसलिए मैं हल्का हूँ, न्यारा हूँ तो सब बातें भी हल्की हैं। यही विधि है, इसी विधि से सिद्धि प्राप्त होगी। पिछला हिसाब-किताब चुक्तू होते हुए भी बोझ अनुभव नहीं होगा। ऐसे साक्षी होकर देखेंगे तो जैसे पिछला खत्म हो रहा है और वर्तमान की शक्ति से साक्षी हो देख रहे हैं। जमा भी हो रहा है और चुक्तू भी हो रहा है। जमा की शक्ति से चुक्तू का बोझ नहीं। तो सदा वर्तमान को याद रखो। जब एक तरफ भारी होता तो दूसरा स्वत: हल्का हो जाता। तो वर्तमान भारी है तो पिछला हल्का हो जायेगा ना। वर्तमान प्राप्ति का स्वरूप सदा स्मृति में रखो तो सब हल्का हो जायेगा। तो पिछले हिसाब को हल्का करने का साधन है - वर्तमान को शक्तिशाली बनाओ। वर्तमान है ही शक्तिशाली। वर्तमान की प्राप्ति को सामने रखेंगे तो सब सहज हो जायेगा। पिछला सूली से काँटा हो जायेगा। क्या है, क्यों है, नहीं। पिछला है। पिछले को क्या देखना। जहाँ लगन है वहाँ विघ्न भारी नहीं लगता। खेल लगता है। वर्तमान की खुशी की दुआ से और दवा से सब हिसाब-किताब चुक्तू करो।
टीचर्स से:- सदा हर कदम में सफलता अनुभव करने वाली हो ना। अनुभवी आत्मायें हो ना! अनुभव ही सबसे बड़ी अथॉरिटी है। अनुभव की अथॉरिटी वाले हर कदम में हर कार्य में सफल हैं ही। सेवा के निमित्त बनने का चांस मिलना भी एक विशेषता की निशानी है। जो चांस मिलता है, उसी को आगे बढ़ाते रहो। सदा निमित्त बन आगे बढ़ने और बढ़ाने वाली हैं। यह निमित्त भाव ही सफलता को प्राप्त कराता है। निमित्त और निर्माण की विशेषता को सदा साथ रखो। यही विशेषता सदा विशेष बनायेगी। निमित्त बनने का पार्ट स्वयं को भी लिफ्ट देता है। औरों के निमित्त बनना अर्थात् स्वयं सम्पन्न बनना। दृढ़ता से सफलता को प्राप्त करते चलो। सफलता ही है, इसी दृढ़ता से सफलता स्वयं आगे जायेगी।

जन्मते ही सेवाधारी बनने का गोल्डन चांस मिला है, तो बड़े ते बड़ी चांसलर बन गई ना। बचपन से ही सेवाधारी की तकदीर लेकर आई हो। तकदीर जगाकर आई हो। कितनी आत्माओं की श्रेष्ठ तकदीर बनाने के कर्तव्य के निमित्त बन गई। तो सदा याद रहे वाह मेरे श्रेष्ठ तकदीर की श्रेष्ठ लकीर। बाप मिला, सेवा मिली, सेवास्थान मिला और सेवा के साथ-साथ श्रेष्ठ आत्माओं का श्रेष्ठ परिवार मिला। क्या नहीं मिला। राज्य भाग्य सब मिल गया। यह खुशी सदा रहे। विधि द्वारा सदा वृद्धि को पाते रहो। निमित्त भाव की विधि से सेवा में वृद्धि होती रहेगी।
कुमारों से:- कुमार जीवन में बच जाना, यह सबसे बड़ा भाग्य है। कितने झंझटों से बच गये। कुमार अर्थात् बन्धनमुक्त आत्मायें। कुमार जीवन बन्धनमुक्त जीवन है। लेकिन कुमार जीवन में भी फ्री रहना माना बोझ उठाना। कुमारों के प्रति बापदादा का डायरेक्शन है लौकिक में रहते अलौकिक सेवा करनी है। लौकिक सेवा सम्पर्क बनाने का साधन है। इसमें बिजी रहो तो अलौकिक सेवा कर सकेंगे। लौकिक में रहते अलौकिक सेवा करो। तो बुद्धि भारी नहीं रहेगी। सबको अपना अनुभव सुनाकर सेवा करो। लौकिक सेवा, सेवा का साधन समझकर करो, तो लौकिक साधन बहुत सेवा का चांस दिलायेगा। लक्ष्य ईश्वरीय सेवा का है लेकिन यह साधन है। ऐसे समझकर करो। कुमार अर्थात् हिम्मत वाले। जो चाहे वह कर सकते हैं, इसलिए बापदादा सदा साधनों द्वारा सिद्धि को प्राप्त करने की राय देते हैं। कुमार अर्थात् निरन्तर योगी क्योंकि कुमारों का संसार ही एक बाप है। जब बाप ही संसार है तो संसार के सिवाए बुद्धि और कहाँ जायेगी। जब एक ही हो गया तो एक की ही याद रहेगी ना और एक को याद करना बहुत सहज है। अनेकों से तो छूट गये। एक में ही सब समाये हुए हैं! सदा हर कर्म से सेवा करनी है, दृष्टि से, मुख से सेवा ही सेवा। जिससे प्यार होता है उसे प्रत्यक्ष करने का उमंग होता है। हर कदम में बाप और सेवा सदा साथ रहे। अच्छा।
चुने हुए विशेष अव्यक्त महावाक्य - कर्मबन्धन मुक्त कर्मातीत, विदेही बनो

विदेही व कर्मातीत स्थिति का अनुभव करने के लिए

1) हद के मेरे-मेरे के देह-अभिमान से मुक्त बनो।

2) लौकिक और अलौकिक, कर्म और सम्बन्ध दोनों में स्वार्थ भाव से मुक्त बनो।

3) पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब वा वर्तमान पुरूषार्थ की कमजोरी के कारण किसी भी व्यर्थ स्वभाव-संस्कार के वश होने से मुक्त बनो।

4) यदि कोई भी सेवा की, संगठन की, प्रकृति की परिस्थिति स्वस्थिति को वा श्रेष्ठ स्थिति को डगमग करती है - तो यह भी बन्धनमुक्त स्थिति नहीं है, इस बन्धन से भी मुक्त बनो।

5) पुरानी दुनिया में पुराने अन्तिम शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि अपनी श्रेष्ठ स्थिति को हलचल में न लाये - इससे भी मुक्त बनो। व्याधि का आना, यह भावी है लेकिन स्थिति हिल जाना - यह बन्धनयुक्त की निशानी है। स्वचिन्तन, ज्ञान चिन्तन, शुभचिन्तक बनने का चिन्तन बदल शरीर की व्याधि का चिन्तन चलना - इससे मुक्त बनो - इसी को ही कर्मातीत स्थिति कहा जाता है।

कर्मयोगी बन कर्म के बन्धन से सदा न्यारे और सदा बाप के प्यारे बनो - यही कर्मातीत विदेही स्थिति है। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं है कि कर्म से अतीत हो जाओ। कर्म से न्यारे नहीं, कर्म के बन्धन में फँसने से न्यारे बनो। कोई कितना भी बड़ा कार्य हो लेकिन ऐसे लगे जैसे काम नहीं कर रहे हैं लेकिन खेल कर रहे हैं। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा हिसाब-किताब चुक्तू करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्मभोग सामना करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त रहना ही विदेही स्थिति है। जब तक यह देह है, कर्मेन्द्रियों के साथ इस कर्मक्षेत्र पर पार्ट बजा रहे हो, तब तक कर्म के बिना सेकण्ड भी रह नहीं सकते लेकिन कर्म करते हुए कर्म के बन्धन से परे रहना यही कर्मातीत विदेही अवस्था है। तो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म के सम्बन्ध में आना है, कर्म के बन्धन में नहीं बंधना है। कर्म के विनाशी फल की इच्छा के वशीभूत नहीं होना है। कर्मातीत अर्थात् कर्म के वश होने वाला नहीं लेकिन मालिक बन, अथॉरिटी बन कर्मेन्द्रियों के सम्बन्ध में आये, विनाशी कामना से न्यारा हो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराये। आत्मा मालिक को कर्म अपने अधीन न करे लेकिन अधिकारी बन कर्म कराता रहे। कराने वाला बन कर्म कराना - इसको कहेंगे कर्म के सम्बन्ध में आना। कर्मातीत आत्मा सम्बन्ध में आती है, बन्धन में नहीं।

कर्मातीत अर्थात् देह, देह के सम्बन्ध, पदार्थ, लौकिक चाहे अलौकिक दोनों सम्बन्ध से, बन्धन से अतीत अर्थात् न्यारे। भल सम्बन्ध शब्द कहने में आता है - देह का सम्बन्ध, देह के सम्बन्धियों का सम्बन्ध, लेकिन देह में वा सम्बन्ध में अगर अधीनता है तो सम्बन्ध भी बन्धन बन जाता है। कर्मातीत अवस्था में कर्म सम्बन्ध और कर्म बन्धन के राज़ को जानने के कारण सदा हर बात में राज़ी रहेंगे। कभी नाराज़ नहीं होंगे। वे अपने पिछले कर्मों के हिसाब-किताब के बन्धन से भी मुक्त होंगे। चाहे पिछले कर्मों के हिसाब-किताब के फलस्वरूप तन का रोग हो, मन के संस्कार अन्य आत्माओं के संस्कारों से टक्कर भी खाते हों लेकिन कर्मातीत, कर्मभोग के वश न होकर मालिक बन चुक्तू करायेंगे। कर्मयोगी बन कर्मभोग चुक्तू करना - यह है कर्मातीत बनने की निशानी। योग से कर्मभोग को मुस्कराते हुए सूली से कांटा कर भस्म करना अर्थात् कर्मभोग को समाप्त करना। कर्मयोग की स्थिति से कर्मभोग को परिवर्तन कर देना - यही कर्मातीत स्थिति है।

व्यर्थ संकल्प ही कर्मबन्धन की सूक्ष्म रस्सियां हैं। कर्मातीत आत्मा बुराई में भी अच्छाई का अनुभव करती है। वह कहेगी - जो होता है वह अच्छा है, मैं भी अच्छा, बाप भी अच्छा, ड्रामा भी अच्छा। यह संकल्प बन्धन को काटने की कैंची का काम करता है। बन्धन कट गये तो कर्मातीत हो जायेंगे। विदेही स्थिति का अनुभव करने के लिए इच्छा मात्रम् अविद्या बनो। ऐसी हद की इच्छा मुक्त आत्मा सर्व की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली बाप समान ‘कामधेनु' होगी। जैसे बाप के सर्व भण्डारे, सर्व खजाने सदा भरपूर हैं, अप्राप्ति का नाम निशान नहीं है; ऐसे बाप समान सदा और सर्व खजानों से भरपूर बनो। सृष्टि चक्र के अन्दर पार्ट बजाते हुए अनेक दु:ख के चक्करों से मुक्त रहना - यही जीवनमुक्त स्थिति है। ऐसी स्थिति का अनुभव करने के लिए अधिकारी बन, मालिक बन सर्व कर्मेन्द्रियों से कर्म कराने वाले बनो। कर्म में आओ फिर कर्म पूरा होते न्यारे हो जाओ - यही है विदेही स्थिति का अभ्यास। आत्मा का आदि और अनादि स्वरूप स्वतंत्र है। आत्मा राजा है, मालिक है। मन का भी बन्धन न हो। अगर मन का भी बंधन है तो यह एक बंधन अनेक बन्धनों को ले आयेगा इसलिए स्वराज्य अधिकारी अर्थात् बन्धनमुक्त राजा बनो। इसके लिए ब्रेक पावरफुल रखो, जो देखना चाहो वही देखो, जो सुनना चाहो वही सुनो। इतनी कन्ट्रोलिंग पावर हो तब अन्त में पास विद ऑनर होंगे अर्थात् फर्स्ट डिवीजन में आ सकेंगे।
ब्रह्मा बाप समान बनने के लिए विशेष पुरुषार्थ

ब्रह्मा बाप से प्यार है तो ब्रह्मा बाप समान फरिश्ता बनो। सदैव अपना लाइट का फरिश्ता स्वरूप सामने दिखाई दे कि ऐसा बनना है और भविष्य रूप भी दिखाई दे। अब यह छोड़ा और वह लिया। जब ऐसी अनुभूति हो तब समझो कि सम्पूर्णता के समीप हैं।
वरदान:-
पवित्रता को आदि अनादि विशेष गुण के रूप में सहज अपनाने वाले पूज्य आत्मा भव
पूजनीय बनने का विशेष आधार पवित्रता पर है। जितना सर्व प्रकार की पवित्रता को अपनाते हो उतना सर्व प्रकार से पूजनीय बनते हो। जो विधिपूर्वक आदि अनादि विशेष गुण के रूप से पवित्रता को अपनाते हैं वही विधिपूर्वक पूजे जाते हैं। जो ज्ञानी और अज्ञानी आत्माओं के सम्पर्क में आते पवित्र वृत्ति, दृष्टि, वायब्रेशन से यथार्थ सम्पर्क-सम्बन्ध निभाते हैं, स्वप्न में भी जिनकी पवित्रता खण्डित नहीं होती है - वही विधिपूर्वक पूज्य बनते हैं।
स्लोगन:-
व्यक्त में रहते अव्यक्त फरिश्ता बनकर सेवा करो तो विश्व कल्याण का कार्य तीव्रगति से सम्पन्न हो।