Saturday, February 3, 2018

04-02-18 प्रात:मुरली

04-02-18 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ''अव्यक्त-बापदादा'' रिवाइज: 27-04-83 मधुबन

“दृष्टि-वृत्ति परिवर्तन करने की युक्तियाँ”
आज बापदादा सर्व पुरूषार्थियों का संगठन देख रहे हैं। इसी पुरूषार्थी शब्द में सारा ज्ञान समाया हुआ है। पुरूषार्थी अर्थात् पुरूष प्लस रथी। किसका रथी है? किसका पुरूष है? इस प्रकृति का मालिक अर्थात् रथ का रथी। एक ही शब्द के अर्थ स्वरूप में स्थित हो जाओ तो क्या होगा? सर्व कमजोरियों से सहज पार हो जायेंगे। पुरूष प्रकृति के अधिकारी हैं न कि अधीन हैं। रथी रथ को चलाने वाला है, न कि रथ के अधीन हो चलने वाला। अधिकारी सदा सर्वशक्तिवान बाप की सर्वशक्तियों के अधिकारी अर्थात् वर्से के अधिकारी वा हकदार हैं। सर्वशक्तियाँ बाप की प्रापर्टी हैं और प्रापर्टी का अधिकारी हरेक बच्चा है। यह सर्व शक्तियों का राज्य भाग्य बापदादा सभी को जन्म-सिद्ध अधिकार के रूप में देते हैं। जन्मते ही यह स्वराज्य सर्व शक्तियों का, अधिकारी स्वरूप के स्मृति का तिलक और बाप के स्नेह में समाये हुए स्वरूप के रूप में दिलतख्त, सभी को जन्म लेते ही दिया है। जन्मते ही विश्व कल्याण के सेवा का ताज हर बच्चे को दिया है। तो जन्म के अधिकार का तख्त, तिलक, ताज और राज्य सबको प्राप्त है ना! ऐसे चारों ही प्राप्तियों की प्राप्ति स्वरूप आत्मायें कमजोर हो सकती हैं? क्या यह चार प्राप्तियाँ सम्भाल नहीं सकते हैं? कभी तिलक मिट जाता, कभी तख्त छूट जाता, कभी ताज के बदले बोझ उठा लेते। व्यर्थ कखपन की टोकरी उठा लेते। नाम स्वराज्य है लेकिन स्वयं ही राजा के बदले अधीन प्रजा बन जाते। ऐसा खेल क्यों करते हो? अगर ऐसा ही खेल करते रहेंगे तो सदा के राज्य भाग्य के अधिकार के संस्कार अविनाशी कब बनेंगे? अगर इसी खेल में चलते रहे तो प्राप्ति क्या होगी! जो अपने आदि संस्कार अविनाशी नहीं बना सकते वह आदिकाल के राज्य अधिकारी कैसे बनेंगे। अगर बहुतकाल के योद्धेपन के ही संस्कार रहे अर्थात् युद्ध करते-करते समय बिताया, आज जीत कल हार। अभी-अभी जीत अभी-अभी हार। सदा के विजयीपन के संस्कार नहीं तो इसको क्षत्रिय कहा जायेगा वा ब्राह्मण? ब्राह्मण सो देवता बनते हैं। क्षत्रिय तो फिर क्षत्रिय ही जाकर बनेगा। देवता की निशानी और क्षत्रिय की निशानी में देखो अन्तर है। यादगार चित्रों में उनको कमान दिखाया है, उनको मुरली दिखाई है। मुरली वाले अर्थात् मास्टर मुरलीधर बन विकारों रूपी सांप को विषैले बनने के बजाए विष समाप्त कर शैया बना दी। कहाँ विष वाला सांप और कहाँ शैया! इतना परिवर्तन किससे किया? मुरली से। ऐसे परिवर्तन करने वाले को ही विजयी ब्राह्मण कहा जाता है। तो अपने से पूछो मै कौन?

सभी ने अपनी-अपनी कमज़ोरियों को सच्चाई से स्पष्ट किया है। उस सच्चाई की मार्क्स तो मिल जायेंगी लेकिन बापदादा देख रहे थे कि अभी तक जबकि अपने संस्कारों को परिवर्तन करने की शक्ति नहीं आई है, विश्व परिवर्तक कब बनेंगे? अभी दृष्टि परिवर्तन, वृत्ति परिवर्तन यह अविनाशी कब तक बनेंगे! आप दृष्टा हो, दृष्टि द्वारा देखने वाले दृष्टा, दृष्टि क्यों विचलित करते? दिव्य नेत्र से देखते हो वा इस चमड़ी के नेत्रों से देखते हो? दिव्य नेत्र से सदा स्वत: ही दिव्य स्वरूप ही दिखाई देगा। चमड़े की आखें चमड़े को देखती। चमड़ी को देखना, चमड़ी का सोचना यह किसका काम है! फरिश्तों का? ब्राह्मणों का? स्वराज्य अधिकारियों का? तो ब्राह्मण हो या कौन हो? नाम बोलें क्या?

सदैव हरेक नारी शरीरधारी आत्मा को शक्ति रूप, जगत माता का रूप, देवी का रूप देखना - यह है दिव्य नेत्र से देखना। कुमारी है, माता है, बहन है, सेवाधारी निमित्त शिक्षक है, लेकिन है कौन? शक्ति रूप। बहन भाई के सम्बन्ध में भी कभी-कभी वृत्ति और दृष्टि चंचल हो जाती है इसलिए सदा शक्ति रूप हैं, शिव शक्ति हैं। शक्ति के आगे अगर कोई आसुरी वृत्ति से आते तो उनका क्या हाल होता है, वह तो जानते हो ना। हमारी टीचर नहीं शिव शक्ति है। ईश्वरीय बहन है, इससे भी ऊपर शिव शक्ति रूप देखो। मातायें वा बहनें भी सदा अपने शिव शक्ति स्वरूप में स्थित रहें। मेरा विशेष भाई, विशेष स्टूडेन्ट नहीं। वह शिव शक्ति है और आप महावीर हो। लंका को जलाने वाले पहले स्वयं के अन्दर रावण वंश को जलाना है। महावीर की विशेषता क्या दिखाते हैं? वह सदा दिल में क्या दिखाता है? एक राम दूसरा न कोई। चित्र देखा है ना। तो हर भाई महावीर है, हर बहन शक्ति है। महावीर भी राम का है, शक्ति भी शिव की है। किसी भी देहधारी को देख सदा मस्तक के तरफ आत्मा को देखो। बात आत्मा से करनी है वा शरीर से? कार्य व्यवहार में आत्मा कार्य करता है वा शरीर? सदा हर सेकेण्ड शरीर में आत्मा को देखो। नज़र ही मस्तक मणी पर जानी चाहिए। तो क्या होगा? आत्मा, आत्मा को देखते स्वत: ही आत्म-अभिमानी बन जायेंगे। है तो यह पहला पाठ ना! पहला पाठ ही पक्का नहीं करेंगे, अल्फ को पक्का नहीं करेंगे तो बे की बादशाही कैसे मिलेगी। सिर्फ एक बात की सदा सावधानी रखो। जो भी करना है श्रेष्ठ कर्म वा श्रेष्ठ बनना है। तो हर बात में दृढ़ संकल्प वाले बनो। कुछ भी सहन करना पड़े, सामना करना पड़े लेकिन श्रेष्ठ कर्म वा श्रेष्ठ परिवर्तन करना ही है। इसमें पुरूषार्थी शब्द को अलबेले रूप में यूज़ नहीं करो। पुरूषार्थी हैं, चल रहे हैं, कर रहे हैं, करना तो है, यह अलबेलेपन की भाषा है। उसी घड़ी पुरूषार्थी शब्द को अलबेले रूप में यूज़ नहीं करो। पुरूषार्थी हैं, चल रहे हैं, कर रहे हैं, करना तो है, यह अलबेलेपन की भाषा है। उसी घड़ी पुरूषार्थी शब्द के अर्थ स्वरूप में स्थित हो जाओ। पुरूष हूँ, प्रकृति धोखा दे नहीं सकती। यह सब प्रकार की कमजोरियाँ अलबेलेपन की निशानियां हैं। महावीर तो पहाड़ को भी सेकेण्ड में हथेली पर रख उड़ने वाला है अर्थात् पहाड़ को भी पानी के समान हल्का बनाने वाला है। छोटी-छोटी परिस्थितियाँ क्या बात हैं! फिर तो ऐसे महावीर को कहेंगे चींटी से घबराने वाले। क्या करें, हो जाता है। यह महावीर के बोल हैं? समझदार यह नहीं कहेंगे कि क्या करें चोर आ जाता है। समझदार बार-बार धोखा नहीं खाते। अलबेले बार-बार धोखा खाते हैं। सेफ्टी के साधन होते हुए अगर कार्य में नहीं लगाते तो उसको क्या कहेंगे? जानता हूँ कि नहीं होना चाहिए लेकिन हो रहा है, इसको कौन सी समझदारी कहेंगे!

दृढ़ संकल्प वाले बनो। परिवर्तन करना ही है, कल भी नहीं, आज। आज भी नहीं अभी। इसको कहा जाता है महावीर। राम के आज्ञाकारी। आज तो मिलने का दिन था फिर भी बच्चों ने मेहनत की है तो मेहनत का फल रेसपान्ड देना पड़ा। लेकिन इन कमजोरियों को साथ ले जाना है? दी हुई चीज़ फिर वापिस तो नहीं लेनी है ना! जबरदस्ती आ जावे तो भी आने नहीं देना। दुश्मन को आने दिया जाता है क्या? अटेन्शन, चेकिंग यह डबल लाक, याद और सेवा - यह दूसरा डबल लाक सबके पास है ना। तो सदा यह डबल लाक लगा रहे। दोनों तरफ लाक लगाना। समझा! एक तरफ नहीं लगाना। खातिरी तो स्थूल सूक्ष्म बहुत हुई है। डबल खातिरी हुई है ना। जैसे दीदी दादी वा निमित्त बनी हुई आत्माओं ने दिल से खातिरी की है तो उसके रिटर्न में सब दीदी दादी को खातिरी देकर जाना कि हम अभी से सदा के विजयी रहेंगे। सिर्फ मुख से नहीं बोलना, मन से बोलना। फिर एक मास के बाद इन फोटो वालों को देखेंगे कि क्या कर रहे हैं। किससे भी छिपाओ लेकिन बाप से तो छिपा नहीं सकेंगे। अच्छा!

सदा दृढ़ सकंल्प द्वारा सोचा और किया दोनों को समान बनाने वाले, सदा दिव्य नेत्र द्वारा आत्मिक रूप को देखने वाले, जहाँ देखें वहाँ आत्मा ही आत्मा देखें, ऐसे अर्थ स्वरूप पुरूषार्थी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

अव्यक्त महावाक्य

"बाप समान निराकारी, निरहंकारी और निर्विकारी बनो”

ब्रह्मा बाप के लास्ट यह तीनों शब्द याद रखो - निराकारी, निरहंकारी और निर्विकारी। संकल्प में सदा निराकारी, सर्व से न्यारे और बाप के प्यारे, वाणी में सदा निरंहकारी अर्थात् सदा रुहानी मधुरता और निर्माणता सम्पन्न और कर्म में हर कर्मेन्द्रिय द्वारा निर्विकारी अर्थात् प्युरिटी की पर्सनैलिटी वाले बनो। अभ्यास करो - मैं निराकार आत्मा साकार आधार से बोल रहा हूँ। साकार में भी निराकार स्थिति स्मृति में रहे - इसको कहते हैं निराकार सो साकार द्वारा वाणी व कर्म में आना। असली स्वरूप निराकार है, साकार आधार है। यह डबल स्मृति ''निराकार सो साकार'' शक्तिशाली स्थिति है।

अपने निराकारी वास्तविक स्वरूप को स्मृति में रखो तो उस स्वरूप के असली गुण शक्तियाँ स्वत: ही इमर्ज होंगे। संगमयुग पर निराकार बाप समान कर्मातीत, निराकारी स्थिति का अनुभव करो फिर भविष्य 21 जन्म ब्रह्मा बाप समान सर्वगुण सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी श्रेष्ठ जीवन का समान अनुभव करते रहेंगे। ''बालक सो मालिक हूँ'' - यह स्मृति सदा निरहंकारी, निराकारी स्थिति का अनुभव कराती है। बालक बनना अर्थात् हद के जीवन का परिवर्तन होना। जब ब्राह्मण बने तो ब्राह्मणपन की जीवन का पहला सहज ते सहज पाठ पढ़ा - बच्चों ने कहा ''बाबा'' और बाप ने कहा ''बच्चा अर्थात् बालक''। इस एक शब्द का पाठ नॉलेजफुल बना देता है।

सेवा में निमित्त भाव ही सेवा की सफलता का आधार है। निराकारी, निर्विकारी और निरहंकारी - यह तीनों विशेषतायें निमित्त भाव से स्वत: ही आती हैं। निमित्त भाव नहीं तो अनेक प्रकार का मैं-पन, मेरा-पन सेवा को ढीला कर देता है इसलिए न मैं न मेरा। एक शब्द याद रखना कि मैं निमित्त हूँ। निमित्त बनने से ही निराकारी, निरंहकारी और नम्रचित, नि:संकल्प अवस्था में रह सकते हैं। जैसे निमित्त बनने से निराकारी, निरंहकारी, निरसंकल्प स्थिति होती है वैसे ही मैं मैं आने से मगरूरी, मुरझाइस, मायूसी आती है। उसकी फिर अन्त में यही रिजल्ट होती है कि चलते-चलते जीते हुए भी मर जाते हैं इसलिए इस मुख्य शिक्षा को हमेशा साथ रखना कि मैं निमित्त हूँ। निमित्त बनने से कोई भी अंहकार उत्पन्न नहीं होगा। मतभेद के चक्र में भी नहीं आयेंगे।

जितना निराकारी अवस्था में होंगे उतना निर्भय होंगे क्योंकि भय शरीर के भान में होता है। तो निर्भयता के गुण को धारण करने के लिए निराकारी बनो। जितना निराकारी और न्यारी स्थिति में रहेंगे उतना योग में बिन्दु रूप स्थिति का अनुभव करेंगे और चलते-फिरते अव्यक्त स्थिति में रहेंगे। जैसे स्थूल शरीर के हाथ-पांव डायरेक्शन प्रमाण चलते रहते हैं वैसे एक सेकेण्ड में साकारी से निराकारी अर्थात् अपने असली निराकारी स्वरूप में स्थित होने का अभ्यास करो तो अहंकार नहीं आयेगा। अहंकार अलंकारहीन बना देता है। जो निरहंकारी और निराकारी फिर अलंकारी स्थिति में स्थित रहते हैं वह सर्व आत्माओं के कल्याणकारी बन सकते हैं और जो सर्व के कल्याणकारी बनते हैं वही विश्व के राज्य अधिकारी बनते हैं।

साक्षात्कारमूर्त तब बनेंगे जब आकार में होते निराकारी अवस्था में होंगे। जैसे अनेक जन्म अपने देह के स्वरूप की स्मृति नेचुरल रही है वैसे ही अपने असली स्वरूप की स्मृति का अनुभव भी बहुतकाल का चाहिए। जब यह पहला पाठ कम्पलीट हो, आत्म-अभिमानी स्थिति में रहो तब सर्व आत्माओं को साक्षात्कार कराने के निमित्त बनेंगे। एक है निराकारी सोल कान्सेस वा आत्म-अभिमानी बनने का निशाना और दूसरी है निर्विकारी स्टेज जिसमें मन्सा की भी निर्विकारी-पन की स्टेज बनानी पड़ती है। जैसे सारा दिन योगी और पवित्र बनने का पुरुषार्थ करते हो ऐसे निर्विकारी और निराकारीपन का निशाना सामने हो तब फरिश्ता वा कर्मातीत स्टेज बनेंगी। फिर कोई भी इमप्युरिटी अर्थात् पांच तत्वों की आकर्षण आकर्षित नहीं करेगी। अभी-अभी आर्डर हो अपने सम्पूर्ण निराकारी, निरहंकारी, निर्विकारी स्टेज पर स्थित हो जाओ। तेरा, मेरा, मान-शान का जरा भी अंश न हो। अंश भी हुआ तो वंश आ जायेगा इसलिए संकल्प में भी कोई विकार का अंश ना हो तब यह तीनों स्टेज आयेंगी फिर उस प्रभाव से जो वारिस वा प्रजा निकलनी होगी वह फटाफट निकलेगी, क्वीक सर्विस दिखाई देगी।

अब अपने निराकारी घर जाना है तो जैसा देश वैसा अपना वेष बनाना है। तो अब विशेष पुरुषार्थ यही होना चाहिए कि वापिस जाना है और सबको ले जाना है। इस स्मृति से स्वत: ही सर्व-सम्बन्ध, सर्व प्रकृति के आकर्षण से उपराम अर्थात् साक्षी बन जायेंगे। साक्षी बनने से सहज ही बाप के साथी, बाप-समान बन जायेंगे। बीच-बीच में समय निकालकर इस देहभान से न्यारे निराकारी आत्मा स्वरूप में स्थित होने का अभ्यास करो, कोई भी कार्य करो, कार्य करते भी यह अभ्यास करो कि मैं निराकार आत्मा इस साकार कर्मेन्द्रियों के आधार से कर्म करा रही हूँ। निराकारी स्थिति करावनहार स्थिति है, कर्मेन्द्रियां करनहार हैं, आत्मा करावनहार है। तो निराकारी आत्म स्थिति से निराकारी बाप स्वत: याद आयेगा। सारे दिन में जितना बार मैं शब्द बोलो तो याद करो कि मैं निराकार आत्मा साकार में प्रवेश किया है। जब निराकार स्थिति याद होगी तो निरहंकारी स्वत: हो जायेंगे, देह-भान खत्म हो जायेगा। आत्मा याद आने से निराकारी स्थिति पक्की हो जायेगी। निराकारी, निरहंकारी और निर्विकारी भव का वरदान जो वरदाता द्वारा प्राप्त हो चुका है, अब इस वरदान को साकार रुप में लाओ! अर्थात् स्वयं को ज्ञान-मूर्त, याद-मूर्त और साक्षात्कार-मूर्त बनाओ। जो भी सामने आये, उसे मस्तक द्वारा मस्तक-मणि दिखाई दे, नैनों द्वारा ज्वाला दिखाई दे और मुख द्वारा वरदान के बोल निकलते हुए दिखाई दें तब प्रत्यक्षता होगी।
वरदान:
वाणी और मन्सा दोनों से एक साथ सेवा करने वाले सहज सफलतामूर्त भव!
वाचा के साथ-साथ संकल्प शक्ति द्वारा सेवा करना-यही पावरफुल अन्तिम सेवा है। जब मन्सा सेवा और वाणी की सेवा दोनों का कम्बाइन्ड रूप होगा तब सहज सफलता होगी, इससे दुगुनी रिजल्ट निकलेगी। वाणी की सेवा करने वाले तो थोड़े होते हैं बाकी रेख देख करने वाले, दूसरे कार्यों में जो रहते हैं उन्हें मन्सा सेवा करनी चाहिए, इससे वायुमण्डल योगयुक्त बनता है। हर एक समझे मुझे सेवा करनी है तो वातावरण भी पावरफुल होगा और सेवा भी डबल हो जायेगी।
स्लोगन:
सदा एकरस स्थिति के आसन पर विराजमान रहो तो अचल-अडोल रहेंगे।