Saturday, July 15, 2017

मुरली 16 जुलाई 2017

16-07-17 मधुबन "अव्यक्त-बापदाद" ओम् शान्ति 26-04-82

"बापदादा के दिलतख्तनशीन बनने का सर्व को समान अधिकार"
आज ज्ञान गंगाओं और ज्ञान सागर का मिलन मेला है। जिस मेले में सभी बच्चे बाप से रूहानी मिलन का अनुभव करते। बाप भी रूहानी बच्चों को देख हर्षित होते हैं और बच्चे भी रूहानी बाप से मिल हर्षित होते हैं क्योंकि कल्प-कल्प की पहचानी हुई रूहानी रूह जब अपने बुद्धियोग द्वारा जानती है कि हम भी वो ही कल्प पहले वाली आत्माएं हैं और उसी बाप को फिर से पा लिया है, तो उसी आनन्द, सुख के, प्रेम के, खुशी के झूले में झूलने का अनुभव करती है। ऐसा अनुभव कल्प पहले वाले बच्चे फिर से कर रहे हैं। वो ही पुरानी पहचान फिर से स्मृति में आ गई। ऐसे स्मृति स्वरूप स्नेही आत्मायें इस स्नेह के सागर में समाई हुई लवलीन आत्मायें ही इस विशेष अनुभव को जान सकती हैं। स्नेही आत्मायें तो सभी बच्चे हो, स्नेह के शुद्ध सम्बन्ध से यहाँ तक पहुँचे हो। फिर भी स्नेह में भी नम्बरवार हैं, कोई स्नेह में समाई हुई आत्मायें हैं और कोई मिलन मनाने के अनुभव को यथाशक्ति अनुभव करने वाले हैं। और कोई इस रूहानी मिलन मेले के आनन्द को समझने वाले, समझने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। फिर भी सभी को कहेंगे स्नेही आत्मायें। स्नेह के सम्बन्ध के आधार पर आगे बढ़ते हुए समाये हुए स्वरूप तक भी पहुँच जायेंगे। समझना समाप्त हो समाने का अनुभव हो ही जायेगा क्योंकि समाने वाली आत्माएं समान आत्माएं हैं। तो समान बनना अर्थात् स्नेह में समा जाना। तो अपने आपको स्वयं ही जान सकते हो कि कहाँ तक बाप समान बने हैं! बाप का संकल्प क्या है? उसी संकल्प समान मुझ लवलीन आत्मा का संकल्प है? ऐसे वाणी, कर्म, सेवा, सम्बन्ध सब में बाप समान बने हैं? वा अभी तक महान अन्तर है वा थोड़ा सा अन्तर है? अन्तर समाप्त होना ही मनमनाभव का महामंत्र है। इस महामंत्र को हर संकल्प और सेकण्ड में स्वरूप में लाना, इसी को ही समान और समाई हुई आत्मा कहा जाता है। बेहद का बाप, बेहद का संकल्प रखने वाला है कि सर्व बच्चे बाप समान बनें। ऐसे नहीं कि मैं गुरू बनूँ और यह शिष्य बनें। नहीं, बाप समान बन बाप के दिलतख्तनशीन बनें। यहाँ कोई गद्दी नशीन नहीं बनना है। वह तो एक दो बनेंगे लेकिन बेहद का बाप बेहद के दिलतख्तनशीन बनाते हैं, जो सर्व बच्चे अधिकारी बन सकते हैं। सभी को एक ही जैसा गोल्डन चांस है। चाहे आदि में आने वाले हैं, चाहे मध्य में वा अभी आने वाले हैं। सभी को पूरा अधिकार है समान बनने का अर्थात् दिलतख्तनशीन बनने का। ऐसे नहीं कि पीछे वाले आगे नहीं जा सकते हैं। कोई भी आगे जा सकता है - क्योंकि यह बेहद की प्रापर्टी है इसलिए ऐसा नहीं कि पहले वालों ने ले लिया तो समाप्त हो गई। इतनी अखुट प्रापर्टी है जो अब के बाद और भी लेने चाहें तो ले सकते हैं। लेकिन अधिकार लेने वाले के ऊपर है क्योंकि अधिकार लेने के साथ-साथ अधीनता के संस्कार को छोड़ना पड़ता है। कुछ भी नहीं सिर्फ अधीनता है लेकिन जब छोड़ने की बात आती है तो अपनी कमज़ोरी के कारण इस बात में रह जाते हैं और कहते हैं कि छूटता नहीं। दोष संस्कारों को देते कि संस्कार नहीं छूटता लेकिन स्वयं नहीं छोड़ते हैं। क्योंकि चैतन्य शक्तिशाली स्वयं आत्मा हैं वा संस्कार हैं? संस्कार ने आत्मा को धारण किया वा आत्मा ने संस्कार को धारण किया? आत्मा की चैतन्य शक्ति संस्कार हैं वा संस्कार की शक्ति आत्मा है? जब धारण करने वाली आत्मा है तो छोड़ना भी आत्मा को है, न कि संस्कार स्वयं छूटेंगे। फिर भिन्न-भिन्न नाम देते - संस्कार हैं, स्वभाव है, आदत है वा नेचर है। लेकिन कहने वाली शक्ति कौन सी है? आदत बोलती है वा आत्मा बोलती है? तो मालिक हैं या गुलाम हैं? तो अधिकार को अर्थात् मालिकपन को धारण करना इसमें बेहद का चांस होते हुए भी यथा शक्ति लेने वाले बन जाते हैं। कारण क्या हुआ? कहते हैं - मेरी आदत, मेरे संस्कार, मेरी नेचर। लेकिन मेरा कहते हुए भी मालिकपन नहीं है। अगर मेरा है तो स्वयं मालिक हुआ ना। ऐसा मालिक जो चाहे वह कर न सके, परिवर्तन कर न सके, अधिकार रख न सके, उसको क्या कहेंगे? क्या ऐसी कमजोर आत्मा को अधिकारी आत्मा कहेंगे? तो खुला चांस होते भी बाप नम्बरवार नहीं देते लेकिन स्वयं बना देते हैं। बाप का दिलतख्त इतना बेहद का बड़ा है जो सारे विश्व की आत्मायें भी समा सकती हैं इतना विराट स्वरूप है लेकिन बैठने की हिम्मत रखने वाले कितने बनते हैं! क्योंकि दिलतख्तनशीन बनने के लिए दिल का सौदा करना पड़ता है इसलिए बाप का नाम दिलवाला पड़ा है। तो दिल लेता भी है, दिल देता भी है। जब सौदा होने लगता है तो चतुराई बहुत करते हैं। पूरा सौदा नहीं करते, थोड़ा रख लेते हैं फिर क्या कहते? धीरे-धीरे करके देते जायेंगे। किश्तों में सौदा करना पसन्द करते हैं। एक धक से सौदा करने वाले एक के होने कारण सदा एकरस रहते हैं और सबमें नम्बर एक बन जाते हैं। बाकी जो थोड़ा-थोड़ा करके सौदा करते हैं - एक के बजाए दो नांव में पांव रखने वाले सदा कोई न कोई उलझन की हलचल में, एकरस नहीं बनते हैं इसलिए सौदा करना है तो सेकण्ड में करो। दिल के टुकड़े-टुकड़े नहीं करो। आज अपने से दिल हटाकर बाप से लगाई, एक टुकड़ा दिया अर्थात् एक किश्त दी। फिर कल सम्बन्धियों से दिल हटाकर बाप को दी, दूसरी किश्त दी, दूसरा टुकड़ा दिया, इससे क्या होगा? बाप की प्रापर्टी के अधिकार के भी टुकड़े के हकदार बनेंगे। प्राप्ति के अनुभव में सर्व अनुभूतियों के अनुभव को पा नहीं सकेंगे। थोड़ा-थोड़ा अनुभव किया इससे सदा सम्पन्न, सदा सन्तुष्ट नहीं होंगे इसलिए कई बच्चे अब तक भी ऐसे ही वर्णन करते है कि जितना, जैसा होना चाहिए वह इतना नहीं है। कोई कहते पूरा अनुभव नहीं होता, थोड़ा होता है। और कोई कहते, होता है लेकिन सदा नहीं होता क्योंकि पूरा फुल सौदा नहीं किया तो अनुभव भी फुल नहीं होता है। एक साथ सौदे का संकल्प नहीं किया। कभी-कभी करके करते हैं तो अनुभव भी कभी-कभी होता है। सदा नहीं होता। वैसे तो सौदा है कितना श्रेष्ठ प्राप्ति वाला। भटकी हुई दिल देना और दिलाराम बाप के दिलतख्त पर आराम से अधिकार पाना। फिर भी सौदा करने की हिम्मत नहीं। जानते भी हैं, कहते भी हैं लेकिन फिर भी हिम्मतहीन भाग्य पा नहीं सकते। है तो सस्ता सौदा ना या मुश्किल लगता है? कहने में सब कहते कि सस्ता है। जब करने लगते हैं तो मुश्किल बना देते हैं। वास्तव में तो देना, देना नहीं है। लोहा दे करके हीरा लेना, तो यह देना हुआ वा लेना हुआ? तो लेने की भी हिम्मत नहीं है क्या? इसलिए कहा कि बेहद का बाप देता सबको एक जैसा है लेकिन लेने वाले खुला चांस होते भी नम्बरवार बन जाते हैं। चांस लेने चाहो तो ले लो फिर यह उल्हना भी कोई नहीं सुनेगा कि मैं कर सकता था लेकिन यह कारण हुआ। पहले आता तो आगे चला जाता था। यह परिस्थितियाँ नहीं होती तो आगे चला जाता। यह उल्हनें स्वयं के कमजोरी की बातें हैं। स्व-स्थिति के आगे परिस्थिति कुछ कर नहीं सकती। विघ्न-विनाशक आत्माओं के आगे विघ्न पुरुषार्थ में रुकावट डाल नहीं सकता। समय के हिसाब से रफ्तार का हिसाब नहीं। दो साल वाला आगे जा सकता, दो मास वाला नहीं जा सकता, यह हिसाब नहीं। यहाँ तो सेकण्ड का सौदा है। दो मास तो कितना बड़ा है। लेकिन जब से आये तब से तीव्रगति है? तो सदा तीव्रगति वाले कई अलबेली आत्माओं से आगे जा सकते हैं इसलिए वर्तमान समय को और मास्टर सर्वशक्तिमान आत्माओं को यह वरदान है - जो अपने लिए चाहो जितना आगे बढ़ना चाहो, जितना अधिकारी बनने चाहो उतना सहज बन सकते हो क्योंकि वरदानी समय है। वरदानी बाप की वरदानी आत्माएं हो। समझा - वरदानी बनना है तो अभी बनो, फिर वरदान का समय भी समाप्त हो जायेगा। फिर मेहनत से भी कुछ पा नहीं सकेंगे इसलिए जो पाना है वह अभी पा लो। जो करना है अभी कर लो। सोचो नहीं लेकिन जो करना है वह दृढ़ संकल्प से कर लो और सफलता पा लो। अच्छा।

ऐसे सर्व अधिकारी, सेकण्ड में सौदा करने वाले अर्थात् जो सोचा वह किया - ऐसे सदा हिम्मतवान श्रेष्ठ आत्मायें, सदा मालिक बन परिवर्तन की शक्ति द्वारा कमज़ोरियों को मिटाने वाले, जो श्रेष्ठ कर्म करने चाहे वह करने वाले, ऐसे मास्टर सर्वशक्तिमान, दिलतख्तनशीन, अधिकारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ:- अपने को सदा सेवाधारी समझकर सेवा पर उपस्थित रहते हो ना? सेवा की सफलता का आधार, सेवाधारी के लिए विशेष क्या है? जानते हो? सेवाधारी सदा यही चाहते हैं कि सफलता हो लेकिन सफल होने का आधार क्या है? आजकल विशेष किस बात पर अटेन्शन दिला रहे हैं? (त्याग पर) बिना त्याग और तपस्या के सफलता नहीं। तो सेवाधारी अर्थात् त्याग मूर्त और तपस्वी मूर्त। तपस्या क्या है? एक बाप दूसरा न कोई - यह है हर समय की तपस्या। और त्याग कौनसा है? उस पर तो बहुत सुनाया है लेकिन सार रूप में सेवाधारी का त्याग - जैसा समय, जैसी समस्यायें हों, जैसे व्यक्ति हों वैसे स्वयं को मोल्ड कर स्व कल्याण और औरों का कल्याण करने के लिए सदा इजी रहें। जैसी परिस्थिति हो अर्थात् कहाँ अपने नाम का त्याग करना पड़े, कहाँ संस्कारों का, कहाँ व्यर्थ संकल्पों का, कहाँ स्थूल अल्पकाल के साधनों का... तो उस परिस्थिति और समय अनुसार अपनी श्रेष्ठ स्थिति बना सकें, कैसा भी त्याग उसके लिए करना पड़े तो कर लें, अपने को मोल्ड कर लें इसको कहा जाता है त्याग मूर्त। त्याग, तपस्या फिर सेवा। त्याग और तपस्या ही सेवा की सफलता का आधार है। तो ऐसे त्यागी जो त्याग का भी अभिमान न आये कि मैंने त्याग किया। अगर यह संकल्प भी आता तो यह भी त्याग नहीं हुआ।

सेवाधारी अर्थात् बड़ों के डायरेक्शन को फौरन अमल में लाने वाले। लोक संग्रह अर्थ कोई डायरेक्शन मिलता है तो भी सिद्ध नहीं करना चाहिए कि मैं राइट हूँ। भल राइट हो लेकिन लोक-संग्रह अर्थ निमित्त आत्माओं का डायरेक्शन मिलता है तो सदा - ‘जी हाँ',’जी हाज़िर', करना यही सेवाधारियों की विशेषता है। यह झुकना नहीं है, नीचे होना नहीं है लेकिन फिर भी ऊंचा जाना है। कभी-कभी कोई समझते हैं अगर मैंने किया तो मैं नीचे हो जाऊंगी, मेरा नाम कम हो जायेगा, मेरी पर्सनैलिटी कम हो जायेगी, लेकिन नहीं। मानना अर्थात् माननीय बनना, बड़ों को मान देना अर्थात् स्वमान लेना। तो ऐसे सेवाधारी हो जो अपने मान शान का भी त्याग कर दो। अल्पकाल का मान और शान क्या करेंगे। आज्ञाकारी बनना ही सदाकाल का मान और शान लेना है। तो अविनाशी लेना है या अभी-अभी का लेना है! तो सेवाधारी अर्थात् इन सब बातों के त्याग में सदा एवररेडी। बड़ों ने कहा और किया। ऐसे विशेष सेवाधारी सर्व के और बाप के प्रिय होते हैं। झुकना अर्थात् सफलता का फलदायक बनना। यह झुकना छोटा बनना नहीं है लेकिन सफलता के फल सम्पन्न बनना है। उस समय भल ऐसे लगता है कि मेरा नाम नीचे जा रहा है, वह बड़ा बन गया, मैं छोटी बन गई। मेरे को नीचे किया गया उसको ऊपर किया गया। लेकिन होता सेकण्ड का खेल है। सेकण्ड में हार हो जाती और सेकण्ड में जीत हो जाती। सेकण्ड की हार सदा की हार है जो चन्द्रवंशी कमानधारी बना देती है और सेकण्ड की जीत सदा की खुशी प्राप्त कराती, जिसकी निशानी श्रीकृष्ण को मुरली बजाते हुए दिखाया है। तो कहाँ चन्द्रवंशी कमानधारी और कहाँ मुरली बजाने वाले। तो सेकण्ड की बात नहीं है लेकिन सेकण्ड का आधार सदा पर है। तो इस राज़ को समझते हुए सदा आगे चलते चलो। ब्रह्मा बाप को देखा - ब्रह्मा बाप ने अपने को कितना नीचे किया, इतना निर्माण होकर सेवाधारी बना जो बच्चों के पांव दबाने के लिए भी तैयार। बच्चे मेरे से आगे हैं, बच्चे मेरे से भी अच्छा भाषण कर सकते हैं। ‘पहले मैं' कभी नहीं कहा। आगे बच्चे, पहले बच्चे, बड़े बच्चे कहा, तो स्वयं को नीचे करना नीचे होना नहीं है, ऊंचा जाना है। तो इसको कहा जाता है सच्चे नम्बरवन योग्य सेवाधारी। लक्ष्य तो सभी का ऐसा ही है ना। गुजरात से बहुत सेवाधारी निकले हैं लेकिन गुजरात की नदियां गुजरात में ही बह रही हैं, गुजरात कल्याणकारी नहीं, विश्व कल्याणकारी बनो। सदा एवररेडी रहो। आज कोई भी डायरेक्शन मिले - बोलो हाँ जी। क्या होगा, कैसे होगा - ट्रस्टी को क्या, कैसे का क्या सोचना। अपनी आफर सदा करो तो सदा उपराम रहेंगे। लगाव, झुकाव से किनारा हो जायेगा। आज यहाँ हैं कल कहाँ भी चले जायें, तो उपराम हो जायेंगे। अगर समझते, यहाँ ही रहना है तो फिर थोड़ा बनाना है, बनना है... यह रहेगा। आज यहाँ कल वहाँ। पंछी हैं आज एक डाल पर, कल दूसरी डाल पर, तो स्थिति उपराम रहेगी, तो मन की स्थिति सदा उपराम चाहिए। चाहे कहाँ 20 वर्ष भी रहो लेकिन स्वयं सदा एवररेडी रहो। स्वयं नहीं सोचो कि कैसे होगा, इसको कहा जाता है महात्यागी। अच्छा।
वरदान:
संगमयुग के समय का महत्व जान परमात्म दुआओं से झोली भरने वाले मायाजीत भव
संगमयुग का एक सेकण्ड और युगों के एक वर्ष से भी ज्यादा है, इस समय एक सेकण्ड भी गंवाया तो सेकण्ड नहीं लेकिन बहुत कुछ गंवाया। इतना महत्व सदा याद रहे तो हर सेकण्ड परमात्म दुआयें प्राप्त करते रहेंगे और जिसकी झोली परमात्म दुआओं से सदा भरपूर है उसके पास कभी माया आ नहीं सकती। दूर से ही भाग जायेगी। तो समय को बचाना-यही तीव्र पुरूषार्थ है। तीव्र पुरूषार्थी अर्थात् सदा मायाजीत।
स्लोगन:
जो आज्ञाकारी हैं वही बाप की वा परिवार की दुआओं के पात्र हैं।