Wednesday, August 9, 2017

मुरली 9 अगस्त 2017

09-08-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन 

“मीठे बच्चे - अब यह पुराना घर छोड़ बाप के साथ चलना है इसलिए इस घर (शरीर) से ममत्व मिटाते जाओ, अपने को आत्मा निश्चय करो”
प्रश्न:
देही-अभिमानी बच्चों के मुख से कौन से शब्द नहीं निकलेंगे?
उत्तर:
मेरे मन को शान्ति कैसे मिले? यह शब्द देही-अभिमानी बच्चों के मुख से नहीं निकल सकते। देह- अभिमान वाले ही यह शब्द बोलते हैं क्योंकि उन्हें आत्मा का ज्ञान ही नहीं है। तुम जानते हो आत्मा का स्वधर्म ही शान्त है। मन के शान्ति की तो बात ही नहीं। आत्मा अपने स्वधर्म में टिक जाये तो मन शान्त हो जायेगा। आत्मा सो परमात्मा कहने वाले इस बात को समझ नहीं सकते।
गीत:
मरना तेरी गली में...   
ओम् शान्ति।
बच्चे जानते हैं मरना किसको कहा जाता है। आत्मा शरीर से अलग हो जाती है, उनको मरना कहा जाता है। यहाँ बच्चे जानते हैं हम जीते जी शरीर से अलग हैं और अपने परमपिता परमात्मा के साथ उनके धाम जाने वाले हैं। जो आत्मायें जा नहीं सकती हैं उनको योग से पवित्र बना रहे हैं। इसको कहा जाता है नॉलेज। रूह को नॉलेज मिलती है। यह बच्चे-बच्चे कहने वाला कौन है? परमपिता परमात्मा, जिसको सभी भगत याद करते हैं। आत्मा समझती है पतितपावन बाप मुक्ति-जीवनमुक्ति देने वाला है। उनको तो अपना शरीर है नहीं। यह लोन लिया है। हमको भी यह छोड़ना है और जिसका घर है उनको भी छोड़ना है। वैसे तुम बच्चों का भी यह पुराना घर है, इनमें खिड़कियां आदि सब हैं। तो बाप कहते हैं बच्चे यह पुराना घर सबको छोड़ देना है। मेरे साथ घर चलना है, इसलिए जीते जी इस घर से ममत्व मिटाते जाओ। अपने को आत्मा निश्चय करो और बाप को याद करो। यह तो बच्चे जानते हैं - दो चीजें हैं - जीव और आत्मा। मनुष्य जब दु:खी होते हैं तो जीवघात करते हैं। आत्म-घात नहीं। आत्मा जानती है, शरीर के कारण आत्मा को दु:ख होता है, इसलिए उनको छोड़ना चाहती है। तुम्हारी आत्मा जानती है कि अभी हम दु:खधाम में हैं। यह शरीर भी पुराना घर है। बाबा ने समझाया है - यह अकालतख्त है जो छोड़कर फिर दूसरा लेना होता है। तख्त के बदले घर कहना ठीक है। घर में खिड़कियां आदि होती हैं, इसलिए शरीर को घर कहा जाता है। तख्त के ऊपर राजाई की जाती है। इस समय तो दु:खधाम है। हाँ, यह जरूर है आत्मा को घर अर्थात् नये शरीर में बैठ फिर सिंहासन पर बैठ जाना है। राजाई करनी है। दुनिया में ऐसा तो कोई नहीं जिसको बाप से राजाई मिलती है, जब तक बाप न आये तब तक बादशाही कैसे मिले! तुम जानते हो बाबा हमको शाहनशाह बनाने आया हुआ है। जैसे राजाओं से महाराजायें बड़े होते हैं ना। तो बाप कहते हैं तुमको राजाओं का राजा बनाया जाता है। तुम्हारी आत्मा जानती है - यह पुराना घर छोड़ना है। आत्मा को पहले सतोप्रधान घर मिलता है। सतोप्रधान गुणवान आत्मा है तो शरीर भी ऐसे ही सतोप्रधान मिलता है। आत्मा समझती है, कैसे हम आत्मा को घर मिलता है। ऊंच पवित्र आत्माओं को शरीर भी ऐसे ही मिलेगा। पावन बनेंगे तो पावन घर मिलेगा जरूर। जब पावन बनाने वाला आये तब तो हम पावन बनें। खुद कहते हैं बच्चे तुम याद करते थे, अब मैं आया हूँ। कल्प-कल्प इस शरीर में आकर यह यज्ञ रचता हूँ। इनका नाम ब्रह्मा रखना पड़ता है, इनको एडाप्ट किया जाता है। गृहस्थ व्यवहार में रहते तुमने बुद्धि से सब कुछ पुरानी चीजों का सन्यास कर अपने को आत्मा निश्चय किया है। अभी जीते जी सब सम्बन्ध तोड़ने हैं। बाप कहते हैं तुम्हें इस पुरानी दुनिया में रहना नहीं है। समझाया जाता है हमारी एम आब्जेक्ट है नर से नारायण वा मनुष्य से देवता बनना वा स्वर्ग की बादशाही पाना। यह भी समझाया है कि मनुष्य सृष्टि एक ही है, जो चक्र लगाती है, इनको झाड़ भी कहते हैं। बड़ के झाड़ से भेंट की जाती है। उनकी आयु बहुत बड़ी होती है। यह झाड़ जब नया है तब हम देवतायें ही रहते हैं। अभी तो पुराना हो गया है। इसमें सब गरीब हैं, पाई पैसे का व्यापार करने वाले को बनिया कहा जाता है। तुम अभी बनिया से शाह बनते हो। अभी तुम ज्ञान रत्नों का व्यापार करते हो। बाप से रत्न ले फिर औरों को देते हो। अब तुम्हारी श्रेष्ठ हीरे जैसी बुद्धि बनती है। तुम्हारा व्यापार ही है ज्ञान-रत्नों का। ज्ञान रत्नों के बाद फिर वह रत्न भी तुमको अथाह मिलते हैं। गाया हुआ भी है - सागर हीरे जवाहरों की थाली ले तुम्हारे आगे भेंट रखते हैं। तुम अब पढ़ाई और पढ़ाने वाले को जान गये हो। बरोबर हमारा परमपिता परमात्मा ज्ञान रत्नों का सागर है, जिसको रूप-बसंत भी कहा जाता है। आत्मा ज्ञान रत्नों का मुख से वर्णन करती है। तुम्हारा धन्धा ही यह है। तुम अमृतवेले उठ यह ज्ञान रत्नों का धन्धा करो। प्रभात अच्छी होती है। कहते हैं - राम नाम सिमर प्रभात मोरे मन। यह आत्माओं ने कहा ना! मन-बुद्धि आत्मा में है। मनुष्य देह-अभिमान में रहते हैं तो कहते हैं मन मेरा शान्त नहीं होता है। जैसे कि शरीर में मन है। परन्तु आत्मा कहती है मेरे मन को, बुद्धि को ज्ञान नहीं है। मुझे शान्ति चाहिए। वह अपने को आत्मा समझते नहीं हैं। शान्त वा अशान्त आत्मा होती है। आत्मा कहती है मैं अशान्त आत्मा हूँ, मैं शान्त आत्मा हूँ। देह-अभिमान वाला कहेगा - हमारे मन को शान्ति कैसे मिले? मन क्या है? वह भी समझते नहीं हैं। आत्मा को शान्ति मिलती है वा आत्मा के मन को? पहले तो आत्मा को जानना पड़े। आत्मा का स्वधर्म शान्त है। यह शरीर तुम्हारे आरगन्स हैं। इनसे चाहे काम लो, चाहे स्वधर्म में टिको। सन्यासी भी इस बात को नहीं जानते - वह तो कह देते, आत्मा सो परमात्मा, परमात्मा सो आत्मा। परन्तु ताकत कैसे मिले जो शान्ति में रह सकें। जब बाप को याद करें तब ही ताकत मिले। सिर्फ शान्ति से भी कोई फायदा नहीं। वह समझते हैं हम आत्मा सो परमात्मा, हम आत्मा परमात्मा के लोक में चली जायेंगी और कुछ भी नहीं जानते। पुनर्जन्म को ही भूल जाते हैं। 84 जन्मों को भी भूल जाते हैं। बाप सम्मुख समझाते हैं, तुम समझते हो कि अभी हमें बाप के गले का हार बनना है। हम असुल उस बाप के गले का हार थे। अब नाटक पूरा होता है। नाटक में एक्टर खेलते भी रहते हैं और टाइम भी देखते रहते हैं। अभी नाटक पूरा होता है, बाकी इतना टाइम है। टाइम पूरा हुआ, सब एक्टर आकर खड़े हो जाते हैं फिर ड्रेस बदली कर घर चले जाते हैं। हूबहू तुम्हारा भी ऐसे ही पार्ट है। बाप आया है लेने लिए। यह प्रश्न ही नहीं उठता - आत्मायें वहाँ होंगी वा नहीं। हमारा काम है वर्सा लेना। जरूर आत्मायें होंगी तब तो आती रहती हैं, वृद्धि को पाती रहती हैं। अभी भी आती रहती हैं ना, तब तो बर्थ कन्ट्रोल आदि करते हैं। आत्माओं को वहाँ से स्टेज पर आना ही है फिर बर्थ कन्ट्रोल क्या करेंगे। जो कुछ बची-खुची आत्मायें हैं सब आयेंगी इसलिए तो वृद्धि होती रहती है। वृद्धि होनी ही है। यह तुम बच्चों को पता है जो कुछ पिछाड़ी वाल रहे हुए होंगे वह आते जायेंगे, जैसे मच्छर देखो रात को आये और सुबह को देखो तो सब मरे हुए होंगे। परन्तु उनका कोई हिसाब-किताब थोड़ेही है। यह जो बड़े-बड़े साइंसदान हैं वह कितना माथा मारते रहते हैं - खोज करते रहते हैं। जैसे ज्ञान की ऊंचाई है तो माया भी कम नहीं है। देखो, आसुरी मत पर क्या-क्या बना रहे हैं। श्रीमत क्या कहती है और साइंस वाले क्या करते रहते हैं। सुख भी है तो इन चीजों से विनाश भी होना है। साइंस और साइलेन्स। तुम सदैव बाप को याद करते रहते हो साइलेन्स में। उनको फिर साइंस का कितना घमण्ड है। कितने एरोप्लेन, बारूद आदि हैं। साइन्स पर साइलेन्स की विजय होती है। कई कहते हैं मन जीते जगतजीत परन्तु माया जीते जगतजीत कह सकते हैं। आत्मा अशरीरी हो बाप के पास चली जायेगी। कहते हैं मन में संकल्प विकल्प न आयें। बाप कहते हैं यह तो जरूर आयेंगे। मामेकम् याद करो। हम आत्मा अपने साइलेन्स होम, मुक्तिधाम में जाती हैं। पियरघर जाती हैं। बुद्धि में यही रहता है - बाबा आया है हमको ले जायेंगे। गाइड बाबा ही है। कहते हैं मेरे लाडले बच्चे मैं तुमको साथ ले जाऊंगा। कोई ने भी घर का रास्ता नहीं देखा है। अगर एक ने देखा हो तो बहुत देख लें। वह जाना भी सिखलावें। यहाँ से मनुष्य तंग होकर कहते हैं जायें। सतयुग में ऐसे थोड़ेही कहेंगे। सुखधाम को ही सब याद करते हैं। बाप कहते हैं मैं सबको ले जाऊंगा - मच्छरों के सदृश्य। वह सिर्फ कह देते हैं बौद्ध की आत्मा निर्वाणधाम गई। अगर वह चला गया तो बाकी सब उनकी इतनी वंशावली कैसे जायेगी। कोई जा नहीं सकते हैं। मैं तो जा सकता हूँ ना। मैं आता ही हूँ ले जाने के लिए। सतयुग में तो कितने थोड़े होते हैं। इस समय तो आत्मायें कितनी अथाह हैं। मच्छरों सदृश्य हैं ना। सबको ले जाना एक बाप का ही काम है। बाप कहते हैं मेरे गले का हार बनने से फिर विष्णु के गले का हार बनेंगे। गिरेंगे भी पहले। वह पुजारी बनते हैं तब रावण के गले का हार बनते हैं। आखरीन यह हालत हो जाती है। तुम जानते हो हम आधाकल्प सुख में और आधाकल्प दु:ख में रहते हैं। रावण के गले का हार पहले-पहले देवी-देवता धर्म वाले बनते हैं फिर और धर्म वाले आयेंगे, वह भी रावण के गले का हार बनेंगे। अन्त में सभी रावण के गले का हार बन जाते हैं। यह ड्रामा का खेल ऐसा बना हुआ है जो सिवाए बाप के और कोई समझा न सके। प्वाइंट्स तो बहुत मिलती हैं ना समझाने के लिए। नटशेल में कहा जाता है एक बाप को याद करो। पतित दुनिया को कैसे पावन बनाते हैं और फिर गले का हार पहले-पहले कौन बनते हैं, यह बुद्धि में रहना चाहिए। बरोबर हम असुल में अपने बाप के गले की माला हैं फिर बाबा हमको सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी बनाते हैं। फिर रावण का राज्य होता है। यह सृष्टि का चक्र कैसे फिरता है - तुम जानते हो नम्बरवार। स्कूल में सब सब्जेक्ट में 100 मार्क्स तो कोई नहीं लेते हैं। हाँ, कोई एक सब्जेक्ट में 100 मार्क्स मिल सकती हैं। इसमें भी मार्क्स हैं। दैवीगुण धारण करना कितनी बड़ी सब्जेक्ट है। सारे चक्र का राज भी समझाना है। कोई में गुण कम हैं, मुरली अच्छी चलाते हैं। नम्बरवार तो होते ही हैं ना। जो पास होते हैं वह गले का हार बनते हैं। बाप तो परफेक्ट है, उन जैसा परफेक्ट कोई हो नहीं सकता। वह तो जन्म-मरण में आता ही नहीं है। तुम्हारी बुद्धि में कितनी नई-नई प्वाइंट्स हैं जो और कोई की बुद्धि में बैठ नहीं सकती हैं। यह है गॉड फादरली युनिवर्सिटी, भगवानुवाच मैं राजयोग सिखलाता हूँ। समझ में आता है - भारत कितना अमीर था, अभी गरीब है। प्राचीन भारत बड़ा साहूकार था, उनको पैराडाइज कहते हैं। घर में कोई अच्छे कुल के होते हैं, गरीब बन जाते हैं तो उन पर तरस पड़ता है। कहेंगे बिचारा कितना गिर गया। फिर उनको चढ़ाने की कोशिश करते हैं। क्रिश्चियन लोगों ने भारत के पैसे बहुत लिये हैं, उस धन से खुद साहूकार बने हैं। भारत गरीब हो गया है तो फिर मदद भी देंगे ना। लोन के हिसाब से मदद देते हैं। तुम जानते हो क्या हिसाब-किताब है। कोई अच्छे हैं तो वह समझते हैं - यह सब लेन-देन का हिसाब खत्म होता है। परन्तु प्रेरक कौन है, यह कोई नहीं समझते। इन बातों को अभी तुम समझते हो। भारत रिलीजस था तो कितनी माइट थी, सारे विश्व के मालिक थे। पहला धर्म देवी-देवता है जो बाप स्थापना करते हैं। अब सबसे गिरा हुआ है तो जरूर उनको मदद करेंगे। जब लड़ाई शुरू होगी तो खुद लड़ते भी रहेंगे, मदद भी करते रहेंगे। अब भी देखो देते रहते हैं, नहीं तो भारत भूख मर जाये। परन्तु कभी ऐसे हुआ नहीं है। कैलेमिटीज भी आती रहेंगी। लड़ाई तब लगेगी जब पढ़ाई पूरी हो जाए। अभी तो पढ़ाई चल रही है ना। बाबा को पढ़ाना है। ब्रह्मा द्वारा आदि सनातन देवी-देवता धर्म की स्थापना हो रही है। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते। 
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) अमृतवेले उठ ज्ञान रत्नों का धन्धा करना है। रूप-बसन्त बन पढ़ाई पढ़नी और पढ़ानी है।
2) बाप के साथ वापिस घर जाना है, इसलिए पवित्र बनना है। अशरीरी बन, बाप की याद में रह साइलेन्स बल से साइंस पर विजय पानी है।
वरदान:
दिव्य बुद्धि द्वारा सदा दिव्यता को ग्रहण करने वाले सफलतामूर्त भव
बापदादा द्वारा जन्म से ही हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान प्राप्त होता है, जो इस दिव्य बुद्धि के वरदान को जितना कार्य में लगाते हैं उतना सफलतामूर्त बनते हैं क्योंकि हर कार्य में दिव्यता ही सफलता का आधार है। दिव्य बुद्धि को प्राप्त करने वाली आत्मायें अदिव्य को भी दिव्य बना देती हैं। वह हर बात में दिव्यता को ही ग्रहण करती हैं। अदिव्य कार्य का प्रभाव दिव्य बुद्धि वालों पर पड़ नहीं सकता।
स्लोगन:
स्वयं को मेहमान समझकर रहो तो स्थिति अव्यक्त वा महान बन जायेगी।