Monday, October 16, 2017

17-10-17 प्रात:मुरली

17/10/17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

''मीठे बच्चे - आपस में एक दो का रिगार्ड रखना है, अपने को मिया मिट्ठू नहीं समझना है, बुद्धि में रहे जो कर्म मैं करूँगा, मुझे देखकर सब करेंगे''
प्रश्न:
कौन सी अवस्था जमाने के लिए बहुत-बहुत मेहनत करनी है?
उत्तर:
गृहस्थ व्यवहार में रहते स्त्री पुरूष का भान समाप्त हो जाए, मन्सा में भी संकल्प विकल्प न चलें। हम आत्मा भाई-भाई हैं। प्रजापिता ब्रह्मा के बच्चे भाई-बहिन हैं, यह अवस्था जमाने में टाइम लगता है। साथ में रहते विकारों की आग न लगे। क्रिमिनल एसाल्ट न हो, इसका अभ्यास करना है। मात-पिता जो सर्व सम्बन्धों की सैक्रीन है, उसे याद करना है।
गीत:-
बदल जाये दुनिया न बदलेंगे हम....  
ओम् शान्ति।
यह बच्चों की गैरन्टी वा प्रतिज्ञा है। प्रतिज्ञा कोई मुख से नहीं की जाती है। जब बच्चे बाप को पहचान लेते हैं तो प्रतिज्ञा हो ही जाती है। हर एक इन्डिपेन्डेंट (स्वतत्र) पुरूषार्थ करता है पद पाने लिए। स्कूल में सब इन्डिपेन्डेंट पुरूषार्थ करते हैं कि हम ऊंच पद पायें। यहाँ आत्मा पढ़ती है और परमात्मा पढ़ाने लिए जीवात्मा बनते हैं। और इनमें प्रवेश कर इनको (ब्रह्मा को) और ब्रह्मा मुख वंशावली को पढ़ाते हैं। स्वयं ब्रह्मा को मुख वंशावली नहीं कहेंगे। ब्राह्मण ब्रह्मा मुख वंशावली हैं। ब्रह्मा शिव की मुख वंशावली नहीं है। शिवबाबा तो आकर इनमें प्रवेश कर अपना बनाते हैं। यह भी क्रियेशन है। पहले ब्रह्मा को रचते हैं, विष्णु को नहीं रचते। गाया भी जाता है ब्रह्मा, विष्णु और शंकर। विष्णु, शंकर और ब्रह्मा नहीं कहा जाता है। पहले ब्रह्मा को रचते हैं। ब्रह्मा का आक्यूपेशन अलग है। यह हर एक बात समझने की है। इनको त्वमेव माताश्च पिता.... कहा जाता है। तो वह निराकार है ना। तो साकार में मात-पिता चाहिए तब पूछते हैं - मम्मा को माँ है? कहेंगे हाँ। ब्रह्मा, मम्मा की भी माँ है। ब्रह्मा की कोई माँ नहीं। यह माँ (ब्रह्मा) फीमेल न होने कारण सरस्वती को मम्मा कहते हैं। बाप पढ़ाते हैं तो यह भी पढ़ते हैं। जैसे तुम स्टूडेन्ट हो वैसे यह भी है। शिवबाबा कोई स्टूडेन्ट नहीं है।
तुम बच्चे ब्रह्मा का मर्तबा भी देख रहे हो कि यह सबसे जास्ती पढ़ता है। देखते हो यह बरोबर नजदीक हैं। पहले किसके कान सुनते हैं? यह ब्रह्मा सबसे नजदीक है। तो कहेंगे कि मम्मा बाबा जास्ती पढ़ते हैं, फिर नम्बरवार सब बच्चे पढ़ते हैं। भले ही बाबा कहते हैं जगदीश बच्चा मम्मा बाबा से भी अच्छा समझाता है। बाबा की मुरली पढ़कर, धारण कर फिर गीता मैगजीन आदि बनाते हैं क्योंकि यह शास्त्र आदि पढ़ा हुआ है। अंग्रेजी में भी होशियार है। इसको कहा जाता है रिगार्ड। स्टूडेन्ट को एक दो का रिगार्ड रखना है। बाबा भी रिगार्ड रखते हैं ना। तो फादर को फालो करना चाहिए। भले अभी 16 कला नहीं बनें हैं। नम्बरवार तो होते हैं ना। कोई न कोई भूलें सबसे होती रहती हैं इसलिए अपने को मिया मिट्ठू नहीं समझना है। जैसे कर्म बाप करते हैं अथवा मैं करूंगा, मुझे देख सब करेंगे। तो एक दो का रिगार्ड रखना है। बाबा को भी रिगार्ड रखना पड़ता है। लोग कहते हैं कि यह स्त्री पुरूष को भाई-बहिन बनाते हैं। तो जो बुद्धिवान बच्चा होगा तो झट कहेगा कि परमात्मा के बच्चे तो सब हैं तो भाई-बहन ठहरे ना। प्रजापिता ब्रह्मा के बच्चे भाई बहन हुए ना। भाई-बहिन बनना अच्छा है ना। बाबा के बच्चे बनेंगे तो वर्सा ले सकेंगे। वर्सा मिलना है - शिवबाबा से ब्रह्मा बाबा द्वारा। तो ब्रह्माकुमार कुमारी बनना पड़े। फिर कभी भी विकार में जा नहीं सकते। नहीं तो क्रिमिनल एसाल्ट हो जाए। बाबा कितना अच्छी रीति समझाते हैं। पवित्र रहने की युक्तियाँ भी बताते हैं। स्त्री भी कहती है बाबा, पुरूष भी कहते हैं बाबा। तो स्त्री पुरूष का भान टूट जायेगा। यह भी कहते हैं कि आदम और बीबी द्वारा सृष्टि की स्थापना हुई तो सब उनकी सन्तान ठहरे। भाई बहन ठहरे। कुमार कुमारी के लिए इतनी मेहनत नहीं है। जो सीढ़ी चढ़ गया है तो उनको उतरना पड़े। तो उतरने में मेहनत है। ऐसे नहीं दोनों को अलग-अलग रहना है। सिर्फ कम्पेनियन होकर रहो। सतयुग में कोई अपवित्र नहीं होते। और वहाँ बच्चे का भी इन्तजार नहीं होता है। यहाँ बच्चे का इन्तजार करते हैं। वहाँ समय अनुसार आपेही साक्षात्कार होता है। मनुष्य तो कहते यह कैसे हो सकता है। भला यहाँ के सम्पूर्ण विकारी कैसे समझें कि वहाँ निर्विकारी होते हैं। वहाँ देह-अभिमान होता नहीं। यहाँ देह-अभिमान रहता है। देह छोड़ने पर लोग कितना रोते हैं। वहाँ रोना होता नहीं। वहाँ समय पर साक्षात्कार होता है कि शरीर छोड़ जाकर प्रिन्स बनना है। यहाँ भी तुम साक्षात्कार करते हो कि तुम भविष्य में जाकर महाराजा महारानी बनेंगे। कृष्ण जैसा बालक गोद में देखते हो। साक्षात्कार से यह मालूम नहीं पड़ता कि सूर्यवंशी महाराजा महारानी बनेंगे या चन्द्रवंशी क्योंकि यह बिल्कुल नई बात है इसलिए कहा जाता है कि पहले बाप को पहचानो, बाप कहते हैं देखो मैं कितना लवली हूँ!
बाप कहते हैं कि सभी सम्बन्धों की सैक्रीन मैं हूँ, मैं कहता हूँ मुझे याद करो। कहते हैं त्वमेव माताश्च पिता... एक-एक बात में निश्चय बिठाना चाहिए। परन्तु कोई न कोई बात में संशय आ जाता है। फिर राजाई पद पा न सकें इसलिए बाप कहते हैं मनमनाभव। बाप को याद करो तो तुम आशिक ठहरे। यह है रूहानी आशिक माशूक। यह पक्का करना चाहिए कि हम आत्मा परमात्मा की आशिक हैं। कृष्ण सबका माशूक हो न सके। कृष्ण को सब नहीं याद करते हैं। यह बाप कहते हैं मनमनाभव। अब मेरे पास आना है, नाटक पूरा होना है, घर जाना है। तो घर जरूर याद आयेगा। हर एक बात की समझानी मुरली में मिलती रहती है। बच्चे मुरली नोट नहीं करते फिर वही बातें बाबा से पूछते रहते हैं। मुख्य बात है आशिक और माशूक की। सभी भगत आशिक हैं क्योंकि परमात्मा को याद करते हैं। कहते मेरा तो एक दूसरा न कोई। तुम बच्चे इस समय सब नई-नई बातें सुनते हो। परन्तु सुनते-सुनते माया थप्पड़ लगा देती है। रावण कम थोड़ेही है। बाप सर्वशक्तिमान है, माया भी सर्वशक्तिमान है। आधाकल्प माया का राज्य चलता है। अब बाप कहते हैं 5 विकारों का दान दे दो तो ग्रहण छूटे। फिर भी एकदम छूटता नहीं है। कई दान देकर फिर वापिस ले लेते हैं। यह पैसों की बात नहीं, विकारों की बात है। साधू सन्यासी पैसे के लिए कहते हैं कि दान देकर वापिस नहीं लेना चाहिए क्योंकि इसमें उनकी कमाई है। कई मनुष्य फिर सन्यासियों के पास जाकर कहते हैं बच्चा चाहिए। कहेंगे हमारी आशीर्वाद से हो जायेगा। अगर बच्चा हो गया तो कहेंगे हमने दिया। मर गया तो कहेंगे भावी। अगर एक का कुछ काम हो गया तो बहुतों का विश्वास बैठ जाता है। ऐसे उन्हों की वृद्धि होती है। एक तरफ अपनी महिमा करते दूसरे तरफ भावी कहते हैं। तुम इस समय अन-नोन वारियर्स हो। वह जो अन-नोन वारियर्स होते हैं, उनका यादगार बनाते हैं और बड़े-बड़े जाते हैं। कहते हैं सोल्जर्स पर फूल चढ़ाओ। अरे जिसका पता ही नहीं, उनका यादगार कैसे बनेगा। अभी तुम अन-नोन हो फिर तुम वेरी वेल नोन बनते हो। तुम्हारे मन्दिर बनते हैं अभी तुम गुप्त में ही रामराज्य स्थापन कर रहे हो। अच्छा-
मीठे-मीठे बच्चे - सिकीलधे बच्चे बने हो ना! 5 हजार वर्ष के बाद मिले हो। किसी का गुम हुआ बच्चा मिल जाए तो माँ बाप को कितनी खुशी होगी, बच्चा भी बाबा-बाबा कहता रहेगा। तो अभी विनाश होता है और तुम गुम हो जाते हो अर्थात् बाप से बिछुड़ जाते हो। फिर कल्प के बाद बाप से मिलते हो तो माँ बाप का कितना प्यार रहता है। आधाकल्प तुम सुख भोगते हो, फिर धीरे-धीरे दु:खी होते हो। सन्यासी कहते हैं ना - सुख काग विष्टा समान है। वह भी विकार के लिए कहते हैं। गुरूनानक ने भी कहा है - मूत पलीती कपड़ धोये, तो कौन धोयेगा! वह एक परमात्मा ही है, जिसको कहते ही हैं एकोअंकार... सिक्ख लोग यह गाते रहते हैं। इस ज्ञान में तुम बच्चों की बुद्धि बड़ी शुरूड़ (सयानी) चाहिए क्योंकि आत्मा को जगाना होता है। तो आत्मा भी शुरूड बनती है। कोई-कोई तो बहुत अच्छे शुरूड बुद्धि हो जाते हैं। मातायें, कन्यायें बहुत अच्छी खड़ी हो जाती है। नहीं तो मातायें बैठ पति को समझायें इसमें बड़ी हिम्मत और निर्भयता चाहिए। बाकी तो सब नर्कवासी हैं, दुर्गति में हैं। वह तो भक्ति में खूब नाचते ताली बजाते रहते हैं, सद्गति तो होती नहीं। तुम बच्चे सद्गति में जाने के लिए बिल्कुल चुप रहते हो। नारद ने कहा मैं लक्ष्मी को वरूँ। वास्तव में लक्ष्मी को वरने के लिए तुम पुरूषार्थ कर रहे हो। भगत तो वर न सकें। लक्ष्मी-नारायण को कैसे राज्य मिला, कब मिला और वह अब कहाँ गये, यह सिर्फ तुम जानते हो इसलिए तुम मन्दिर में जाकर माथा नहीं टेकते हो। समझते हो कि हम ही लक्ष्मी-नारायण बन रहे हैं। तुम्हारा माथा टेकना बन्द हो गया है। वह कहते हैं यह नास्तिक हैं, जो माथा नहीं टेकते। वास्तव में तुम ही आस्तिक हो - नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार। वह तो नास्तिक हैं जो परमात्मा को नहीं जानते। अभी तुम धणके बने हो फिर भी माया थप्पड़ लगा देती है तो आरफन, निधनके बन पड़ते हैं। भले ही बूढ़े हैं परन्तु माया उनको भी जवान बना देती है। माया के तूफान आते हैं। तुम्हें एक दो का हाथ पकड़कर, सहयोगी बन इस नई यात्रा पर, बाप की श्रीमत पर चलते रहना है। सारा मदार है बुद्धि की यात्रा पर। अचल-अडोल अंगद की तरह बनना है। अन्त में वह अवस्था आनी है। अच्छा।
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) एक दो का हाथ पकड़, सहयोगी बन बाप की श्रीमत पर चलते रहना है। बाप जो सर्व संबंधों की सैक्रीन है, उसे बड़े प्यार से याद करना है।
2) जैसे बाप हर बच्चे को रिगार्ड देते हैं, ऐसे फालो करना है। अपने बड़ों को रिगार्ड जरूर देना है।
वरदान:
एक के पाठ को स्मृति में रख तपस्या में सफलता प्राप्त करने वाले निरन्तर योगी भव!
तपस्या की सफलता का विशेष आधार वा सहज साधन है - एक शब्द का पाठ पक्का करो। तपस्या अर्थात् एक का बनना, तपस्या अर्थात् मन-बुद्धि को एकाग्र करना, तपस्या अर्थात् एकान्तप्रिय रहना, तपस्या अर्थात् स्थिति को एकरस रखना, तपस्या अर्थात् सर्व प्राप्त खजानों को व्यर्थ से बचाना अर्थात् इकॉनामी करना। इस एक के पाठ को स्मृति में रखो तो निरन्तर योगी, सहजयोगी बन जायेंगे। मेहनत से छूट जायेंगे।
स्लोगन:
आज्ञाकारी वो हैं जो मन और बुद्धि को मनमत से सदा खाली रखते हैं।

मातेश्वरी जी के अनमोल महावाक्य
1) 'सतयुग में यह ईश्वरीय नॉलेज नहीं मिलती'
अगर कोई यह प्रश्न पूछे कि यह जो अपने को इस संगम समय पर ईश्वरीय नॉलेज मिल रही है वो फिर से अपने को सतयुग में मिलेगी? अब इस पर समझाया जाता है कि सतयुग में तो हम स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं। देवताई प्रालब्ध भोग रहे हैं, वहाँ ज्ञान की लेन देन नहीं चलती, अब ज्ञान की जरूरत है अज्ञानियों को। परन्तु वहाँ तो सब ज्ञान स्वरूप हैं, वहाँ कोई अज्ञानी रहता ही नहीं है, जो ज्ञान देने की जरूरत रहे। अब तो इसी समय अपन सारे विराट ड्रामा के आदि मध्य अन्त को जानते हैं। आदि में हम कौन थे, कहाँ से आये, और मध्य में कर्मबन्धन में फंसे फिर कैसे गिरे, अन्त में हमको कर्मबन्धन से अतीत हो कर्मातीत देवता बनना है। जो पुरुषार्थ अब चल रहा है जिससे हम भविष्य प्रालब्ध सतयुगी देवतायें बनते हैं। अगर वहाँ हमको यह मालूम होता कि हम देवतायें गिरेंगे तो यह ख्याल आने से खुशी गायब हो जाती, तो वहाँ गिरने की नॉलेज नहीं है। यह ख्यालात वहाँ नहीं रहती, हमको इस नॉलेज द्वारा अब मालूम पड़ा है कि हमको चढ़ना है और सुख की जीवन बनानी है। फिर आधाकल्प के बाद अपनी प्रालब्ध भोग फिर अपने आपको विस्मृत कर माया के वश होकर गिर जाते हैं। यह चढ़ना और गिरना अनादि बना बनाया खेल है। यह सारी नॉलेज अब बुद्धि में है बाकी सतयुग में नहीं रहती।
2) 'प्रैक्टिकल ईश्वर का बच्चा बनने बिगर ईश्वरीय दरबार में कुछ भी जमा नहीं होता'
बहुत मनुष्य ऐसे समझते हैं कि हम जो भी कुछ कर्म करते हैं, चाहे अच्छे चाहे बुरे कर्म करते हैं उनका फल अवश्य मिलता है। जैसे कोई दान पुण्य करते हैं, यज्ञ हवन करते हैं, पाठ पूजा करते हैं वो समझते हैं कि हमने ईश्वर के अर्थ जो भी दान किया वो परमात्मा के दरबार में दाखिल हो जाता है। जब हम मरेंगे तो वो फल अवश्य मिलेगा और हमारी मुक्ति हो जायेगी, परन्तु यह तो अपन जान चुके हैं कि इस करने से कोई सदाकाल के लिये फायदा नहीं होता। यह तो जैसे जैसे कर्म करेंगे उससे अल्पकाल क्षणभंगुर सुख की प्राप्ति अवश्य होती है। मगर जब तक यह प्रैक्टिकल जीवन सदा सुखी नहीं बनी है तब तक उसका रिटर्न नहीं मिल सकता। भल हम किससे भी पूछेंगे यह जो भी तुम करते आये हो, उन करने से तुम्हें पूरा लाभ मिला है? तो यह सुनने से वो लाजवाब हो जाते हैं। अब परमात्मा के पास दाखिल हुआ या नहीं हुआ वो हमें क्या मालूम? जब तक अपनी प्रैक्टिकल जीवन में कर्म श्रेष्ठ नहीं बने हैं तब तक कितनी भी मेहनत करेंगे तो भी मुक्ति जीवनमुक्ति प्राप्त नहीं करेंगे। अच्छा, दान पुण्य किया लेकिन उस करने से कोई विकर्म तो भस्म नहीं हुए, फिर मुक्ति जीवनमुक्ति कैसे प्राप्त होगी। भले इतने संत महात्मायें हैं जब तक उन्हों को कर्मों की नॉलेज नहीं है तब तक वो कर्म अकर्म नहीं हो सकते, न वह मुक्ति जीवनमुक्ति को प्राप्त करेंगे। उन्हों को भी यह मालूम नहीं है कि सतधर्म क्या है और सतकर्म क्या है, सिर्फ मुख से राम राम कहना इससे कोई मुक्ति नहीं होगी। बाकी ऐसे समझ बैठना कि मरने के बाद हमारी मुक्ति होगी, ऐसे को भी बेसमझ कहा जायेगा। उन्हों को यह पता ही नहीं कि मरने के बाद क्या फायदा मिलेगा? कुछ भी नहीं। बाकी तो मनुष्य अपने जीवन में चाहे बुरे कर्म करें, चाहे अच्छा कर्म करें वो भी इस ही जीवन में भोगना है। अब यह सारी नॉलेज हमें परमात्मा टीचर द्वारा मिल रही है कि कैसे शुद्ध कर्म करके अपनी प्रैक्टिकल जीवन बनानी है। अच्छा। ओम् शान्ति।