Wednesday, October 17, 2018

17-10-2018 प्रात:मुरली

17-10-2018 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

''मीठे बच्चे - गृहस्थ व्यवहार में रहते सबसे तोड़ निभाना है, ऩफरत नहीं करनी है लेकिन कमल फूल के समान पवित्र जरूर बनना है''
प्रश्नः-
तुम्हारी विजय का डंका कब बजेगा? वाह-वाह कैसे निकलेगी?
उत्तर:-
अन्त समय जब तुम बच्चों पर माया की ग्रहचारी बैठना बन्द हो जायेगी, सदा लाइन क्लीयर रहेगी तब वाह-वाह निकलेगी, विजय का डंका बजेगा। अभी तो बच्चों पर ग्रहचारी बैठ जाती है। विघ्न पड़ते रहते हैं। 3 पैर पृथ्वी के भी सेवा के लिए मुश्किल मिलते हैं लेकिन वह भी समय आयेगा जब तुम बच्चे सारे विश्व के मालिक होंगे।
गीत:-
धीरज धर मनुवा ...........  
ओम् शान्ति।
बच्चे नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार जानते हैं कि अभी पुराना नाटक पूरा हुआ है। दु:ख के दिन बाकी कुछ घड़ियां हैं और फिर सदा सुख ही सुख होगा। जब सुख का पता पड़ता है तो समझा जाता है यह दु:खधाम है, वास्ट डिफरेन्ट है। अभी सुख के लिए तुम पुरुषार्थ कर रहे हो। समझते हो यह दु:ख का पुराना नाटक पूरा हुआ। सुख के लिए अब बापदादा की श्रीमत पर चल रहे हैं। कोई को भी समझाना बहुत सहज है। अभी बाबा के पास जाना है। बाबा लेने लिए आया है। गृहस्थ व्यवहार में रहते कमल फूल समान पवित्र हो रहना है। तोड़ जरूर निभाना है। अगर तोड़ नहीं निभाते हो तो जैसे सन्यासियों मिसल हो जाते। वह तोड़ नहीं निभाते हैं तो उनको निवृत्ति मार्ग, हठयोग कहा जाता है। सन्यासियों द्वारा जो सिखलाया जाता है वह है हठयोग। हम राजयोग सीखते हैं, जो भगवान् सिखलाते हैं। भारत का धर्म शास्त्र है ही गीता। दूसरों का धर्म शास्त्र क्या है उनसे अपना कोई तैलुक नहीं। सन्यासी कोई प्रवृत्ति मार्ग वाले नहीं हैं, उन्हों का है हठयोग। घरबार छोड़ जंगल में बैठना, उनको जन्म बाई जन्म सन्यास करना पड़ता है। तुम गृहस्थ व्यवहार में रहते एक बार सन्यास करते हो फिर 21 जन्म उसकी प्रालब्ध पाते हो। उनका है हद का सन्यास और हठयोग, तुम्हारा है बेहद का सन्यास और राजयोग। वह तो गृहस्थ व्यवहार छोड़ देते हैं। राजयोग का तो बहुत गायन है। भगवान् ने राजयोग सिखलाया तो भगवान् जरूर ऊंच ते ऊंच को ही कहेंगे। श्रीकृष्ण तो भगवान हो न सके। बेहद का बाप है ही वह निराकार। बेहद की बादशाही वही दे सकते हैं। यहाँ गृहस्थ व्यवहार से ऩफरत नहीं की जाती। बाप कहते हैं यह अन्तिम जन्म गृहस्थ व्यवहार में रहते पवित्र बनो। पतित-पावन किसी सन्यासी को नहीं कहा जाता। सन्यासी खुद भी गाते हैं पतित-पावन........ उनको याद करते हैं, वह भी पावन दुनिया चाहते हैं। परन्तु यह नहीं जानते कि वह दुनिया ही एक और है। जबकि वह गृहस्थ व्यवहार में ही नहीं हैं तो देवताओं को भी नहीं मानेंगे। वह कभी राजयोग सिखला न सकें। न बाप कभी हठयोग सिखला सकते, न सन्यासी कभी राजयोग सिखला सकते। यह समझने की बात है।

अभी देहली में वर्ल्ड कान्फ्रेंस होती है, उनको समझाना है, लिखत में सभी को देना है। वहाँ तो मतभेद हो जाता है। लिखत में होगा तो सभी समझ जायेंगे इन्हों का उद्देश्य क्या है।

अभी तुम समझते हो हम हैं ब्राह्मण कुल के, हम शूद्र कुल के मेम्बर कैसे बन सकते हैं वा विकारी कुल में हम अपने को कैसे रजिस्टर्ड कर सकते हैं, इसलिए ना कर देते। हम हैं आस्तिक, वह हैं नास्तिक। वह हैं ईश्वर को न मानने वाले, हम हैं ईश्वर से योग रखने वाले। मतभेद हो जाता है। समझाया जाता है जो बाप को नहीं जानते वह नास्तिक हैं। तो बाप ही आकरके आस्तिक बनायेंगे। बाप का बनने से बाप का वर्सा मिल जाता है। यह बड़ी गुह्य बातें हैं। पहले-पहले तो बुद्धि में यह बिठाना है कि गीता का भगवान् परमपिता परमात्मा है। उसने ही आदि सनातन देवी-देवता धर्म स्थापन किया। भारत का देवी-देवता धर्म ही मुख्य है। भारत खण्ड का कोई तो धर्म चाहिए ना। अपने धर्म को भूल गये हैं। यह भी तुम जानते हो कि ड्रामानुसार भारतवासियों को अपना धर्म भूल जाना है तब तो फिर बाप आ करके स्थापन करे। नहीं तो फिर बाप आये कैसे? कहते हैं जब-जब देवी-देवता धर्म प्राय:लोप हो जाता है तब मैं आता हूँ। प्राय:लोप जरूर होना ही है। कहते हैं ना बैल की एक टांग टूट गई है, बाकी 3 टांग पर खड़ा है। तो मुख्य हैं ही 4 धर्म। अभी देवता धर्म की टांग टूट पड़ी है, यानी वह धर्म गुम हो गया है इसलिए बड़ के झाड़ का मिसाल देते हैं कि इसका फाउन्डेशन सड़ गया है। बाकी टाल-टालियाँ कितनी खड़ी हैं। तो इनमें भी फाउन्डेशन देवता धर्म है ही नहीं। बाकी सारी दुनिया में मठ-पंथ आदि कितने हैं! तुम्हारी बुद्धि में अभी सारी रोशनी है। बाप कहते हैं तुम बच्चे इस ड्रामा को जान गये हो। अब यह सारा झाड़ पुराना हो गया है। कलियुग के बाद सतयुग जरूर आना है। चक्र को फिरना जरूर है। बुद्धि में यह रखना है - अब नाटक पूरा हुआ है, हम जा रहे हैं। चलते-फिरते उठते-बैठते भी याद रहे - अब हमको वापिस जाना है। मन्मनाभव, मध्याजी भव का यही अर्थ है। कोई भी बड़ी सभा में भाषण आदि करना है तो यही समझाना है - परमपिता परमात्मा फिर से कहते हैं कि हे बच्चे, देह सहित देह के सब धर्म त्याग अपने को आत्मा समझ बाप को याद करो तो पाप ख़त्म होंगे। मैं तुमको राजयोग सिखलाता हूँ। गृहस्थ व्यवहार में रहते कमल फूल समान बन मुझे याद करो, पवित्र रहो, नॉलेज को धारण करो। अभी सब दुर्गति में हैं। सतयुग में देवतायें सद्गति में थे। फिर बाप ही आकर सद्गति करते हैं। सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण........ यह हैं सद्गति के लक्षण। यह कौन देते हैं? बाप। उनके फिर लक्षण क्या हैं? वह ज्ञान का सागर है, आनन्द का सागर है। उनकी महिमा बिल्कुल अलग है। ऐसे नहीं कि सब एक ही हैं। एक बाप के बच्चे सभी आत्मायें हैं। प्रजापिता के ही औलाद होते हैं। अब नई रचना रची जाती है। प्रजापिता की औलाद तो सब हैं परन्तु वे लोग इन बातों को जानते नहीं। ब्राह्मण वर्ण है सबसे ऊंच। भारत के ही वर्ण गाये जाते हैं। 84 जन्म लेने में इन वर्णों से पास करना होता है। ब्राह्मण वर्ण है ही संगमयुग पर।

तुम बच्चे अभी स्वीट साइलेन्स में रहते हो। यह साइलेन्स सबसे अच्छी है। वास्तव में शान्ति का हार तो गले में पड़ा हुआ है। चाहते तो सब हैं शान्ति घर में जायें। परन्तु यह रास्ता कौन बताये? शान्ति के सागर के सिवाए तो कोई बता न सके। टाइटिल अच्छा दिया हुआ है - शान्ति का सागर, ज्ञान का सागर। श्रीकृष्ण तो स्वर्ग का प्रिन्स है। वह है मनुष्य सृष्टि का बीजरूप। कितना रात-दिन का फ़र्क है। कृष्ण को सृष्टि का बीज कह नहीं सकते। सर्वव्यापी का ज्ञान तो ठहर न सके। बाप की महिमा अपनी है। वह सदैव पूज्य है, कभी पुजारी नहीं बनता। ऊपर से पहले जो आते हैं वह पूज्य से पुजारी बनते हैं। प्वाइन्ट्स तो ढेर समझाई जाती हैं। एग्जीवीशन में कितने आते हैं, परन्तु कोटों में कोई ही निकलते हैं क्योंकि मंज़िल बड़ी भारी है। प्रजा तो ढेर बनती रहेगी। माला में आने वाले दाने कोटों में कोई ही निकलते हैं। नारद का भी मिसाल है, उनको कहा तुम अपनी शक्ल देखो - लक्ष्मी को वरने लायक हो? प्रजा तो बहुत बननी है। राजा फिर भी राजा है। एक-एक राजा को लाखों प्रजा रहती है। पुरुषार्थ तो ऊंच करना चाहिए। राजाओं में भी कोई बड़ा राजा, कोई छोटा राजा है। भारत में कितने राजायें थे! सतयुग में भी बहुत महाराजायें होते हैं। यह सतयुग से लेकर चला आया है। महाराजाओं को बहुत प्रापर्टी होती है, राजाओं को कम। यह है श्री लक्ष्मी-नारायण बनने की नॉलेज। उसके लिए ही पुरुषार्थ चलता है। पूछते हैं लक्ष्मी-नारायण का पद पायेंगे वा राम सीता का? तो कहते हैं हम तो लक्ष्मी-नारायण का ही पद पायेंगे, माँ-बाप से पूरा वर्सा लेंगे। यह तो वन्डरफुल बातें हैं ना, और कोई जगह यह बातें हैं नहीं, न कोई शास्त्रों में हैं। अब तुम्हारी बुद्धि का ताला खुल गया है। बाप समझाते हैं चलते-फिरते ऐसे समझो हम एक्टर्स हैं, अब हमको वापिस जाना है। यह याद रहे, इनको ही मन्मनाभव, मध्याजी भव कहा जाता है। बाप घड़ी-घड़ी याद दिलाते हैं - मैं तुमको वापिस ले जाने आया हूँ। यह है रूहानी यात्रा। यह यात्रा बाप के सिवाए कोई करा न सके। भारत की महिमा भी बहुत करनी है। यह भारत होलीएस्ट लैण्ड है। सर्व का दु:ख हर्ता और सुख कर्ता, सबका सद्गति दाता एक ही बाप है। भारत उनका बर्थ प्लेस है। वह बाप सबका लिबरेटर है। उनका यहाँ (भारत में) बड़े ते बड़ा तीर्थ स्थान है। भारतवासी भल शिव के मन्दिर में जाते हैं परन्तु उनको पता नहीं है। गांधी को जानते हैं, समझते हैं वह बहुत अच्छा था इसलिए जाकर उन पर फूल आदि चढ़ाते हैं, लाखों खर्च करते हैं। अब इस समय है ही उन्हों का राज्य। जो चाहे सो कर सकते हैं। यह तो बाप बैठ गुप्त धर्म की स्थापना करते हैं, यह राज्य ही अलग है। भारत में पहले-पहले देवताओं का राज्य था। दिखाते हैं असुरों और देवताओं की लड़ाई लगी। परन्तु ऐसी बातें तो हैं नहीं। यहाँ तो युद्ध के मैदान में माया पर जीत पाई जाती है, माया पर जीत तो जरूर सर्वशक्तिमान ही पहनायेंगे। कृष्ण को सर्वशक्तिमान नहीं कहा जाता। बाबा ही रावण राज्य से छुड़ाकर रामराज्य की स्थापना करा रहे हैं। बाकी वहाँ लड़ाई आदि की बात होती नहीं। अभी देखेंगे तो सृष्टि में सर्वशक्तिमान इस समय क्रिश्चियन लोग हैं। वह चाहें तो सब पर जीत पा सकते हैं परन्तु वह विश्व के मालिक बनें, यह कायदा नहीं। इस राज़ को तुम ही जानते हो। इस समय सर्वशक्तिवान राजधानी क्रिश्चियन की है। नहीं तो उन्हों की संख्या कम होनी चाहिए क्योंकि लास्ट में आये हैं। परन्तु 3 धर्मों में यह धर्म सबसे तीखा है। सबको हाथकर बैठे हैं। यह भी ड्रामा बना हुआ है। इनके द्वारा ही फिर हमको राजधानी मिलनी है। कहानी भी है 2 बिल्ले लड़े, मक्खन बीच में तीसरे को मिल जाता है। तो वह आपस में लड़ते हैं, मक्खन बीच में भारतवासियों को ही मिलना है। कहानी तो पाई पैसे की है, अर्थ कितना बड़ा है। मनुष्य कितने बेसमझ हैं। एक्टर होते हुए भी ड्रामा को नहीं जानते, बेसमझ हो पड़े हैं। समझते भी गरीब हैं। साहूकार लोग कुछ भी नहीं समझते। गरीब निवाज़ पतित-पावन बाप गाया हुआ है। अब प्रैक्टिकल में पार्ट बजा रहे हैं। बड़ी-बड़ी सभाओं में तुमको समझाना है। विवेक कहता है कि धीरे-धीरे वाह-वाह निकलेगी, लास्ट मूवमेंट में डंका बजना है। अभी तो बच्चों पर ग्रहचारी बैठती है। लाइन क्लीयर नहीं। विघ्न पड़ते रहते हैं। यह भी ड्रामा अनुसार पड़ते रहेंगे। जितना पुरुषार्थ करेंगे, उतना ऊंच पद पायेंगे। पाण्डवों को 3 पैर पृथ्वी के नहीं मिलते थे। अभी का यह गायन है। परन्तु यह किसको पता नहीं है कि वही फिर प्रैक्टिकल में विश्व के मालिक बनें। तुम बच्चे अब जानते हो, इसमें अफसोस नहीं किया जाता। कल्प पहले भी ऐसे हुआ था। ड्रामा के पट्टे पर खड़ा रहना चाहिए, हिलना नहीं चाहिए। अब नाटक पूरा होता है, चलते हैं सुखधाम। पढ़ाई ऐसी पढ़नी है जो ऊंच पद पा लेवें। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) चलते-फिरते अपने को एक्टर समझना है, ड्रामा के पट्टे पर अचल रहना है। बुद्धि में रहे कि अभी हम वापस घर जाते हैं, हम यात्रा पर हैं।
2) सद्गति के सर्व लक्षण स्वयं में धारण करने हैं। सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण बनना है।
वरदान:-
सहयोग की शुभ भावना द्वारा रूहानी वायुमण्डल बनाने वाले मास्टर दाता भव
जैसे प्रकृति अपने वायुमण्डल के प्रभाव का अनुभव कराती है, कभी गर्मी, कभी सर्दी..ऐसे आप प्रकृतिजीत सदा सहयोगी, सहजयोगी आत्मायें अपनी शुभ भावनाओं द्वारा रूहानी वायुमण्डल बनाने में सहयोगी बनो। वह ऐसा है वा ऐसा करता है, यह नहीं सोचो। कैसा भी वायुमण्डल है, व्यक्ति है, मुझे सहयोग देना है। दाता के बच्चे सदा देते हैं। तो चाहे मन्सा से सहयोगी बनो, चाहे वाचा से, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क के द्वारा लेकिन लक्ष्य हो सहयोगी जरूर बनना है।
स्लोगन:-
इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति द्वारा सर्व की इच्छाओं को पूर्ण करना ही कामधेनु बनना है।