Saturday, January 2, 2016

मुरली 03 जनवरी 2016

03-01-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:10-01-79 मधुबन

“अब वेस्ट और वेट को समाप्त करो”
बापदादा आज विशेष बच्चों की लगन और स्नेह को देख हर्षित हो रहे हैं - कैसे लगन से परवाने समान शमा पर आये हैं। सभी परवानों की एक ही विशेष मिलन की लगन है, इसलिए बापदादा को भी मिलन मनाने के लिए साकार महफिल में आना पड़ता है। हरेक के पुरूषार्थ की रफ्तार को देख बापदादा जानते हैं कि हरेक यथाशक्ति मंजिल पर पहुंचने का संकल्प कर चल रहे हैं। संकल्प एक है, मंजिल भी एक है गाइड भी एक है, श्रीमत भी एक ही है फिर भी नम्बरवार क्यों हैं? है भी सहज मार्ग और वर्तमान स्वरूप भी सहयोगी का है फिर भी स्पीड में अन्तर क्यों है? कोई नम्बरवन और कोई फिर 16 हजार की माला का भी लास्ट मणका। दोनों ही के पुरूषार्थ का समय और साथी एक ही है, पढ़ाई का स्थान भी लास्ट अथवा फर्स्ट का एक ही है, शिक्षक भी सबका एक है, शिक्षा भी एक ही है, फर्स्ट वाले के लिए स्पेशल ट्यूशन भी नहीं है फिर भी इतना अन्तर क्यों? कारण क्या है? संगमयुग के टाइटिल्स भी बहुत बड़े हैं - फर्स्ट अथवा लास्ट के टाइटिल भी एक हैं - मास्टर सर्वशक्तिमान, मास्टर नॉलेजफुल, त्रिकालदर्शी, मास्टर जानीजाननहार फिर भी लास्ट क्यों? कुल भी एक ही ब्राह्मण कुल, वंश भी एक ब्रह्मा के हैं कर्तव्य भी एक विश्व कल्याण का है फिर भी इतना अन्तर क्यों? वर्सा भी बेहद के बाप का हरेक के लिए बेहद है, अर्थात् मुक्ति जीवन मुक्ति का अधिकार सभी के लिए समान है फिर इतना अन्तर क्यों? कारण क्या?

बापदादा ने सब बच्चों के पुरूषार्थ को देख मुख्य दो कारण देखे - एक तो वेस्ट अर्थात् व्यर्थ गंवाना दूसरा वेट अर्थात् वजन ज्यादा। जैसे आजकल के जमाने में शारीरिक रोगों का कारण वेट जास्ती है, सर्व बीमारियों का निवारण वेट कम करना है। वैसे पुरूषार्थ की गति के लास्ट और फर्स्ट का कारण भी वेट कम न करना जैसे शरीर में भारीपन के कारण आटोमेटिकली बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है, वैसे आत्मा के बोझ से आत्मिक रोग भी स्वत: पैदा हो जाते हैं। सबसे ज्यादा वेट बढ़ने का कारण जैसे शारीरिक हिसाब से ज्यादा वेट बढ़ने का कारण सड़ी हुई चीजें कहते हैं, वैसे यहाँ भी सड़ी हुई वस्तु अर्थात् बीती हुई बातें जो न सोचने की है अर्थात् न खाने की हैं, ऐसे सड़ी हुई बातों को बुद्धि द्वारा स्वीकार कर लेते हैं अथवा हर आत्माओं की कमियों वा अवगुणों का स्वयं में धारण करना इसको भी सड़ी हुई वस्तु कहेंगे। तली हुई वस्तु खाने में बड़ी अच्छी लगती हैं, अपनी तरफ आकर्षण भी बहुत करती हैं, न दिल होते भी थोड़ा सा खा लेते हैं, जितना ही आकर्षण वाली होती हैं उतना ही नुकसान वाली भी होती है। वैसे यहाँ फिर आकर्षण की चीजें हैं एक दो द्वारा व्यर्थ समाचार सुनना और सुनाना। रूप रूहरिहान का होता, लेन-देन करने का होता लेकिन उसकी रिजल्ट एक दो के प्रति घृणा दृष्टि होती है। समझते हैं मनोरंजन है लेकिन अनेकों के मन को रन्ज करते हैं। तो बाहर का रूप आकर्षण का है लेकिन रिजल्ट गिराना है। ऐसी बातों को बुद्धि द्वारा धारण करना अर्थात् स्वीकार करना, इस कारण वेट बढ़ जाता है। जैसे शारीरिक वेट बढ़ने के कारण दौड़ नहीं लगा सकेंगे, चढ़ाई नहीं चढ़ सकेंगे वैसे यहाँ भी पुरूषार्थ में तीव्र गति नहीं प्राप्त कर सकते। हर कदम में चढ़ती कला का अनुभव नहीं कर सकते। वजन भारी वाले हर स्थान पर सेट नहीं हो पाते। वजन भारी वाले को चलते-चलते एक तो रूकना पड़ता है दूसरा सहारा लेना पड़ता है। इसी रीति पुरूषार्थ में चलते-चलते थक जाते हैं अर्थात् विघ्नों के वश हो जाते हैं पार नहीं कर पाते हैं। साथ-साथ कोई न कोई आत्मा को सहारा बनाकर चल सकते। एक बाप का सहारा तो सभी को मिला हुआ है लेकिन यह आत्माओं का सहारा बनाकर चलते। अगर थोड़ा भी आत्माओं का सहारा अर्थात् सहयोग नहीं मिलता तो चल नहीं पाते।

बार-बार कहेंगे सहयोग मिले तो आगे बढ़ें, चान्स मिले कोई बढ़ावे तो आगे बढ़ें, क्योंकि स्वयं भारी होने के कारण दूसरे के सहारे द्वारा अपना बोझ हल्का करना चाहते हैं इसलिए बापदादा भी कहते हैं वेट कम करो। इसका साधन है – जैसे शारीरिक हल्केपन का साधन है एक्सरसाइज़। वैसे आत्मिक एक्सरसाइज़ योग अभ्यास द्वारा अभी-अभी कर्मयोगी अर्थात् साकारी स्वरूपधारी बन साकार सृष्टि का पार्ट बजाना, अभी-अभी आकारी फरिश्ता बन आकारी वतनवासी अव्यक्त रूप का अनुभव करना, अभी-अभी निराकारी बन मूल वतनवासी का अनुभव करना, अभी-अभी अपने राज्य स्वर्ग अर्थात् वैकुण्ठवासी बन देवता रूप का अनुभव करना। ऐसे बुद्धि की एक्सरसाइज़ करो तो सदा हल्के हो जायेंगे। भारीपन खत्म हो जायेगा। पुरूषार्थ की गति तीव्र हो जायेगी। सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होगी। सदा बाप के सहारे अर्थात् छत्रछाया के नीचे अनुभव करेंगे। दौड़ लगाने के बजाए हाई जम्प वाले हो जायेंगे। तो साधन है एक एक्सरसाइज़, दूसरा है खान-पान की परहेज़ करो। बुद्धि द्वारा कोई भी अशुद्ध वस्तु का सेवन करना अर्थात् धारण करना, इसकी परहेज़ करो। जो सुनाया सड़ी हुई और तली हुई वस्तु का सेवन नहीं करो। दूसरा वेस्ट न करो। क्यों वेस्ट करते हो? जो वस्तु जैसी मूल्यवान है उसको वैसे यूज़ न करना इसको भी वेस्ट कहा जाता। बाप द्वारा इस समय संगमयुग का खजाना मिला है, संगमयुग का सेकेण्ड अनेक पदमों की वैल्यू का है। सेकेण्ड को भी स्वयं के प्रति वा सर्व के प्रति पदमों के मूल्य समान यूज़ नहीं किया, यह भी वेस्ट किया अर्थात् जैसा मूल्य है वैसे जमा नहीं किया। हर सेकेण्ड में पदमों की कमाई का वरदान ड्रामा में संगम के समय को ही मिला हुआ है। ऐसे वरदान को स्वयं प्रति भी जमा नहीं किया, औरों के प्रति भी दान नहीं किया तो इसको भी व्यर्थ कहा जायेगा। ऐसे नहीं समझो कि कोई पाप तो नहीं किया वा कोई भूल तो की नहीं, लेकिन समय का लाभ न लेना भी व्यर्थ है। मिले हुए वरदान को न स्वयं प्राप्त किया न कराया तो इसको भी वेस्ट अर्थात् व्यर्थ कहेंगे। इसी प्रकार संकल्प भी एक खजाना है, ज्ञान भी एक खजाना है, स्थूल धन भी ईश्वर अर्थ समर्पण करने से एक नया पैसा एक रतन समान वैल्यू का हो जाता है, इन सब खजानों को स्वयं के प्रति वा सेवा के प्रति कार्य में नहीं लगाते तो भी व्यर्थ कहेंगे। हर सेकेण्ड स्व कल्याण वा विश्व कल्याण के प्रति हो। ऐसे सर्व खजाने बाप ने जिस प्रति दिये हैं उसी कार्य में लगाते हो! कई बच्चे कहते हैं, न अच्छा किया न बुरा किया, तो किस खाते में गया? वैल्यू न रखना इसको भी व्यर्थ कहेंगे। इस कारण पुरूषार्थ की रफ्तार तीव्र नहीं हो पाती और इसी कारण नम्बरवार बन जाते हैं। तो अब समझा नम्बरवार बनने का कारण क्या हुआ। वेट और वेस्ट। इन दोनों बातों को अब समाप्त करो तो फर्स्ट डिवीजन में आ जायेंगे। नहीं तो जास्ती वेट वाले को फिर वेट (इन्तजार) भी करना पड़ेगा। फर्स्ट राज्य के बजाए सेकेण्ड राज्य में आना पड़ेगा। वेट करना पसन्द है वा सीट लेना पसन्द है? अब क्या करेंगे, डबल लाइट बन जाओ! अच्छा-

ऐसे सदा फरिश्ते समान हल्के रहने वाले हर खजाने को सदा स्वयं प्रति वा सर्व प्रति कार्य में लगाने वा सदा बाप के सहारे का अनुभव कर सहजयोगी जीवन अपनाने वाले, ऐसे तीव्र पुरुषार्थी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

दीदी- दादी के साथ:- महारथी अर्थात् वेटलेस - ऐसे महारथी सदा उड़ने वाली परियों के समान दिखाई देंगे। यह है ज्ञान परियाँ, ज्ञान और विज्ञान इन दोनों पंखों वाली परियों का स्थान परिस्तान है। परिस्तान किसको कहते हैं? स्वर्ग को तो परिस्तान कहते ही हैं लेकिन अब भी इस स्थूल स्थान से पर स्थान परिस्थान कौनसा है? दिलतख्त। सबसे बड़े से बड़ा दिलतख्त है, तो दिलतख्तनशीन अर्थात् परिस्तान की परियाँ। इसको कहा जाता है परिस्तान की परियाँ। सदा स्थान ही यह हुआ। तख्त से नीचे नहीं आते। तख्त से नीचे आना अर्थात् बाप के सम्मुख के बजाए किनारे होना। जैसे बाप सदा बच्चों के सन्मुख हैं वैसे बच्चे भी सदा बाप के सन्मुख हैं। बाप के सन्मुख कौन रहते? बच्चे। भक्त किनारे रहते, बच्चे सदा सन्मुख रहते। तो इसको कहेंगे परिस्तान की परियाँ। परियों का भी संगठन होता है, साथ-साथ उड़ती हैं। जहाँ चाहें वहाँ उड़कर पहुंच सकती हैं। कोई आधार की आवश्यकता नहीं। तो ऐसी परिस्तान की परियाँ जो जब चाहें जहाँ चाहें वहाँ उड़ सकें - इसको कहा जाता है महारथी। महारथियों की अवस्था का यादगार चित्र भी है, हरेक गोपी के साथ गोपी वल्लभ का चित्र देखा है! हरेक गोपी के मुख से यही निकलता है कि मेरा गोपी वल्लभ। तो ऐसे सदा साथ का चित्र यह है स्थिति का यादगार चित्र। एक दो से अलग नहीं, सदा साथ हैं। बाप पर हर एक का पूरा अधिकार है। ऐसे अधिकारियों का यह चित्र है जिन्होंने सदा के लिए बाप को अपना साथी बना लिया है। यह है महारथियों की स्थिति का चित्र। महारथी अर्थात् सदा साथ रहने वाले। साथ निभाने का यह चित्र है - महारथियों के सिवाए और आत्मायें तो कब सन्मुख, कब किनारा कर लेती। सदा साथ का अनुभव नहीं कर सकती। साथ छूटता और साथ पकड़ते हैं इसलिए उन्हों का यह यादगार नहीं कह सकते। अच्छा-

महारथियों ने पुरूषार्थ की कोई नई इन्वेन्शन निकाली है जो बहुत रिफाइन हो, संकल्प किया और हुआ - इसको कहते हैं रिफाइन। ऐसा सहज साधन निकालो जिसमें साधना कम हो और सिद्धि ज्यादा हो। जैसे आजकल साइन्स वाले इन्वेन्शन करते हैं दु:ख कम हो और जिस कार्य अर्थ करते हैं वह सफलता भी ज्यादा हो। इसी प्रकार पुरूषार्थ के साधनों को अपने अनुभव के आधार से ऐसा सहज इनवैन्ट करो, जैसे सेकेण्ड में साइन्स के साधन विधि को पाते हैं वैसे यह साइलेन्स का साधन सेकेण्ड में विधि को प्राप्त हो। बाप नॉलेज देते हैं लेकिन जैसे साइन्स प्रयोगशालाओं में सब इन्वेन्शन प्रैक्टिकल में लाते हैं, ऐसे प्रयोग में तो आप बच्चे लाते हैं, प्रयोग में लाने वाले साधन अर्थात् अनुभव में लाने वाले साधन, उनमें से ऐसा कोई सहज साधन सुनाओ जिसमें मेहनत कम हो और अनुभव ज्यादा हो। ऐसे चारों ओर के वातावरण, चारों ओर की कमजोर आत्माओं के समाचार प्रमाण ऐसा साधन निकालो। जैसी बीमारी होती है वैसी दवाई निकाली जाती है। तो चारों ओर के समाचार अनुसार ऐसा साधन निकालो और फिर प्रैक्टिकल करके दिखायें। अब महारथियों को ऐसा नया साधन इनवैन्ट करना चाहिए। ऐसा ग्रुप हो जिसको रिसर्च ग्रुप कहते हैं, अब समझा महारथियों को क्या करना है, फिर कारोबार भी हल्की हो जायेगी।

जैसे पहले-पहले मौन व्रत रखा था तो सब फ़्री हो गये थे, टाइम बच गया था - तो ऐसा कोई साधन निकालो जिससे सबका टाइम बच जाये। मन का मौन हो, व्यर्थ संकल्प आवे ही नहीं। यह भी मन का मौन है ना। जैसे मुख से आवाज न निकले वैसे व्यर्थ संकल्प न आयें - यह भी मन का मौन है। तो व्यर्थ खत्म हो जायेगा। सब समय बच जायेगा, तब फिर सेवा आरम्भ होगी। मन के मौन से नई इन्वेन्शन निकलेगी। जैसे शुरू के मौन से नई रंगत निकली वैसे इस मन के मौन से नई रंगत होगी। तो अभी पहले निमित्त कौन बनेंगे? महारथी ग्रुप। जो बाप द्वारा युक्तियाँ मिलती रहती हैं उनको प्रयोग करने के रूप में लाओ। वह रूपरेखा सभी को नहीं आती। वर्णन करना आता है लेकिन उसी साधन से सिद्धि को प्राप्त करें, वह प्रयोग करना नहीं आता है इसलिए योग भी नहीं लगता। तो ऐसा प्लैन बनाओ जिससे सहज ही विधि प्राप्त हो। अच्छा।
वरदान:
तड़फती हुई भिखारी, प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने वाले सर्व खजाने से सम्पन्न भव!  
जैसे लहरों में लहराती व डूबती हुई आत्मा एक तिनके का सहारा ढूंढती है। ऐसे दु:ख की एक लहर आने दो फिर देखना अनेक सुख-शान्ति की भिखारी आत्मायें तड़फते हुए आपके सामने आयेंगी। ऐसी प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने के लिए अपने को अतीन्द्रिय सुख वा सर्व शक्तियों से, सर्व खजानों से भरपूर करो। सर्व खजाने इतने जमा हो जो अपनी स्थिति भी कायम रहे और अन्य आत्माओं को भी सम्पन्न बना सको।
स्लोगन:
कल्याण की भावना रख शिक्षा दो तो शिक्षायें दिल से लगेंगी।