Saturday, February 17, 2018

17-02-18 Murli

17-02-2018 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

''मीठे बच्चे - तुम्हारी नज़र किसी भी देहधारी की तरफ नहीं जानी चाहिए, क्योंकि तुम्हें पढ़ाने वाला स्वयं निराकार ज्ञान सागर बाप है''
प्रश्न:
ऊंच पद के लिए कौन सी एक मेहनत तुम बच्चे गृहस्थ व्यवहार में रहते भी कर सकते हो?
उत्तर:
गृहस्थ व्यवहार में रहते सिर्फ ज्ञान कटारी चलाओ। स्वदर्शन चक्रधारी बनो और शंख ध्वनि करते रहो। चलते-फिरते बेहद के बाप को याद करो और उसी सुख में रहो तो ऊंच पद मिल जायेगा। यही मेहनत है।
प्रश्न:
योग से तुम्हें कौन सा डबल फ़ायदा होता है?
उत्तर:
एक तो इस समय कोई विकर्म नहीं होता है, दूसरा पास्ट के किये हुए विकर्म विनाश हो जाते हैं।
गीत:-
माता तू है सबकी भाग्य विधाता...  
ओम् शान्ति।
सतसंग वा कॉलेज आदि जो होते हैं वहाँ देखने में आता है - कौन पढ़ाते हैं। नज़र पड़ती है जिस्म पर। कॉलेज में कहेंगे फलाना प्रोफेसर पढ़ाते हैं। सतसंग में कहेंगे फलाना विद्वान सुनाते हैं। मनुष्य पर ही नज़र जाती है। यहाँ तुम्हारी नज़र किसी देहधारी पर नहीं जाती है। तुम्हारी बुद्धि में है कि निराकार परमपिता परमात्मा इस तन द्वारा सुनाते हैं। बुद्धि चली जाती है मात-पिता और बापदादा तरफ। बच्चे सुनाते हैं - तो कहेंगे ज्ञान सागर बाप द्वारा सुना हुआ सुनाते हैं। फ़र्क पड़ गया ना। सतसंगों में कुछ भी सुनते हैं तो समझते हैं फलाना यह वेद सुनाते हैं। मनुष्यों की मर्तबे पर, जाति-पांति पर दृष्टि जाती है। यह हिन्दू है, यह मुसलमान है, दृष्टि वहाँ चली जाती है। यहाँ तुम्हारी दृष्टि जाती है शिवबाबा तरफ। शिवबाबा पढ़ाते हैं। अभी बाप भविष्य नई दुनिया के लिए वर्सा देने आये हैं और कोई ऐसे कह न सके कि हे बच्चों तुमको स्वर्ग के लिए राजयोग सिखला रहे हैं। अब यह गीत भी सुना। गीत तो है पास्ट का। ऐसे जगत अम्बा थी। बरोबर उसने सौभाग्य बनाया, जिसके मन्दिर भी हैं। परन्तु वह कौन थी, कैसे आई, भाग्य कौनसा बनाया, कुछ भी नहीं जानते। तो इस पढ़ाई और उस पढ़ाई में रात-दिन का फ़र्क है। यहाँ तुम समझते हो ज्ञान सागर परमपिता परमात्मा ब्रह्मा मुख द्वारा पढ़ाते हैं। बाप आया हुआ है। भक्तों के पास भगवान को आना ही है। नहीं तो भक्त भगवान को क्यों याद करते हैं? सब भगवान हैं - यह तो रांग हो जाता है। वह सर्वव्यापी के ज्ञान वाले अपनी बात को सिद्ध करने लिए भी अपना 20 नाखूनों का जोर देते हैं। तुम्हारा समझाना अलग हो जाता है। बेहद के बाप से बच्चों को ही वर्सा मिलता है। सन्यासियों का है ही वैराग्य मार्ग, निवृत्ति मार्ग। उनसे कभी भी प्रापर्टी का हक मिल न सके। वह प्रापर्टी चाहते ही नहीं। तुम तो सदा सुख की प्रापर्टी चाहते हो। नर्क के धन दौलत में दु:ख है। भल धनवान हैं परन्तु चलन ऐसी गन्दी चलते हैं, पैसा उड़ाते रहते हैं। फिर बच्चे भूख मरते हैं। तो अपने को भी दु:खी, बच्चों को भी दु:खी करते हैं। यह है बेहद का बाप, वह बैठ बच्चों को समझाते हैं। वह तो भिन्न-भिन्न अनेक बाप हैं, जिनसे अल्पकाल के लिए वर्सा मिलता है। भल राजायें हैं वह भी हद के हो गये। हद का अल्पकाल का सुख है। यह बेहद का बाप अविनाशी सुख देने आते हैं। समझाते हैं भारतवासी जो डबल सिरताज थे स्वर्ग के मालिक थे, अब नर्क के मालिक बन पड़े हैं। नर्क में है दु:ख, बाकी ऐसे कोई नदियां आदि नहीं हैं जैसे रौरव नर्क, विषय वैतरणी नदी आदि के चित्र गरुड़ पुराण में दिखाते हैं। यह तो सज़ायें खानी होती हैं। तो वह रोचक बातें लिख दी हैं। आगे तो जो जिस अंग से बुरा काम करते थे तो वह अंग उनका काटा जाता था। बहुत कड़ी सजा मिलती थी। अब इतनी कड़ी सजा नहीं मिलती है। फांसी की सजा कोई कड़ी नहीं है। वह तो बहुत इज़ी है। मनुष्य आपघात भी बहुत खुशी से करते हैं। शिव पर देवताओं पर झट बलि चढ़ जाते हैं। तुम जानते हो आत्मा दु:खी होती है तो चाहती है एक शरीर छोड़ जाकर दूसरा ले लेवें। वह आपघात करने वाले ऐसे नहीं समझते हैं। वह तो यहाँ ही एक शरीर छोड़ फिर भी यहाँ ही गंदा जन्म ले लेते हैं। ज्ञान तो है नहीं, सिर्फ शरीर को खत्म कर देते हैं - दु:ख के कारण। फिर भी दु:खी जन्म ही पाते हैं। तुम तो जानते हो हम तो नई दुनिया के लायक बन रहे हैं। जीवघात करने वालों में भी वेराइटी होती है। जैसे कोई-कोई स्त्री पति के पिछाड़ी अपना शरीर होमती है। (सती हो जाती है) वह बात अलग है। समझते हैं हम पतिलोक में जायेंगी क्योंकि सुना हुआ है, बहुतों ने किया है। शास्त्रों में भी है कि पति लोक में जाती है। परन्तु वह पति तो कामी ठहरा। फिर भी इसी मृत्युलोक में ही आना पड़े। यहाँ तो ज्ञान चिता पर बैठने से स्वर्ग में चले जाते हैं।
अभी तुम बच्चे जानते हो कि यह जगत अम्बा, जगत पिता जो स्थापना अर्थ निमित्त बने हुए हैं, यही फिर स्वर्ग में पालन-कर्ता बनेंगे। मनुष्य तो जानते नहीं विष्णु कुल किसको कहा जाता है। विष्णु तो है सूक्ष्मवतनवासी, उनका फिर कुल कैसे हो सकता? अभी तुम जानते हो विष्णु के दो रूप लक्ष्मी-नारायण बन पालना करते हैं, राज्य करते हैं। यह है ज्ञान चिता। तुम योग लगाते हो उस एक पतियों के पति साथ। वह है शिवबाबा, वही पतियों का पति, पिताओं का पिता है। सब कुछ वह एक ही है। उसमें सर्व सम्बन्ध आ जाते हैं। बाप कहते हैं इस समय के जो भी चाचे काके आदि तुम्हारे हैं, वह सब तुमको दु:ख की राय बतायेंगे। उल्टे रास्ते की आसुरी मत ही देंगे। बेहद का बाप आकर बच्चों को सुल्टी मत देते हैं। समझो लौकिक बाप कहते हैं कॉलेज में पढ़कर बैरिस्टर आदि बनो। वह कोई उल्टी मत थोड़ेही है। शरीर निर्वाह अर्थ तो वह राइट है। वह पुरुषार्थ तो करना ही है। उनके साथ-साथ फिर भविष्य 21 जन्मों के शरीर निर्वाह अर्थ भी पुरुषार्थ करना है। पढ़ाई होती ही है शरीर निर्वाह के लिए। शास्त्रों की पढ़ाई भी है निवृत्ति मार्ग वालों के शरीर निर्वाह अर्थ। वह अपने शरीर निर्वाह अर्थ ही पढ़ते हैं। सन्यासी भी शरीर निर्वाह अर्थ कोई 50, कोई 100, कोई हजार भी कमाते हैं। एक ही कश्मीर का राजा मरा तो कितने पैसे मिल गये आर्य समाजियों आदि को। तो यह सब करते ही हैं पेट के लिए। सम्पत्ति बिगर तो सुख होता नहीं। धन है तो मोटरों आदि में घूमते हैं। आगे सन्यासी पैसे के लिए सन्यास नहीं करते थे, वह तो चले जाते थे जंगल में। इस दुनिया से तंग हो अपने को छुड़ाते हैं। परन्तु छूट नहीं सकते। बाकी पवित्र रहते हैं। पवित्रता के बल से भारत को थमाते हैं। यह भी भारत को सुख देते हैं। यह पवित्र नहीं बनते तो भारत टू मच वेश्यालय बन जाता। पवित्रता सिखलाने वाले एक यह निवृत्ति मार्ग वाले हैं, दूसरा है बाप। वह है निवृत्ति मार्ग वाली पवित्रता। यह है प्रवृत्ति मार्ग की पवित्रता। भारत में पवित्र प्रवृत्ति मार्ग था। हम देवी-देवतायें पवित्र थे। अब अपवित्र बन गये हैं। पूरा आधाकल्प 5 विकारों द्वारा हम अपवित्र बनते हैं। माया ने थोड़ा-थोड़ा करते पूरा ही अपवित्र, पतित बना दिया है। दुनिया में यह कोई भी मनुष्य नहीं जानते कि हम पावन से पतित कैसे बनते हैं। समझते भी हैं कि यह पतित दुनिया है। समझो किसी मकान की आयु 100 वर्ष है, तो कहेंगे 50 वर्ष नया, 50 वर्ष पुराना, आहिस्ते-आहिस्ते पुराना होता जाता है। इस सृष्टि का भी ऐसे है। एकदम नई दुनिया में सुख होता है फिर आधा के बाद पुरानी होती है। गाया भी जाता है सतयुग में अथाह सुख है। फिर पुरानी दुनिया होती है तो दु:ख शुरू होता है। रावण दु:ख देते हैं। पतित रावण ने किया है, जिसका बुत जलाते हैं। यह बड़ा दुश्मन है। कोई ने गवर्मेन्ट को अप्लाई किया कि रावण को नहीं जलाया जाए, बहुतों को दु:ख होता है। रावण को विद्वान बताते हैं। मिनिस्टर आदि कोई भी समझते नहीं हैं। अभी तुम जानते हो कि रावण का राज्य द्वापर से शुरू होता है। भारत में ही रावण को जलाते हैं। बाप समझाते हैं द्वापर से यह भक्ति, अज्ञान मार्ग शुरू होता है। ज्ञान से दिन, भक्ति से रात।
अब देखो जगत अम्बा का गीत गाते हैं। परन्तु समझते नहीं कि सौभाग्य विधाता कैसे है। कितना बड़ा मेला लगता है। परन्तु जगदम्बा है कौन, यह भी जानते नहीं। बंगाल में काली को भी बहुत मानते हैं, परन्तु जानते नहीं हैं कि काली और जगदम्बा में क्या फ़र्क है। जगदम्बा को गोरा दिखाते हैं, काली को काला बना दिया है। जगदम्बा ही लक्ष्मी बनती है तो गोरी है। फिर 84 जन्म लेते-लेते काली हो जाती है। तो मनुष्य कितने मूँझे हुए हैं। वास्तव में काली अथवा अम्बा है तो एक ही। कुछ भी नहीं जानते - इसको कहा जाता है अन्धश्रद्धा। अभी तुम बच्चे जानते हो जो पास्ट में जगत अम्बा थी - उसने भारत का भाग्य बनाया था। तुम भी भारत का सौभाग्य बना रहे हो। माताओं का ही मुख्य नाम है। सन्यासियों का भी माताओं को उद्धार करना है। यह भी नूँध है। परमपिता परमात्मा ने डायरेक्शन दिया है, इन्हों को ज्ञान बाण मारो। तुम बच्चियां भी सन्यासियों आदि से मिलती हो तो समझाती हो कि हमको ज्ञान सागर परमपिता परमात्मा पढ़ाते हैं। तुम हद के सन्यासी हो, हम हैं बेहद के। हमको बाप राजयोग सिखलाते ही तब हैं जबकि तुम्हारा हठयोग पूरा होना है। हठयोग और राजयोग दोनों इकट्ठे रह नहीं सकते। तो टाइम कोई अब जास्ती नहीं है, बहुत थोड़ा टाइम है। बाप कहते हैं बच्चे गृहस्थ व्यवहार में रहते कमलफूल समान बनो। ब्राह्मणों को ही कमलफूल समान रहना है। कुमारियां तो हैं ही पवित्र, कमलफूल समान। बाकी जो विकार में जाते हैं उनको कहते हैं पवित्र बनो। गृहस्थ व्यवहार में रहते कमल फूल समान बनो। हर एक स्वदर्शन चक्रधारी बनो। शंख बजाओ। ज्ञान कटारी चलाओ तो बेड़ा पार हो जायेगा। मेहनत है, मेहनत बिगर इतना ऊंचा पद पा नहीं सकते। चलते-फिरते उसी सुख में रहो। बाप को याद करो। जो बहुत सुख देते हैं उनकी याद रहती है ना। अब तुम्हें याद करना है बेहद के बाप को। उनका ही परिचय देना है। समझाना है बोलो, तुम राज-विद्या इस जन्म में पढ़कर बैरिस्टर आदि बनेंगे। अच्छा समझो, पढ़ते-पढ़ते अथवा इम्तहान पास करते तुम्हारी आयु पूरी हो जाये, शरीर छूट जाये तो पढ़ाई यहाँ ही खत्म हो जायेगी। कोई इम्तहान पास कर लण्डन गया, वहाँ मर पड़ा तो पढ़ाई खत्म हो जायेगी। वह है ही विनाशी पढ़ाई। यह है अविनाशी पढ़ाई। इसका कभी विनाश नहीं होता है। तुम जानते हो नई दुनिया में आकर हमको राज्य करना है। वह है अल्पकाल का सुख। सो भी जब नसीब मे हो। पता नहीं कितना समय चले। यहाँ तो सर्टेन है। इम्तहान पूरा हुआ और तुम जाकर 21 जन्म का राज्य-भाग्य लेंगे। हद के बाप, टीचर, गुरू से हद का ही वर्सा मिलता है। समझते हैं गुरू से शान्ति मिली। अरे यहाँ थोड़ेही शान्ति हो सकती है। आरगन्स से काम करते-करते थक जाते हैं तो आत्मा शरीर से डिटेच हो जाती है। बाप कहते हैं शान्ति तो तुम्हारा स्वधर्म है। यह आरगन्स हैं, काम नहीं करने चाहते हो तो चुप हो बैठ जाओ। हम अशरीरी हैं, बाप से योग लगाते हैं तो विकर्म विनाश हो जायें। भल कोई सन्यासी से तुमको शान्ति मिले परन्तु उससे विकर्म विनाश नहीं हो सकता। यहाँ बाप को याद करने से विकर्माजीत बनते जायेंगे। अच्छा वो शान्ति में बैठे हैं, करके विकर्म भी विनाश होंगे। डबल फ़ायदा होगा। पुराने विकर्म भी विनाश होते हैं। सिवाए इस योगबल के पुराने विकर्म किसी भी हालत में किसके विनाश हो नहीं सकते। प्राचीन योग भारत का ही गाया हुआ है। इससे ही जन्म-जन्मान्तर के विकर्म विनाश होते हैं और कोई उपाय है नहीं। अभी यह वृद्धि बन्द होनी है। गवर्मेन्ट भी चाहती है वृद्धि जास्ती न हो। हम तो वृद्धि इतनी कम करते हैं जो बहुत थोड़े रहेंगे, बाकी सब चले जायेंगे। मनुष्य समझते भी हैं कि विनाश होगा परन्तु लड़ाई को बन्द देख फिर समझते हैं पता नहीं होगा या नहीं। ठण्डे हो जाते हैं। बाप समझाते हैं - बच्चे समय बाकी थोड़ा है इसलिए ग़फलत मत करो। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) शरीर से डिटेच हो, अशरीरी बन सच्ची शान्ति का अनुभव करना है। बाप की याद से स्वयं को विकर्माजीत बनाना है।
2) अविनाशी प्रालब्ध बनाने के लिए अविनाशी पढ़ाई पर पूरा ध्यान देना है। उल्टी सब मतों को छोड़ एक बाप की सुल्टी मत पर चलना है।
वरदान:
हद की दीवारों को पार कर मंजिल के समीप पहुंचने वाले उपराम भव
किसी भी प्रकार की हद की दीवार को पार करने की निशानी है - पार किया, उपराम बना। उपराम स्थिति अर्थात् उड़ती कला। ऐसी उड़ती कला वाले कभी भी हद में लटकते वा अटकते नहीं, उन्हें मंजिल सदा समीप दिखाई देती है। वे उड़ता पंछी बन कर्म के इस कल्प वृक्ष की डाली पर आयेंगे। बेहद के समर्थ स्वरूप से कर्म किया और उड़ा। कर्म रूपी डाली के बंधन में फंसेंगे नहीं। सदा स्वतंत्र होंगे।
स्लोगन:
अनुभवों की अथॉरिटी बनो तो माया के भिन्न-भिन्न रॉयल रुपों से धोखा नहीं खायेंगे।