Sunday, February 4, 2018

05-02-18 प्रात:मुरली

05-02-2018 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

“मीठे बच्चे - इस समय सभी के सुख सम्पत्ति का देवाला रावण पांच विकारों ने निकाला है, तुम अभी रावण रूपी दुश्मन पर जीत पाकर जगतजीत बनते हो”
प्रश्न:
ड्रामा के किस राज़ को जानने के कारण तुम बच्चों के ख्यालात बड़े ऊंचे रहते हैं?
उत्तर:
तुम जानते हो ड्रामा अनुसार आटोमेटिक प्रभाव निकलता जायेगा। फिर भक्तों की भीड़ लगेगी उस समय सर्विस नहीं हो सकेगी। 2. जो बाबा के बच्चे दूसरे धर्मों में कनवर्ट हो गये हैं वो निकल आयेंगे इसलिए तुम्हारे ख्यालात बहुत ऊंचे रहते कि कहाँ से कोई निकले जो बच्चा बन बेहद बाप से अपना वर्सा ले। तुम्हें यह ख्याल नहीं रहता कि कोई निकले जो पैसा दे। लेकिन शिवबाबा पढ़ाते हैं यह निश्चय बैठे और बाबा से वर्सा लेने के लिए भागे।
गीत:-
ले लो दुआयें माँ बाप की...  
ओम् शान्ति।
सेवा को सर्विस भी कहते हैं। पहले मात-पिता सेवा करते हैं। अब देखो प्रैक्टिकल में कर रहे हैं ना। अभी से ही सभी कायदे कानून परमपिता परमात्मा आकर स्थापन करते हैं। तुम बच्चे आते हो, मम्मा बाबा कहते हो तो मम्मा बाबा भी तुम्हारी सेवा करते हैं। हद के माँ बाप भी बच्चों की सेवा करते हैं। माँ, बाप, गुरू, वह सब हैं लौकिक, यह है पारलौकिक। लौकिक को तो सब जानते हैं, बरोबर बाप जन्म देते हैं। टीचर पढ़ाते हैं अर्थात् शिक्षा देते हैं। फिर वानप्रस्थ अवस्था में गुरू किया जाता है। यह रसम-रिवाज़ कब से शुरू हुई? अभी से ही यह आरम्भ होती है। इस समय ही सतगुरू आते हैं, समझाते हैं मैं तुम्हारा बाप भी हूँ, टीचर भी हूँ, सतगुरू भी हूँ। बाप के तो बच्चे बने हो। टीचर रूप में इनसे शिक्षा पा रहे हो। अन्त में सतगुरू बन तुमको सचखण्ड में ले जायेंगे। तीनों काम प्रैक्टिकल में करते हैं। तुम बच्चे मात-पिता कहते हो तो बाप भी स्वीकार करते हैं। यह तो जानते हैं सभी बच्चे एक समान सपूत नहीं हो सकते हैं। यहाँ भी बेहद का बाप कहते हैं - सब बच्चे सपूत नहीं हैं। यह तो तुम भी जानते हो। अभी है रावण राज्य। यह कोई विद्वान, पण्डित आदि नहीं जानते हैं। जब कोई आते हैं तो पहले तो उनसे पूछना है तुम क्या चाहते हो? फिर कोई शान्ति चाहते हैं इसलिए गुरू ढूंढते हैं। सतयुग में तो कोई गुरू आदि नहीं ढूँढते क्योंकि वहाँ दु:खी नहीं हैं। वहाँ कोई अप्राप्त वस्तु नहीं है। यहाँ तो कोई न कोई वस्तु की लालसा रख गुरू के पास जाते हैं। कोई का सुनेंगे कि उनकी मनोकामना पूरी हुई तो खुद भी उनके पिछाड़ी में जायेंगे। सन्यासी पवित्र बनते हैं तो उन्हों की महिमा तो बढ़नी ही है। बहुत शिष्य बन जाते हैं। विवेक भी कहता है जो पवित्र बनते हैं, उनकी महिमा जरूर बाप को करानी है। तुम पवित्र बनते हो तो तुम्हारी कितनी महिमा होती है। तुम्हारे द्वारा मनुष्यों का 21 जन्मों के लिए कल्याण हो जाता है। सर्व मनोकामनायें 21 जन्मों के लिए पूरी हो जाती हैं। यह भी तुम जानते हो, दुनिया में यह भी कोई नहीं जानते हैं कि परमात्मा कब आते हैं, जगत अम्बा कौन है, जिस द्वारा हमारी सभी मनोकामनायें पूरी हो जाती हैं। अब सब घोर अन्धियारे में हैं। यथा राजा रानी तथा प्रजा.... पहले कम अन्धियारा होता है फिर कलियुग में घोर अन्धियारा होता है। माया के राज्य को घोर अन्धियारा कहा जाता है। बाप कहते हैं भारत का बड़े ते बड़ा दुश्मन भी माया रूपी 5 विकार हैं। तुम जानते हो इस माया रावण ने सीताओं को हरण किया अर्थात् अपनी जंजीरों में कैद किया। बाप आते हैं इस बड़े ते बड़े दुश्मन से लिबरेट करने। यह भी कोई को पता नहीं कि भारत जो इतना मालामाल था, उनको इतना कंगाल किसने बनाया? यही रावण बड़ा दुश्मन है। इनकी प्रवेशता के कारण भारत का यह हाल हो गया है। कहा जाता है ना तुम्हारे में क्रोध का भूत है। परन्तु मनुष्य समझते नहीं हैं कि 5 विकारों को भूत कहा जाता है। यह भूत अर्थात् रावण ही सबसे बड़ा दुश्मन है। ऐसे नहीं कि मुसलमानों वा क्रिश्चियन ने भारत को कंगाल बनाया। नहीं, सबके सुख सम्पत्ति का देवाला इसी रावण ने निकाला है। यह बात कोई नहीं जानते हैं। अब सन्यास धर्म को 1500 वर्ष हुए हैं। उन्हों की संख्या बहुत वृद्धि को पाई हुई है। वृद्धि को पाते-पाते अभी आकर जड़जड़ीभूत अवस्था को पहुँचे हैं। तुम्हारा तो अब सतोप्रधान नया झाड़ है।
तुम अभी रावण के साथ युद्ध कर रहे हो। गीता में रावण का नाम नहीं है। उन्होंने फिर हिंसक युद्ध दिखा दी है। बाप कहते हैं तुम इन 5 विकार रूपी रावण पर जीत पाने से जगतजीत बनेंगे। अन्य सभी धर्मों को तो वापिस जाना है क्योंकि सतयुग में तो होगा ही एक धर्म, एक राज्य। सो जिन्होंने कल्प पहले लिया था, जो सूर्यवंशी बने थे वही सतोप्रधान नम्बरवन राज्य करेंगे। सतयुग में था ही एक धर्म। फिर पुनर्जन्म लेते-लेते अभी तो बहुत वृद्धि हो गई है। जैसे अन्य धर्मों में भी अनेक प्रकार की वृद्धि हो गई है। वैसे इसमें भी ब्रह्म समाजी, आर्य समाजी, सन्यासी आदि कितने हैं, वन्डर है। हैं तो सभी भारतवासी, एक आदि सनातन देवी-देवता धर्म के ना। सिजरा तो ऊपर से वही चला आता है ना। भारतखण्ड है सचखण्ड, जहाँ बाप आकर देवी-देवता धर्म में ट्रांसफर करते हैं। यह तुम जानते हो। पहले 7 रोज़ भट्ठी में रख शूद्र से ब्राह्मण बनाना पड़ता है। सन्यासियों को तो वैराग्य आता है, जो जंगल में चले जाते हैं। उन्हों का रास्ता ही अलग है। घर-बार छोड़ जाते हैं। उन्हों को कोई तकलीफ नहीं है। हाँ, मन्सा में तो संकल्प आयेंगे। काम विकार से तो छूट ही जाते हैं। बाकी क्रोध आता है, उनमें भी नम्बरवार तो होते हैं ना। कोई उत्तम, कोई मध्यम, कोई कनिष्ट, कोई तो एकदम डर्टी भी होते हैं। सतयुग में भी भल सुखी तो सब होते हैं परन्तु नम्बरवार मर्तबा तो है ना। सूर्यवंशी राजा रानी, प्रजा, चन्द्रवंशी राजा रानी, प्रजा..... उत्तम, मध्यम, कनिष्ट तो होते हैं। यह सभी धर्मों में होते हैं। तो बाप सभी राज़ बैठ समझाते हैं। इस मार्ग में डिफीकल्टी बहुत है, सन्यास मार्ग में इतनी नहीं है। उन्हों को तो वैराग्य आया, सन्यास लिया खलास। कोई-कोई फेल होते हैं। बाकी जो पक्के होते हैं उन्हों का वापिस आना मुश्किल है। यहाँ तो यह है गृहस्थ व्यवहार में रहते पवित्र रहना। बाप समझाते हैं बहादुर वह जो दोनों इकट्ठे रहो और बीच में ज्ञान योग की तलवार हो। ऐसे एक कहानी भी है कि उसने कहा कि घड़ा भल सिर पर रखो परन्तु तेरा अंग मेरे अंग से न लगे अर्थात् विकार की भावना न हो। उन्होंने फिर शरीर समझ लिया है। बात सारी विकार की है अर्थात् नंगन नहीं होना है। काम अग्नि में जलना नहीं है। बड़ी मंजिल है तो प्राप्ति भी बहुत बड़ी है। सन्यासी पवित्र बनते हैं तो उन्हों को भी कितनी प्राप्ति है। बड़े-बड़े महामण्डलेश्वर बन बैठे हैं, महलों में रहते हैं। बहुत लोग जाकर पैसा रखते हैं। चरण धोकर पीते हैं। बहुत महिमा होती है। परन्तु नम्बरवन महिमा है ईश्वर की। वही स्वर्ग का रचयिता है। वहाँ माया का नाम निशान नहीं रहता। सन्यासी भी यह नहीं समझते कि माया 5 विकार हैं, सिर्फ पवित्र रहते हैं। उन्हों का ड्रामा में यही पार्ट है। उन्हों का है ही हठयोग सन्यास। तुम्हारा है राजयोग सन्यास। वह राजयोग तो सिखला न सके। वह है शंकराचार्य, यह है शिवाचार्य। तुम भी परिचय देते हो हमको भगवान आकर पढ़ाते हैं। वह तो जरूर स्वर्ग का मालिक बनायेगा। नर्क का तो नहीं बनायेंगे। वह रचता ही स्वर्ग का है। तो गृहस्थ में रहकर पवित्र रहना - इसमें ही मेहनत है। कन्याओं को शादी बिगर रहने नहीं देते हैं। आगे विकार के लिए शादी करते थे। अब विकारी शादी कैन्सिल कर ज्ञान चिता पर बैठ पवित्र जोड़ा बनते हैं। तो अपनी जांच करनी होती है कि माया कहाँ चलायमान तो नहीं करती है? मन में तूफान तो नहीं आते हैं? भल मन में संकल्प आते हो परन्तु कर्मेन्द्रियों से विकर्म कभी नहीं करना। भाई-बहन समझने से, ज्ञान चिता पर रहने से काम अग्नि नहीं लगेगी। अगर आग लगी तो अधोगति को पा लेंगे। यूँ तो सारी दुनिया भाई-बहन है। परन्तु जब बाप आते हैं तो हम उनके बनते हैं। अभी तुम प्रैक्टिकल में ब्रह्मा मुख वंशावली हो, तुम्हारा यादगार भी यहाँ है। अधरकुमारी का मन्दिर भी है ना। जो काम चिता से उतर ज्ञान चिता पर बैठते हैं - उनको अधर कुमारी कहा जाता है। तुम सन्यासियों को भी समझा सकते हो। बाकी कोई से फालतू माथा नहीं मारना चाहिए। पात्र जिज्ञासु होगा, वह तो अकेला आकर प्रेम से समझेगा। कई हंसी उड़ाने के लिए भी आते हैं इसलिए नब्ज देख ऐसी दवाई देनी चाहिए। बाप ने कहा है पात्र को दान देना है।
आजकल दुनिया बहुत खराब है। सन्यासी लोग तो कफनी पहन लेते हैं और जाकर अलग रहते हैं। कुछ न कुछ मिल जाता है। मजे से खाते पीते रहते हैं। आजकल उन्हों का प्रभाव है ना। तुम्हारे में भी जो अच्छी सर्विस करते हैं तो उन्हों की महिमा से औरों की भी महिमा निकल पड़ती है। जो बच्चे अच्छी सर्विस करते हैं तो सब कहेंगे इनके माँ बाप भी ऐसे होंगे। मेहनत जरूर करनी है। सन्यासियों को तो घर बैठे वैराग्य आ जाता है तो हरिद्वार चले जाते। वहाँ कोई गुरू कर लेते। यहाँ की रसम ही निराली है। इनका कहाँ वर्णन है ही नहीं। गीता को ही झूठा बना दिया है। यह पहली बात खुल जाये तो सब बी.के. बहुत नामीग्रामी हो जाओ। सब तुम्हारे पर सदके जायें (बलिहार जायें)। प्रभाव निकलना तो है ना। अभी तो तुम्हारा बहुत सामना करते हैं। पहले तो घर के ही दुश्मन बनते हैं। इस बाबा के भी कितने दुश्मन बनें। कृष्ण के लिए भी कहते हैं ना - भगाता था। कितने कलंक लगाये हैं। यह भी ड्रामा में नूँध है। ड्रामा अनुसार आटोमेटिकली प्रभाव निकलता जायेगा। फिर भक्तों की भीड़ आकर होगी। परन्तु भीड़ में फिर सर्विस हो नहीं सकेगी। सन्यासियों के पास भीड़ होती है तो वह खुश होते हैं। यहाँ तुम जानते हो कोटो में कोई निकलेगा। सन्यासी तो यही सोचेंगे कि इनसे कोई निकलेंगे जो पैसे देंगे। तुम्हारा ख्याल चलता है कि इनसे कोई निकले जो बच्चा बन वर्सा लेवे। तो कितना फ़र्क है। तुम भाषण करते हो तो जो अपने बच्चे और धर्मों में कनवर्ट हो गये हैं वह निकलेंगे। कोई आर्य समाज से, कोई कहाँ से निकल आते हैं। तो जब फिर लोग सुनते हैं यह हमारे धर्म का ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियों के पास भाग गया है तो समझते हैं हमारी नाक कट गई। इसमें समझाने की बड़ी युक्ति चाहिए। पहले तो बाप का परिचय देना है। भल कोई लिखकर भी देते हैं। बरोबर शिवबाबा पढ़ाते हैं परन्तु उसमें खुश नहीं होना है। निश्चय बिल्कुल नहीं बैठा है। भल कई बच्चे पत्र भी लिखते हैं। परन्तु बाबा लिख देते हैं - तुमको निश्चय बिल्कुल नहीं है। निश्चय बैठे - मोस्ट बिलवेड बाप से वर्सा मिलता है तो एक सेकेण्ड भी ठहरे नहीं। विवेक कहता है कि गरीब झट भागेंगे। साहूकार कोई बिरला निकलेगा। साधारण कुछ निकलेंगे। कोई भी आये बोलो यह राजयोग की पाठशाला है। जैसे डॉक्टरी योग वैसे यह राजयोग है, जिससे राजाओं का राजा बनना है। हमारा एम आब्जेक्ट है ही मनुष्य से देवता बनना। अच्छा।
बापदादा का मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार यादप्यार। दिल पर वह चढ़ते हैं जो पुरुषार्थ कर आप समान बनाते हैं। बाकी बाप सभी को प्यार तो करेंगे ही। अच्छा-रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) कर्मेन्द्रियों से कोई भी विकर्म नहीं करना है। ज्ञान और योगबल से मन के तूफानों पर विजय प्राप्त करनी है।
2) सेवा ऐसी करनी है जिससे मात-पिता का नाम बाला हो। सबकी दुआयें मिलती रहें।
वरदान:
दिव्य बुद्धि के बल द्वारा परमात्म टचिंग का अनुभव करने वाला मास्टर सर्वशक्तिमान भव !
दिव्य बुद्धि को बुद्धिबल कहा जाता है इस बुद्धिबल द्वारा ही बाप से सर्वशक्तियां कैच कर मास्टर सर्वशक्तिमान बनते हो। जैसे साइंस बुद्धिबल है लेकिन वह संसारी बुद्धि है इसलिए इस संसार के प्रति, प्रकृति के प्रति ही सोच सकते हैं। आपके पास दिव्य बुद्धि का बल है जो परमात्म प्राप्ति की अनुभूति कराता है। दिव्य बुद्धि द्वारा हर कर्म में परमात्म प्योर टचिंग का अनुभव कर सफलता का अनुभव कर सकते हो। दिव्य बुद्धि के बल से माया के वार को हार खिला सकते हो।
स्लोगन:
मास्टर ज्ञान सूर्य बन सर्व को ज्ञान की लाइट माइट देने वाले ही सच्चे सेवाधारी हैं।