Monday, February 27, 2017

मुरली 27 फरवरी 2017

27-02-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन 

“मीठे बच्चे– माया की बीमारी से छूटने के लिए ज्ञान और योग का एपिल (सेब) रोज खाते रहो।”
प्रश्न:
कर्मातीत अवस्था में जाने का पुरूषार्थ क्या है?
उत्तर:
ऐसा अभ्यास करो जो बुद्धि में सिवाए बाप के और कोई की याद न रहे। अन्त मती सो गति... जब ऐसी अवस्था हो जो बुद्धि में कोई भी याद न रहे तब सदा हर्षित भी रहेंगे और कर्मातीत अवस्था को भी पा लेंगे। तुम्हारा पुरूषार्थ ही है आत्म-अभिमानी बनने का। आत्मा, आत्मा को देखे, आत्मा से बात करे तो खुशी होती रहेगी। स्थिति अचल हो जायेगी।
गीत:
तुम्ही हो माता...   
ओम् शान्ति।
गायन तो यथार्थ है क्योंकि सारी सृष्टि का रचयिता और फिर जिन द्वारा रचना करते हैं उसको ही कहा जाता है मात-पिता। रचता कोई भी साकार व आकार को नहीं कहा जाता। रचता एक निराकार को ही कहा जाता है। अभी यह समझ तुम बच्चों को आई है वह तो सिर्फ गाते हैं। भक्तों की बुद्धि में सिर्फ यही रहता कि बस भक्ति करनी है, परन्तु किसकी भक्ति करनी है, कुछ भी पता नहीं। भक्ति करनी चाहिए एक भगवान की, जिसे मात-पिता कहते हैं, न कि सैकड़ों की। कहते हैं भगवान आकर भक्तों को भक्ति का फल देंगे। फल अथवा वर्सा एक ही बात है। बच्चा पैदा होता है तो मात-पिता के वर्से का फल मिलता है। बाकी यह गायन तो है भक्ति मार्ग का। याद करते हैं कि आकरके हमको भक्ति का फल दो। ज्ञान और भक्ति भी कहते हैं। भक्ति का फल है ज्ञान। बरोबर तुम अब जानते हो भक्ति कब से शुरू हुई है। यह कोई को पता नहीं, ज्ञान का समय है दिन। भक्ति का समय है रात। दिन और रात सो तो जरूर आधा-आधा होगा, शास्त्रों में कल्प की आयु लम्बी लिख दी है। ज्ञान को बहुत समय दे दिया है और भक्ति को थोड़ा समय दिया है। द्वापर कलियुग की आयु कम दिखाई है। यह रात और दिन का पूरा हिसाब तो ठहरा नहीं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष भी कहते हैं। शास्त्रों में यह अक्षर हैं। कहते हैं तुम लोग शास्त्रों को नहीं मानते हो फिर शास्त्रों के अक्षर क्यों लेते हो। तो तुमको समझाना है– शास्त्रों का सार तो बाबा ही बताते हैं। फलाने शास्त्र में यह राइट नहीं है, यह राइट है। रिफरेन्स तो जरूर देना पड़े। जैसे अब प्रदर्शनी में चित्र दिखाते हैं हनूमान, गणेश, वामन अवतार आदि आदि... समझाने लिए दिखाना तो पड़े ना। जो बातें रांग हैं वह वर्णन कर फिर राइट क्या है, वह समझाते हैं। अब बाबा की महिमा गाते हैं शिवाए नम: फिर लिखा है त्वमेव माताश्च पिता.. नाम तो देना पड़े ना। मनुष्यों को यह पता नहीं कि हमारा बाप कौन है। कहते भी हैं ओ गॉड फादर। बुद्धि उधर जाती है। मनुष्य प्रार्थना आदि करते हैं तो जानते हैं परमपिता परमात्मा परलोक में निवास करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर को याद करेंगे तो बुद्धि सूक्ष्मवतन में जायेगी। फर्स्ट, सेकेण्ड फिर थर्ड फ्लोर है। अब मुख्य बात है बाप को भूले हैं। बाप आकर उल्हना देते हैं। तुमने हमारी कितनी ग्लानी की है। बाप जो सर्व को सद्गति देने वाला है, उनकी फिर सर्व ने बैठ ग्लानी की है। भगवानुवाच है ना यदा यदाहि... भारतवासी अपने धर्म की ग्लानी करते हैं। कहते हैं ईश्वर सर्वव्यापी है। क्या सबमें ईश्वर है? तो कह देते है कच्छ अवतार, मच्छ अवतार, वाराह अवतार... बाप तो भारतवासी बच्चों को ही कहते हैं क्योंकि बच्चे ही ग्लानी करते हैं। यह मुरब्बी बच्चा (ब्रह्मा) भी ग्लानी करता था। यह ग्लानी भी ड्रामा में नूंधी हुई थी। तब तो पाप आत्मा बनते हैं। बाप ने तो सबको पावन बनाया था क्योंकि पतित-पावन है। पावन बनाकर विश्व का मालिक बनाते हैं। बनाने वाले बाप को कितनी गाली देते हैं। जब समझाते हैं तो उस समय मान लेते हैं, समाचार भी आता है, इतनों ने सही की कि बरोबर आपकी बात राइट है। अब कहते हैं श्रीमत भगवत गीता, तो भगवान की है श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ मत,... ऊंचे ते ऊंचे की मत भी ऊंची होगी ना। वह आकर पतित भ्रष्टाचारी को श्रेष्ठाचारी बनाते हैं। तो पहले-पहले एक का परिचय देना पड़ता है। तुम बच्चों में भी नम्बरवार तो हैं ही। बहुत बच्चे लिखते हैं बाबा क्या करें, माया का तूफान हमको ठहरने नहीं देता है। हमको यह-यह विकार तंग करते हैं। बाप कहते हैं तुमको इन पर विजय पानी है। नहीं तो पद भ्रष्ट हो जायेगा। शिक्षक ही अगर ऐसा कुछ काम करेंगे तो जरूर औरों को संशय पड़ेगा कि खुद की चलन तो ऐसी है, और दूसरों को ऐसे समझाते हैं। विकार भी कोई सेमी होता है, सतो रजो तमो हर बात में होता है। सतयुग को सतो ऊंच कहा जाता है, कलियुग को तमो नीच कहा जाता है। दुनिया भ्रष्टाचारी कहते हैं। परन्तु अपने को कोई भ्रष्टाचारी समझते नहीं हैं। बाप समझाते हैं इस रावण राज्य में एक भी श्रेष्ठाचारी नहीं है। समझो कोई से पूछा जाता है ऊंचे ते ऊंचा कौन? तो कहेंगे भगवान है। उनका आक्यूपेशन जानते हो? नहीं। या तो कहेंगे सन्यासी ही ऊंच हैं क्योंकि पवित्र रहते हैं। खुद भी सन्यासियों को फालो करते हैं। नमस्ते करते हैं तो उन्हों से पूछना चाहिए, सन्यासियों से भी जरूर कोई ऊंचा होगा! सन्यासी भी भगवान की साधना करते हैं। आजकल तो चित्र भी बहुत बनाये हैं। सबसे ऊंचा परमात्मा को ही रखते हैं। अब राम वा कृष्ण के आगे शिवालिंग रखना यह भी बड़ाई है। नहीं तो वह कोई शिव की पूजा थोड़ेही करते हैं। वह तो खुद ही राज्य करते हैं। जब वह पतित बनते हैं तब पूजने लगते हैं। ऊंचे ते ऊंच निराकार परमात्मा को ही कहा जाता है– पतित-पावन सर्व का सद्गति दाता, सबका लिबरेटर। अपने साथ सबको ले जायेंगे। तुम जानते हो वह हमारा बाप है। हम सब इस समय बीमार हैं, ज्ञान से एवरहेल्दी और एवरवेल्दी बन जाते हैं। कहते भी हैं रोज एपिल खाओ तो एवरहेल्दी बन जायेंगे। यह तो तुम प्रैक्टिकल देख रहे हो। माया ने सबको बीमार बना दिया है। अब सबको हेल्दी, वेल्दी बनाने वाला एक बाप ही है। सूक्ष्मवतन में भी आत्मायें हेल्दी हैं। यहाँ अनहेल्दी आत्मायें हैं फिर मूलवतन से पहले जब आत्मायें आयेंगी तो सुख ही देखेंगी। तो बाप ब्रह्मा द्वारा हमको बहुत सुख देते हैं। अब विनाश तो होना ही है। इस यज्ञ से ही विनाश ज्वाला निकली है। वो लोग राय कर रहे हैं शान्ति कैसे हो, परन्तु यह भी गाया जाता है नर चाहत कुछ और... शान्ति भी तब होगी जब विनाश होगा। फिर सभी आत्मायें मुक्तिधाम में चली जायेंगी। विनाश होने के सिवाए और कोई उपाय तो हो ही नहीं सकता। यह भी उन्हों को बतावे कौन? इन भीष्मपितामह आदि को तो पिछाड़ी में ज्ञान मिलना है। मनुष्य शान्ति के लिए उपाय ढूंढते हैं कि आपस में मिलकर एक हो जाएं। परन्तु ऐसा तो होना ही नहीं है। आगे भी विनाश हुआ था। यादव और कौरव भी थे। गीता का भगवान भी आया था। अब पतित दुनिया है, इसमें श्रेष्ठाचारी कोई हो न सके। सबसे श्रेष्ठ हैं लक्ष्मी-नारायण, यही सतयुग में राज्य करते थे। अब तो भ्रष्टाचार की वृद्धि होती गई है, तो जरूर विनाश होना ही है। विनाश के बाद ही सब सुख शान्ति को पा सकेंगे। सबको समझाना है कि हम आदि सनातन देवीदेवता धर्म के हैं। पहले वही धर्म था, अब नहीं है। फिर से उसकी स्थापना हो रही है। इस समय हम ब्राह्मण हैं न कि देवता। जब कोई भाषण करने के लिए स्टेज पर आते हैं तो कुछ न कुछ ख्याल करके, विचार करके आते हैं, तो यह- यह बोलेंगे। हमारे बच्चे तो समझते हैं क्या बोलना है। शान्ति स्थापन करने वाला तो एक ही सर्व का सद्गति दाता बाप है, वही लिबरेटर है। यह समय ही है– सबको वापिस ले जाने का। बाबा बच्चों से पूछते हैं बच्चे, तुम अपने को सतयुग में चलने लायक समझते हो? रावण पर विजय पाई है? कहते हैं बाबा विजय पाने के लिए पुरूषार्थ कर रहे हैं। हाथ तो सब उठाते हैं क्योंकि लज्जा आती है। बाबा कहते हैं अपनी शक्ल तो देखो, कितना समय बाप को याद करते है? ऐसी अवस्था चाहिए जो अन्त में कोई भी याद न आये, तब अन्त मति सो गति होगी। कर्मातीत अवस्था के समीप जा सकेंगे। सदा हर्षित भी तब रह सकेंगे जब दूसरों की सेवा करेंगे। तुम रूहानी सोशल वर्कर हो। तुम्हारे बिगर रूह को इन्जेक्शन कोई भी लगा न सके। गाया भी जाता है ज्ञान अंजन सतगुरू दिया... आत्मा को अब मालूम पड़ा है कि मुझे सारी सृष्टि के आदि मध्य अन्त का ज्ञान मिल गया है। यह आत्मा ने कहा शरीर द्वारा– ज्ञान सागर को। अब हमको वापस जाना है– यह बहुत खुशी की बात है। पुराना चोला छोड़कर नया चोला लेना है। इस कारण नाम ही है श्याम सुन्दर। तुम जानते हो हम सुन्दर थे, अब श्याम बने हैं फिर सुन्दर बनेंगे। बाबा सुन्दर बनाते हैं, माया रावण श्याम बनाता है। काम चिता पर बैठने से श्याम बन जाते हैं। यह बड़ी समझने की सहज बातें हैं। नॉलेज तो स्टूडेन्ट की बुद्धि में नम्बरवार ही धारण होती है। कोई तो बहुत डलहेड हैं। टीचर कहते हैं पढ़ने वाले बहुत डल हैं। देह-अभिमान बहुत है। आत्म-अभिमानी रहें तो सदा हर्षित रहें। आत्मा, आत्मा को देखे अर्थात् अपने भाई को देखकर खुश होती रहे। बाबा बच्चों को देख खुश होते हैं। बाबा कहते हैं बच्चे मैं आया हूँ तुमको माया से लिबरेट कर वापिस साथ ले जाने। इस तन में शिवबाबा की प्रवेशता होती है; वह भी जरूर भ्रकुटी के बीच में ही आयेंगे। ऐसे थोड़ेही ऊपर से गंगा बहेगी। शिव की सवारी बैल पर दिखाते हैं। बैल की भ्रकुटी में शिव का चित्र दिखाया है। आत्मा तो जरूर भ्रकुटी में ही रहेगी। जो आत्मा का स्थान है जरूर वहाँ ही बैठेगी। गुरू लोग अपने चेले को बाजू में बिठाते हैं। तो वह सतगुरू भी आकर बाजू में बैठते हैं। गुरू ब्रह्मा कहते हैं, विष्णु को वा शंकर को गुरू नहीं कहेंगे। वही ब्रह्मा फिर विष्णु के दो रूप बनते हैं। गुरू तो शिव को कह सकते हैं क्योंकि सबकी सद्गति करते हैं। ऊंचे ते ऊंच फिर भी भगवान है। कितना अच्छी रीति समझाया जाता है। अच्छा।

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) सदा हर्षित रहने के लिए आत्म-अभिमानी बनना है। हम आत्मा भाई-भाई हैं, यह दृष्टि पक्की करनी है।
2) रूहानी सोशल वर्कर बन आत्मा को ज्ञान का इन्जेक्शन लगाना है। सबकी रूहानी सेवा करनी है।
वरदान:
मन और बुद्धि को सदा सेवा में बिजी रखने वाले निर्विघ्न सेवाधारी भव
जो जितना सेवा का उमंग-उत्साह रखते हैं उतना निर्विघ्न रहते हैं क्योंकि सेवा में बुद्धि बिजी रहती है। खाली रहने से किसी और को आने का चांस है और बिजी रहने से सहज निर्विघ्न बन जाते हैं। मन और बुद्धि को बिजी रखने के लिए उसका टाइम-टेबल बनाओ। सेवा वा स्वयं के प्रति जो लक्ष्य रखते हो उस लक्ष्य को प्रैक्टिकल में लाने के लिए बीच-बीच में अटेन्शन जरूर चाहिए। अटेन्शन कभी टेन्शन में बदली न हो, जहाँ टेन्शन होता है वहाँ मुश्किल हो जाता है।
स्लोगन:
सेवा से जो दुआयें मिलती हैं-वही तन्दरूस्त रहने का साधन हैं।