Sunday, June 24, 2018

24-06-18 प्रात:मुरली

24-06-18 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “मातेश्वरी” रिवाइज 24-04-65 मधुबन

“ज्ञान का तीसरा नेत्र (विजडम) ही लाइफ में सुख और शान्ति का आधार है”
गीत: आज अन्धेरे में हम इंसान...

ओम् शान्ति। गीत में सुना हम इन्सान अन्धेरे में हैं। लेकिन आज तो दुनिया समझती है कि हम बहुत रोशनी में हैं, कितनी रोशनी हुई है! चाँद तक जा सकते हैं, आकाश, सितारों में घूम सकते हैं। आज मनुष्य क्या नहीं कर सकता है! तो इन सभी बातों को देखकर मनुष्य समझते हैं बहुत रोशनी आ गई है। परन्तु फिर गीत में कहते हैं हम अंधेरे में हैं। तो वह अंधेरा किस बात का है? जबकि इतनी खोज कर रहे हैं, चांद सितारों तक भी जाने की हिम्मत दिखा रहे हैं! यह सब होते भी जो चीज लाइफ में चाहिए, जो लाइफ सुख और शान्ति से सम्पन्न होनी चाहिए वह नहीं है। उसमें तो मनुष्य ऊंचा नहीं गया है ना। लाइफ में सुख शान्ति के बजाए और ही दु:ख अशान्ति बढ़ती जा रही है तो इससे सिद्ध होता है कि जो मनुष्य को चाहिए उसमें नीचे होते जाते हैं, उसका अन्धकार है। अभी देखो घर बैठे इधर देखते हैं, उधर बात करते हैं, टेलीविजन, रेडियो, यह सभी चीजे हैं परन्तु फिर भी जो लाइफ का सुख और शान्ति कहें वो तो चीज नहीं रही है ना। उसका ही अंधकार है इसलिये कहते हैं आज इन्सान अन्धेरे में है। आज देखो रोगों के लिये कितने इलाज, कितनी दवाईयां आदि निकालते रहते हैं लेकिन रोगी तो फिर भी बढ़ते जा रहे हैं तो हमारे लिये दु:ख अशान्ति बढ़ता ही जा रहा है, इसलिए बुलाते हैं अभी तू आ। किसको बुलाते हैं? इसके लिए कोई इन्सान को नहीं बुलाते हैं, परमात्मा को ही पुकारते हैं। इन्सान के पास तो देने के लिए कुछ है भी नहीं। जब कहते हैं हम सब इन्सान हैं तो उसमें साधू सन्त महात्मा आदि सब आ गये। जिन्हों के लिए समझते हैं वो हमको पार करेंगे, अब वह भी तो इन्सान हैं और सब इन्सान अंधकार में हैं इसलिए जो चीज हमें चाहिए वह नहीं मिल पा रही है। फिर परमात्मा को पुकारते हैं और गाते भी हैं कि अन्धे की लाठी तू है। लेकिन अन्धे किसमें हैं? ऐसे तो नहीं कि देखने के लिए आंखें नहीं हैं। इन पदार्थों को और सभी बातों को देखने के लिये यह ऑखे भले हैं लेकिन वह नेत्र नहीं है जिसको ज्ञान नेत्र कहा जाता है। तो यही नेत्र अथवा विजडम नहीं है कि लाइफ में पूर्ण सुख और शान्ति कैसे आवे? लेकिन वो ज्ञान नेत्र कोई यहाँ निकल नहीं आयेगा, यह जो चित्रकारों ने देवताओं के चित्रों में तीसरा नेत्र दिखलाया है इससे कई समझते हैं शायद तीन ऑख वाले कभी मनुष्य थे, परन्तु ऐसे तीन ऑख वाले मनुष्य तो होते नहीं हैं। यह सभी जो चित्रों में अलंकार हैं इनका भी अर्थ समझना है। कभी तीन ऑखें मनुष्य को होती नहीं हैं, भले देवता हो, कोई भी हो। मनुष्य ही देवता है और मनुष्य ही असुर है। वह है मनुष्य की क्वालिफिकेशन। बाकी ऐसे नहीं है कि वह कोई मनुष्य के शरीर की बनावट को बदल देता है जिससे किसको चार भुजायें आ जायेंगी या तीन ऑखें आ जायेंगी! या कोई असुर है तो उसमें कुछ और बनावट का फर्क पड़ जायेगा। जब मनुष्य डिसक्वालिफाईड है तो उसको कहा जायेगा असुर और क्वालिफिकेशन्स में जब सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी है तो वह देवता है। बाकी शरीर की बनावट में फर्क नहीं पड़ता, उसके क्वालिफिकेशन्स में फर्क जरूर पड़ता है, जिसको पवित्र अपवित्र कहो या गुण अवगुण सम्पन्न कहो या भ्रष्टाचार, श्रेष्ठाचार कहो। यह सभी अक्षर आचरण के ऊपर हैं।

चार भुजा का भी अर्थ है - दो भुजा नारी की, दो भुजा नर की। तो नर नारी जब पवित्र हैं तो चतुर्भुज का डबल क्राउन, किंगडम का सिम्बल दिखाते हैं। ऐसी राजाई जब थी तो उस राजाई में सभी नर नारी सुखी थे तो उसे चतुर्भुज के रूप में दिखलाया है और रावण को 10 शीश वाला दिखाते हैं, उसका भी अर्थ है। 10 शीश वाला कोई आदमी नहीं होता। यह भी एक विकारों का सिम्बल है, जब अपवित्र प्रवृत्ति है तो 5 विकार स्त्री के और 5 विकार पुरूष के मिला करके 10 शीश दिखा दिये हैं। तो यह नर नारी जब अपवित्र हैं तो संसार ऐसा दु:खी है और जब नर नारी पवित्र हैं तो संसार सुखी है। जब मनुष्य पवित्र हैं तो नेचुरल हेल्दी हैं और उसकी बनावट, फीचर्स, नैचुरल ब्युटी आदि इसका फर्क हो सकता है। बाकी ऐसे नहीं कि उसमें कोई 3 ऑखे या 10 सिर... की बनावट होगी।

बाप कहते हैं देखो, यह ज्ञान का नेत्र है। इस नॉलेज के नेत्र से ही सदा सुख शान्ति प्राप्त कर सकते हो। यहाँ तो सब इन्सान खोजते-खोजते थक गये हैं, जितना खोज कर रहे हैं उतना और ही दु:ख-अशान्ति बढ़ता जा रहा है। देखो, खोज तो सुख के लिये करते हैं लेकिन फिर भी उनसे वही चीजें बनती जा रही हैं जो और ही दु:ख देने वाली हैं। अब यह बॉम्ब्स आदि क्या-क्या चीजें निकाली हैं। नहीं तो यही साईस अगर अच्छी तरह से उपयोग (काम) में लगाई जाए तो बहुत चीजों से सुख मिल सकता है। परन्तु विनाश काले विपरीत बुद्धि है ना, इसलिए उस बुद्धि से काम ही उल्टा हो रहा है। अभी यह समय ही विनाश का है इसलिए बुद्धि काम ही उल्टा करती है, दुनिया के नाश का ही सोचती है इसलिए कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि। विपरीत बुद्धि किससे? परमात्मा से। तो अभी किसी की भी प्रीत परमात्मा से नहीं है। माया से सबकी प्रीत हो गई है।

कई फिर समझते हैं कि हम इन आंखों से जो भी देखते हैं यह माया है, यह शरीर भी माया है, यह संसार भी माया है, यह धन सम्पत्ति भी माया है परन्तु माया इसको नहीं कहेंगे। धन सम्पत्ति तो देवताओं के पास भी थी। शरीर तो देवताओं का भी था और संसार में तो देवतायें भी थे, फिर क्या वो माया थी क्या? नहीं। माया कहा जाता है 5 विकारों को। विकार ही माया हैं और यह माया ही दु:ख देती है, बाकी धन-सम्पत्ति कोई दु:ख देने की चीज नहीं है। सम्पत्ति तो सुख का साधन है, परन्तु उस सम्पत्ति को भी इम्प्युअर, अपवित्र किसने बनाया है? 5 विकारों (माया) ने। तो माया रूपी विकारों के कारण हर चीज दु:ख का कारण बन गई है। अभी धन से भी दु:ख, शरीर से भी दु:ख, हर चीज से अभी दु:ख प्राप्त हो रहा है क्योंकि हर चीज में अभी माया प्रवेश हो गई है, इसलिये बाप कहते हैं अभी इस माया को निकालो तो फिर तुमको इसी शरीर से, सम्पत्ति से और संसार से सदा सुख मिलेगा, जैसे देवताओं को था।

तो माया से बचना माना ऐसे नहीं कि शरीर से ही निकल जाना है या हम संसार में ही नहीं आयें, ऐसे भी कई समझते हैं कि यह संसार ही माया है या कह देते हैं जगत मिथ्या है लेकिन जगत मिथ्या नहीं, जगत तो अनादि है, इसको मिथ्या बनाया गया है। विकारों के कारण मनुष्य दु:खी हुए हैं। अब इस संसार को पवित्र बनाना है। यह संसार पवित्र था, उस पवित्र संसार में देवता रहते थे, वह भी इसी संसार के मनुष्य थे। देवताओं की दुनिया कोई ऊपर थोड़ेही है। हम मनुष्य ही जब देवता थे तब उस संसार को स्वर्ग अथवा हेवन कहते थे। हम मनुष्य ही स्वर्गवासी थे यानि वह टाइम स्वर्ग का था। और हमारी जनरेशन स्वर्ग में चलती थी, तो इन सभी बातों को समझकर अभी माया को मिटाना है यानी विकारों को जीतना है क्योंकि यह धन भी अभी विकारी कर्म के हिसाब से होने के कारण उससे भी दु:ख होता है, शरीर भी विकारी खाते का होने के कारण उसमें रोग, अकाले मृत्यु होती रहती है जिससे दु:ख मिलता है। नहीं तो हमारे शरीर में कभी रोग नहीं था, कभी अकाले मृत्यु नहीं होता था क्योंकि पवित्रता (निर्विकारिता) के बल से बना हुआ था, अभी विकारों से बना हुआ है इसलिये इसमें दु:ख है। अभी इन दु:खों से निकालने और संसार को सुखी बनाने के लिए उसको (परमात्मा को) बुलाते हैं। तो अभी देखो बाप हमें ज्ञान का नेत्र (समझ) दे रहे हैं, उसे बुद्धि में धारण करना है। यह ज्ञान का तीसरा नेत्र हम ब्राह्मणों के पास है, देवताओं के पास नहीं है। पहले हम शुद्र थे, शुद्र माना विकारी, अभी विकारी से पवित्रता के मार्ग पर अपना पाँव रखा है। तो हम ब्राह्मण हो गये। ब्राह्मणों को ही तीसरी ऑख है और देवतायें हैं तो फिर प्रालब्ध है। देवताओं को फिर ज्ञान नेत्र की जरूरत नहीं है इसलिए जो भी अलंकार हैं शंख, चक्र, गदा, पदम आदि यह सब हम ब्राह्मणों के हैं, देवताओं के नहीं।

यह शंख भी ज्ञान का है, परन्तु भक्ति मार्ग में उन्होंने वह चीजें स्थूल रख दी हैं। गदा माना 5 विकारों के ऊपर हमने विजय पाई है। चक्कर है यह चार युगों का। हम पहले सो देवता थे फिर कैसे नीचे आये, अभी फिर बाप आया है ऊंचा उठाने के लिये। तो यह सारा चक्कर अभी हमने अपना पूरा किया है। तो यही है स्वदर्शन चक्र यानि स्व को अभी दर्शन अर्थात् साक्षात्कार हुआ है। कोई कहे यह पुराना कैसे हुआ? अरे! यह नियम है। समय पर पुराना होना ही है। जब पुराना हो तब नया बनाया जाए। तो यह सारी चीजें समझने की हैं। हर चीज का, हर बात का कैसा-कैसा नियम है इसलिये अभी हमको पुरूषार्थ करके ऊंचा उठना है, नया बनना है। बाकी ऐसे नहीं कह सकते कि जब बाप था तो हमको क्यों गिरने दिया? उसने गिरने थोड़ेही दिया, लेकिन अगर हम गिरे नहीं तो बाप फिर चढ़ाने कैसे आवे, गिरे हैं तभी तो वह आया है। उसका गायन भी है पतित को पावन करने वाला, अगर पतित ही न हों तो पावन करने वाला उसको कहें भी कैसे? तो पतित होना है फिर पावन होना है, फिर पावन से पतित होना है, यह सारा चक्कर है इसलिए इस चक्कर को भी समझना है और खुद को पतित से पावन बनाना है, पूज्यनीय बनना है तब ही हमारी भी महिमा है। तो बनने और बनाने वाले की महिमा गाई जाती है। इसमें बनने वाला और बनाने वाला दो चाहिए ना। ऐसे थोड़ेही बनने वाला भी खुद, बनाने वाला भी खुद। आत्मा सो परमात्मा, परमात्मा सो आत्मा.. ऐसे तो नहीं है ना। बनने वाले अलग और बनाने वाला अलग है इसलिए इन बातों में कभी मूंझना नहीं है, हमको बनना है, ऊंचा उठना है, पुरूषार्थ करना है। बाप आ करके हमको यथार्थ पुरूषार्थ क्या होता है, उसकी समझ देते हैं। ऊंच प्राप्ति का पुरूषार्थ कौन सा है, वह अभी सिखाते हैं, इतना टाइम हमको किसी ने वह पुरूषार्थ नहीं सिखलाया क्योंकि सिखलाने वाले खुद ही सब चक्कर में हैं ना। ऊंचा उठाने वाला भी अभी आया है और आ करके ऊंच उठने का पुरूषार्थ अभी बताते हैं। उसको हम जितना धारण करते हैं उतनी प्रालब्ध पाते हैं। तो यह सभी नॉलेज बुद्धि में है, उसके लिए हमको क्या मेहनत और क्या पुरूषार्थ करना है, उसका ध्यान रखना है। बाकी चक्र को तो अपने टाइम पर चलना ही है।

तो बाप जो अभी ऐसा ऊंच कार्य करने के लिये उपस्थित हुआ है, उससे पूरा-पूरा लाभ लेना है। बाकी क्राइस्ट, बुद्ध जिन्होंने भी आ करके कोई कार्य किय्, तो वो कार्य दूसरा है, वह हमारे उतरती कला के समय का है। अभी यह चढ़ती कला के समय का है तो समय को भी समझना है। यह समय है सब आत्माओं को वापस ले जाने का, ऊंचा ले जाने का। वह (धर्म स्थापक) तो आते ही द्वापरकाल से हैं और कलियुग को नीचे होना ही है। तो उन्हों को नीचे ही आना है, पावन से पतित ही बनना है इसलिए उनके लिये नहीं कहा जा सकता है कि वह पतितों को पावन करने वाले हैं। नहीं। यह एक ही है जो आ करके पतितों को पावन बनाते हैं अथवा सर्व आत्माओं को गति सद्गति में ले जाते हैं इसलिए एक की ही रेसपान्सिब्लिटी हो गई ना। कोई कितनी भी बड़ी (महान) आत्मा है वो पहले पवित्र आती है फिर उनको नीचे ही जाना है क्योंकि उनके चक्र का ऐसा टर्न है इसलिए नीचे ही आना है। अपने नियम अनुसार सबको अपना वो चक्र पार करना होता है। तो अभी टाइम है चढ़ने का और चढ़ाने वाला एक ही निमित्त है तो हमको अभी वह सौभाग्य बाप से लेना है। अच्छा।

अभी यहाँ आपकी बहुत इनकम हो रही है, एक से सौ गुणा, हजार गुणा अपनी कमाई जमा कर रहे हो। जो उत्साह से करता है तो उस उत्साह का भी मिलता है। जो लाचारी से करता है, तंग होकर मुश्किल से करता है या कोई दिखावे के लिए करता है तो उसे उसी हिसाब से मिलता है। कईयों के अन्दर रहता है दुनिया देखे हमने यह किया, वह किया... कई दान भी करते हैं तो दिखाऊ दान करते हैं कि सबको पता चले, तो उस दान की ताकत आधा तो निकल जाती है इसलिए गुप्त का बहुत महत्व है, उसमें ताकत बनती है, उसका हिसाब ज्यादा मिलता है और शो करने से उसका हिसाब कम पड़ जाता है। तो करने का भी ढंग है। सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी करने में भी हिसाब है। तो कैसे हम अपने कर्मो को श्रेष्ठ बनायें और किस तरह से करें जिसमें हमारा भाग्य ऊंचा बनें तो वो बनाने का भी ढंग चाहिए। अगर ऐसे अच्छे ढंग से चल रहे हैं तो जरूर ऊंची तकदीर बनती जा रही है। अच्छा !

बापदादा और माँ का मीठे-मीठे बहुत अच्छे और सपूत बच्चों प्रति यादप्यार और गुडमर्निंग।
वरदानः
बाप समान बेहद की वृत्ति रखने वाले मास्टर विश्व कल्याणकारी भव
बेहद की वृत्ति अर्थात् सर्व आत्माओं के प्रति कल्याण की वृत्ति रखना - यही मास्टर विश्वकल्याणकारी बनना है। सिर्फ अपने वा अपने हद के निमित्त बनी हुई आत्माओं के कल्याण अर्थ नहीं लेकिन सर्व के कल्याण की वृत्ति हो। जो अपनी उन्नति में, अपनी प्राप्ति में, अपने प्रति सन्तुष्टता में राजी होकर चलने वाले हैं, वह स्व-कल्याणी हैं। लेकिन जो बेहद की वृत्ति रख बेहद सेवा में बिजी रहते हैं उन्हें कहेंगे बाप समान मास्टर विश्व कल्याणकारी।
स्लोगनः
निंदा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ में समान रहने वाले ही योगी तू आत्मा हैं।