Sunday, September 17, 2017

17-09-17 प्रात:मुरली

17-09-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:09-01-83 मधुबन

व्यर्थ को छोड़ समर्थ संकल्प चलाओ
आज बापदादा सभी सिकीलधे बच्चों से मिलन मनाने के लिए विशेष आये हैं। डबल विदेशी बच्चे मिलन मनाने के लिए सदा इन्तजार में रहते हैं। तो आज बापदादा डबल विदेशी बच्चों से एक एक की विशेषता की रूह-रूहाण करने आये हैं। एक-एक स्थान की अपनी-अपनी विशेषता है। कहाँ संख्या ज्यादा और कहाँ संख्या कम होते भी अमूल्य रत्न, विशेष रत्न थोड़े चुने हुए होते भी अपना बहुत अच्छा पार्ट बजा रहे हैं। ऐसे बच्चों के उमंग-उत्साह को देख, बच्चों की सेवा को देख बापदादा हर्षित होते हैं। विशेष रूप में विदेश के चारों ही कोनों में बाप को प्रत्यक्ष करने के प्लैन प्रैक्टिकल करने में अच्छी सफलता को पा रहे हैं। सर्व धर्मो की आत्माओं को बाप से मिलाने का प्रयत्न अच्छा कर रहे हैं। सेवा की लगन अच्छी है। अपनी भटकती हुई आत्मा को ठिकाना मिलने के अनुभवी होने के कारण औरों के प्रति भी रहम आता है। जो भी दूर-दूर से आय्ो हैं उन्हों का एक ही उमंग है कि जाना है और अन्य को भी ले जाना है। इस दृढ़ संकल्प ने सभी बच्चों को दूर होते भी नजदीक का अनुभव कराया है इसलिए सदा अपने को बापदादा के वर्से के अधिकारी आत्मा समझ चल रहे हैं। कभी भी किसी व्यर्थ संकल्प के आधार पर अपने को हलचल में नहीं लाओ। कल्प-कल्प के पात्र हो। अच्छा - आज तो पार्टियों से मिलना है। पहला नम्बर मिलने का चान्स अमेरिका पार्टी को मिला है। तो अमेरिका वाले सभी मिलकर सेवा में सबसे नम्बरवन कमाल भी तो दिखायेंगे ना। अभी बापदादा देखेंगे कि कानफ्राोंस में सबसे बड़े ते बड़े वी.आई.पी. कौन ले आते हैं। नम्बरवन वी.आई.पी. कहाँ से आ रहा है? (अमेरिका से) वैसे तो आप बाप के बच्चे वी.वी.वी.आई.पी. हो। आप सबसे बड़ा तो कोई भी नहीं है लेकिन जो इस दुनिया के वी.आई.पी. हैं उन आत्माओं को भी सन्देश देने का यह चान्स है। इन्हों का भाग्य बनाने के लिए यह पुरूषार्थ करना पड़ता है क्योंकि वे तो अपने को इस पुरानी दुनिया के बड़े समझते हैं ना। तो छोटे-छोटे कोई प्रोग्राम में आना वह अपना रिगार्ड नहीं समझते इसलिए बड़े प्रोग्राम में बड़ों को बुलाने का चान्स है। वैसे तो बापदादा बच्चों से ही मिलते और रूह-रूहान करते। विशेष आते भी बच्चों के लिए ही हैं। फिर ऐसे-ऐसे लोगों का भी उल्हना न रह जाए कि हमें हमारे योग्य निमंत्रण नहीं मिला इस उल्हनें को पूरा करने के लिए यह सब प्रोग्राम रचे जाते हैं। बापदादा को तो बच्चों से प्रीत है और बच्चों को बापदादा से प्रीत है। अच्छा। सभी डबल विदेशी तन से और मन से सन्तुष्ट हो? थोड़ा भी किसको कोई संकल्प तो नहीं है? कोई तन की वा मन की प्राबल्म है? शरीर बीमार हो लेकिन शरीर की बीमारी से मन डिस्टर्ब न हो। सदैव खुशी में नाचते रहो तो शरीर भी ठीक हो जायेगा। मन की खुशी से शरीर को भी चलाओ तो दोनों एक्सरसाइज हो जायेंगी। खुशी है दुआ और एक्सरसाइज है दवाई। तो दुआ और दवा दोनों होने से सहज हो जायेगा। (एक बच्चे ने कहा रात्रि को नींद नहीं आती है) सोने के पहले योग में बैठो तो फिर नींद आ जायेगी। योग में बैठने समय बापदादा के गुणों के गीत गाओ। तो खुशी से दर्द भी भूल जायेगा। खुशी के बिना सिर्फ यह प्रयत्न करते हो कि मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, तो इस मेहनत के कारण दर्द भी फील होता है। खुशी में रहो तो दर्द भी भूल जायेगा। कोई भी बात में किसको भी कोई क्वेश्चन हो या छोटी सी बात में कब कनफ्यूज भी जल्दी हो जाते, तो वह छोटी-छोटी बातें फौरन स्पष्ट करके आगे चलते चलो। ज्यादा सोचने के अभ्यासी नहीं बनो। जो भी सोच आये उसको वहाँ ही खत्म करो। एक सोच के पीछे अनेक सोच चलने से फिर स्थिति और शरीर दोनों पर असर आता है इसलिए डबल विदेशी बच्चों को सोचने की बात पर डबल अटेन्शन देना चाहिए क्योंकि अकेले रहकर सोचने के नैचुरल अभ्यासी हो। तो वह अभ्यास जो पड़ा हुआ है, इसलिए यहाँ भी छोटी-छोटी बात पर ज्यादा सोचते। तो सोचने में टाइम वेस्ट जाता और खुशी भी गायब हो जाती और शरीर पर भी असर आता है, उसके कारण फिर सोच चलता है इसलिए तन और मन दोनों को सदा खुश रखने के लिए सोचो कम। अगर सोचना ही है तो ज्ञान रत्नों को सोचो। व्यर्थ संकल्प की भेंट में समर्थ संकल्प हर बात का होता है। मानों अपनी स्थिति वा योग के लिए व्यर्थ संकल्प चलता है कि मेरा पार्ट तो इतना दिखाई नहीं देता, योग लगता नहीं। अशरीरी होते नहीं। यह है व्यर्थ संकल्प। उनकी भेंट में समर्थ संकल्प करो, याद तो मेरा स्वधर्म है। बच्चे का धर्म ही है बाप को याद करना। क्यों नहीं होगा, जरूर होगा। मैं योगी नहीं तो और कौन बनेगा। मैं ही कल्प-कल्प का सहजयोगी हूँ। तो व्यर्थ के बजाए इस प्रकार के समर्थ संकल्प चलाओ। मेरा शरीर चल नहीं सकता, व्यर्थ संकल्प नहीं चलाओ। इसके बजाए समर्थ संकल्प यह है कि इसी अन्तिम जन्म में बाप ने हमको अपना बनाया है। कमाल है, बलिहारी इस अन्तिम शरीर की। जो इस पुराने शरीर द्वारा जन्म-जन्म का वर्सा ले लिया। दिलशिकस्त के संकल्प नहीं करो, लेकिन खुशी के संकल्प करो। वाह मेरा पुराना शरीर, जिसने बाप से मिलाने के निमित्त बनाया। वाह वाह कर चलाओ। जैसे घोड़े को प्यार से, हाथ से चलाते हैं तो घोड़ा बहुत अच्छा चलता है। अगर घोड़े को बार-बार चाबुक लगायेंगे तो और ही तंग करेगा। यह शरीर भी आपका है, इनको बार-बार ऐसे नहीं कहो कि यह पुराना, बेकार शरीर है। यह कहना जैसे चाबुक लगाते हो। खुशी-खुशी से इसकी बलिहारी गाते आगे चलाते रहो। फिर यह पुराना शरीर कभी डिस्टर्ब नहीं करेगा। बहुत सहयोग देगा। (कोई ने कहा-प्रामिस भी करके जाते हैं, फिर भी माया आ जाती है) माया से घबराते क्यों हो? माया आती है आपको पाठ पढ़ाने लिए। घबराओ नहीं। पाठ पढ़ लो। कभी सहनशीलता का पाठ, कभी एकरस स्थिति में रहने का पाठ पढ़ाती। कभी शान्त स्वरूप बनने का पाठ पक्का कराने आती। तो माया को उस रूप में नहीं देखो माया आ गई, घबरा जाते हो। लेकिन समझो कि माया भी हमारी सहयोगी बन, बाप से पढ़ा हुआ पाठ पक्का कराने के लिए आई है। माया व् सहयोगी के रूप में समझो। दुश्मन नहीं। पाठ पक्का कराने के लिए सहयोगी है तो आपका अटेन्शन सारा उस बात में चला जायेगा। फिर घबराहट कम होगी और हार नहीं खायेंगे। पाठ पक्का करके अंगद के समान बन जायेंगे। तो माया से घबराओ नहीं। जैसे छोटे बच्चों को माँ बाप डराने के लिए कहते हैं, हव्वा आ जायेगा। आप सबने भी माया को हव्वा बना दिया है। वैसे माया खुद आप लोगों के पास आने में घबराती है। लेकिन आप स्वयं कमजोर हो, माया का आव्हान करते हो। नहीं तो वह आयेगी नहीं। वह तो विदाई के लिए ठहरी हुई है। वह भी इन्तजार कर रही है कि हमारी लास्ट डेट कौन सी है? अब माया को विदाई देंगे या घबरायेंगे। डबल विदेशियों की यह एक विशेषता है - उड़ते भी बहुत तेज हैं और फिर डरते हैं तो छोटी सी मक्खी से भी डर जाते हैं। एक दिन बहुत खुशी में नाचते रहेंगे और दूसरे दिन फिर चेहरा बदली हो जायेगा। इस नेचर को बदली करो। इसका कारण क्या है? इन सब कारणों का भी फाउन्डेशन है - सहनशक्ति की कमी। सहन करने के संस्कार शुरू से नहीं हैं, इसलिए जल्दी घबरा जाते हो। स्थान को बदलेंगे या जिन से तंग होंगे उनको बदल लेंगे। अपने को नहीं बदलेंगे। यह जो संस्कार है वह बदलना है। “मुझे अपने को बदलना है” स्थान को वा दूसरे को नहीं बदलना है लेकिन अपने को बदलना है। यह ज्यादा स्मृति में रखो, समझा। अब विदेशी से स्वदेशी संस्कार बना लो। सहनशीलता का अवतार बन जाओ। जिसको आप लोग कहते हो अपने को एडजस्ट करना है। किनारा नहीं करना है, छोड़ना नहीं है। हंस और बगुले की बात अलग है। उन्हों की आपस में खिट-खिट है। वह भी जहाँ तक हो सके उसके प्रति शुभ भावना से ट्रायल करना अपना फर्ज है। कई ऐसे भी मिसाल हुए हैं जो बिल्कुल एन्टी थे लेकिन शुभ भावना से निमित्त बनने वाले से भी आगे जा रहे हैं। तो शुभ भावना फुल फोर्स से ट्रायल करनी चाहिए। अगर फिर भी नहीं होता है तो फिर डायरेक्शन लेकर कदम उठाना चाहिए क्योंकि कई बार ऐसे किनारा कर देने से कहाँ डिस सर्विस भी हो जाती है। और कई बार ऐसा भी होता है कि आने वाली ब्राह्मण आत्मा की कमी होने के कारण अन्य आत्मायें भी भाग्य लेने से वंचित रह जाती हैं इसलिए पहले स्वयं ट्रायल करो फिर अगर समझते हो यह बड़ी प्राबलम है तो निमित्त बनी आत्माओं से वेरीफाय कराओ। फिर वह भी अगर समझती हैं कि अलग होना ही ठीक है फिर अलग हुए भी तो आपके ऊपर जवाबदारी नहीं रही। आप डायरेक्शन पर चले। फिर आप निश्चिन्त। कई बार ऐसा होता है - जोश में छोड़ दिया, लेकिन अपनी गलती के कारण छोड़ने के बाद भी वह आत्मा खींचती रहती है। बुद्धि जाती रहती है यह भी बड़ा विघ्न बन जाता है। तन से अलग हो गये लेकिन मन का हिसाब-किताब होने के कारण खींचता रहता इसलिए निमित्त बनी हुई आत्माओं से वेरीफाय कराओ क्योंकि यह कर्मों की फिलॉसाफी है। जबरदस्ती तोड़ने से भी मन बार-बार जाता रहता है। कर्म की फिलॉसाफी को ज्ञान स्वरूप होकर पहचानो और फिर वेरीफाय कराओ। फिर कर्म बन्धन को ज्ञान युक्त होकर खत्म करो। बाकी ब्राह्मण आत्माओं में, हमशरीक होने के कारण ईर्ष्या उत्पन्न होती है, ईर्ष्या के कारण संस्कारों का टक्कर होता है लेकिन इसमें विशेष बात यह सोचो कि जो हमशरीक हैं, उनको निमित्त बनाने वाला कौन? उनको नहीं देखो फलाना इस ड्युटी पर आ गया, फलानी टीचर हो गई, नम्बरवन सर्विसएबुल हो गई। लेकिन यह सोचो कि उस आत्मा को निमित्त बनाने वाला कौन? चाहे निमित्त बनी हुई विशेष आत्मा द्वारा ही उनको ड्युटी मिलती है लेकिन निमित्त बनने वाली टीचर को भी निमित्त किसने बनाया? इसमें जब बाप बीच में हो जायेगा तो माया भाग जायेगी, ईर्ष्या भाग जायेगी लेकिन जैसे कहावत है ना - या होगा बाप या होगा पाप। जब बाप को बीच से निकालते हो तब पाप आता है। ईर्ष्या भी पाप कर्म है ना। अगर समझो बाप ने निमित्त बनाया है तो बाप जो कार्य करते उसमें कल्याण ही है। अगर उसकी कोई ऐसी बात अच्छी न भी लगती है, रांग भी हो सकती है, क्योंकि सब पुरुषार्थी हैं। अगर रांग भी है तो अपनी शुभ भावना से ऊपर दे देना चाहिए। ईर्ष्या के वश नहीं। लेकिन बाप की सेवा सो हमारी सेवा है - इस शुभ भावना से, श्रेष्ठ जिम्मेवारी से ऊपर बात दे देनी चाहिए। देने के बाद खुद निश्चिन्त हो जाओ। फिर यह नहीं सोचो कि यह बात दी फिर क्या हुआ। कुछ हुआ नहीं। हुआ या नहीं, यह िजम्मेवारी बड़ों की हो जाती है। आपने शुभ भावना से दी, आपका काम है अपने को खाली करना। अगर देखते हो बडों के ख्याल में बात नहीं आई तो भल दुबारा लिखो। लेकिन सेवा की भावना से। अगर निमित्त बने हुए कहते हैं कि इस बात को छोड़ दो तो अपना संकल्प और समय व्यर्थ नहीं गंवाओ। ईर्ष्या नहीं करो। लेकिन किसका कार्य है, किसने निमित्त बनाया है, उसको याद करो। किस विशेषता के कारण उनको विशेष बनाया गया है, वह विशेषता अपने में धारण करो तो रेस हो जायेगी न कि रीस। समझा। अपसेट कभी नहीं होना चाहिए। जिसने कुछ कहा उनसे ही पूछना चाहिए कि आपने किस भाव से कहा - अगर वह स्पष्ट नहीं करते तो निमित्त बने हुए से पूछो कि इसमें मेरी गलती क्या है। अगर ऊपर से वेरीफाय हो गया, आपकी गलती नहीं है तो आप निश्चिन्त हो जाओ। एक बात सभी को समझनी चाहिए कि ब्राह्मण आत्माओं द्वारा यहाँ ही हिसाब-किताब चुक्तू होना है। धर्मराजपुरी से बचने के लिए ब्राह्मण कहाँ न कहाँ निमित्त बन जाते हैं। तो घबराओ नहीं कि यह ब्राह्मण परिवार में क्या होता है। ब्राह्मणों का हिसाब-किताब ब्राह्मणों द्वारा ही चुक्तू होना है। तो यह चुक्तू हो रहा है, इसी खुशी में रहो। हिसाब-किताब चुक्तू हुआ और तरक्की ही तरक्की हुई। अभी एक वायदा करो कि छोटी-छोटी बात में कनफ्यूज नहीं होंगे, प्राबलम नहीं बनेंगे लेकिन प्राबलम को हल करने वाले बनेंगे। समझा।
वरदान:
अपनी शक्तियों वा गुणों द्वारा निर्बल को शक्तिवान बनाने वाले श्रेष्ठ दानी वा सहयोगी भव!
श्रेष्ठ स्थिति वाले सपूत बच्चों की सर्व शक्तियाँ और सर्व गुण समय प्रमाण सदा सहयोगी रहते हैं। उनकी सेवा का विशेष स्वरूप है-बाप द्वारा प्राप्त गुणों और शक्तियों का अज्ञानी आत्माओं को दान और ब्राह्मण आत्माओं को सहयोग देना। निर्बल को शक्तिवान बनाना-यही श्रेष्ठ दान वा सहयोग है। जैसे वाणी द्वारा वा मन्सा द्वारा सेवा करते हो ऐसे प्राप्त हुए गुणों और शक्तियों का सहयोग अन्य आत्माओं को दो, प्राप्ति कराओ।
स्लोगन:
जो दृढ़ निश्चय से भाग्य को निश्चित कर देते हैं वही सदा निश्चिंत रहते हैं।