Sunday, December 6, 2015

मुरली 06 दिसंबर 2015

06-12-15 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:09-03-81 मधुबन

“मेहनत समाप्त कर निरन्तर योगी बनो”
आज दिलवाला बाप बच्चों के दिल की लगन को देख हर्षित हो रहे हैं। आज का मिलन दिलाराम बाप और दिलरूबा बच्चों का है। चाहे सम्मुख हैं, चाहे शरीर से दूर हैं लेकिन दिल के समीप हैं। दूर रहने वाले बच्चे भी अपनी दिल की लगन से दिलाराम बाप के सम्मुख हैं। ऐसे दिलरूबा बच्चे जिनके दिल से बाबा का ही साज बजता रहता है - अनहद साज, हद का नहीं - ऐसे बच्चे बाप के अब भी नयनों में समाये हुए हैं। उन्हों को भी बाप-दादा विशेष याद का रेसपान्ड कर रहे हैं। दिलाराम बाप के दिल तख्तनशीन तो सब बच्चे हैं फिर भी नम्बरवार तो कहेंगे ही। जैसे माला के मणके तो सब हैं लेकिन कहाँ आठ और कहाँ 16 हजार का लास्ट दाना। कहेंगे मणके दोनों को लेकिन अन्तर महान है। इन नम्बर का आधार मुख्य स्लोगन है – “पवित्र और योगी बनो”। एक हैं योग लगाने वाले योगी। दूसरे हैं सदा योग में रहने वाले योगी। तीसरे हैं योग द्वारा विघ्न हटाने, पाप मिटाने की मेहनत में रहने वाले। जितनी मेहनत उतना फल पाने वाले। जैसे आजकल की दुनिया में एक हैं जो पूर्व जन्म के, भक्ति के हिसाब से किए हुए श्रेष्ठ कर्म के आधार से हद की राजाई का वर्सा बिना मेहनत के पाते हैं। वर्से के अधिकार से प्राप्ति है, इस कारण राजाई का नशा स्वत: ही रहता है। याद नहीं करना पड़ता कि मैं राजकुमार हूँ या राजा हूँ। नैचुरल स्मृति और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। आजकल तो राजायें हैं नहीं लेकिन यह द्वापर के आरम्भ की बात है, सतोगुणी भक्ति के समय की बात है। ऐसे नम्बर वन बच्चे स्वत: योगी जीवन में रहते हैं। प्राप्ति के भण्डार वर्से के आधार से सदा भरपूर रहते हैं। मेहनत नहीं करते - आज सुख दो, आज शान्ति दो। संकल्प का बटन दबाया और खान खुल जाती है। सदा सम्पन्न रहते हैं अर्थात् योगयुक्त, योग लगा हुआ ही रहता है।

दूसरे नम्बर के हैं - योग लगाने वाले। वह ऐसे हैं जैसे आजकल के बिजनेसमैन। कभी बहुत कमाते कभी कम कमाते। फिर भी खजाने रहते हैं। कमाई का नशा रहता है खुशी भी रहती है लेकिन निरन्तर एकरस नहीं रहती है। कभी देखा तो बहुत सम्पन्नता का स्वरूप होगा और कभी - अभी और चाहिए अभी और चाहिए का संकल्प मेहनत में लायेगा। सदा सम्पन्न सदा एकरस नहीं होंगे। सदा स्वयं से सन्तुष्ट नहीं होंगे। यह हैं योग लगाने वाले। लगाने वाले अर्थात् टूटता तब फिर लगाते हैं।

तीसरे हैं - जैसे आजकल के नौकरी करने वाले। कमाया और खाया। जितना कमाया उतना आराम से खाया। लेकिन स्टाक जमा नहीं होगा इसलिए सदा खुशी में नाचने वाले नहीं होंगे। मेहनत के कारण कब दिलशिक्स्त और कब दिलखुश होंगे। ऐसे तीन प्रकार के बच्चे हैं।

बाप कहते हैं - सबको वर्से में सर्व प्राप्तियों का खजाना मिला है, अधिकारी हो, नैचुरल योगी हो, नैचुरल स्वराज्यधारी हो। बाप के खजाने के बालक सो मालिक हो। तो इतनी मेहनत क्यों करते हो? मास्टर रचता और नौकर के समान मेहनत करें, यह क्यों? जैसे वह 200 कमाते और 200 खाते। दो हजार कमाते और दो हजार खाते वैसे दो घण्टा योग लगाते और दो घण्टा उसका फल लेते। आज 6 घण्टा योग लगा आज 4 घण्टा योग लगा - यह क्यों? वारिस कभी भी यह नहीं कहता कि दो दिन की राजाई है, 4 दिन की राजाई है। सदा बाप के बच्चे हैं और सदा खजाने के मालिक हैं। कहना बाबा और करना याद की मेहनत, दोनों बातें एक दो के विपरीत हैं। तो सदा यह स्लोगन याद रखो - कि मैं एक श्रेष्ठ आत्मा बालक सो मालिक हूँ। सर्व खजानों का अधिकारी हूँ, खोया-पाया, खोया-पाया यह खेल नहीं करो। जो पाना था वह पा लिया फिर खोना और पाना क्यों! नहीं तो इस गीत को बदली करो। पा रहा हूँ, पा रहा हूँ यह अधिकारी के बोल नहीं। सम्पन्न बाप के बालक हो, सागर के बच्चे हो। अब क्या करेंगे? निरन्तर योगी बनो - मैं कौन हूँ? हम सो ब्राहमण सो देवता हैं व हम सो क्षत्रिय सो देवता हैं? बाप-दादा को बच्चों की मेहनत देख तरस पड़ता है। राजा के बच्चे नौकरी करें, यह शोभता है? सब मालिक बनो।

आज तो सिर्फ पार्टियों से ही मिलना है। लेकिन मुरली क्यों चली, इसका भी राज है। आज बहुत महावीर बच्चे बाबा को खींच रहे हैं। बाप-दादा आज उन्हों को सम्मुख रख मुरली चला रहे हैं। देश-विदेश के बहुत महावीर बच्चे याद कर रहे हैं। बाप-दादा भी ऐसे सेवाधारी आज्ञाकारी स्वत: योगी बच्चों को विशेष याद दे रहे हैं।

मधुबन निवासी और विदेशी बच्चे जो बड़े स्नेह से चात्रक बन मुरली सुनने के सदा अभिलाषी रहते हैं, ऐसे सर्विसएबुल लवफुल, लवलीन बच्चों को भी बाप-दादा विशेष याद प्यार दे रहे हैं। मधुबन निवासी और जो भी नीचे बैठे हैं लेकिन बाप- दादा के नयनों के सामने हैं ऐसे अथक सेवाधारी बच्चों को विशेष यादप्यार। साथ-साथ सम्मुख बैठे लकी सितारों को भी विशेष यादप्यार और नमस्ते।

बंगाल बिहार, नेपाल ज़ोन के भाई बहनों से पर्सनल मुलाकात

मुरली तो सुनी, अब सुनने के बाद स्वरूप में लाना। एक होता है स्मृति में लाना और दूसरा है स्वरूप में लाना। जो कुछ सुनते हैं, स्मृति में तो सब लाते हैं, अज्ञानी भी सुने हुए को याद करते हैं लेकिन ज्ञान का अर्थ ही है स्वरूप में लाना। तो कौन सी बात स्वरूप में लायेंगे? बालक सो मालिक, यह है स्वरूप में लाना। पुरूषार्थ के साथ-साथ प्रालब्ध का अनुभव हो। ऐसे नहीं अभी तो पुरुषार्थी हैं, प्रालब्ध भविष्य में मिलेगी। संगमयुग की विशेषता ही है अभी-अभी पुरूषार्थ अभी-अभी प्रत्यक्ष फल। अभी स्मृति स्वरूप अभी अभी प्राप्ति का अनुभव। भविष्य की गैरन्टी तो है लेकिन भविष्य से भी श्रेष्ठ भाग्य अब का है। अभी का वर्सा तो प्राप्त है ना? पा लिया है या पाना है? अगर पा लिया है तो फिर फरियाद तो नहीं करते हो अमृतवेले? या तो है याद या है फरियाद। जहाँ याद है वहाँ फरियाद नहीं, जहाँ फरियाद है वहाँ याद नहीं। तो फरियाद समाप्त हुई? क्वेश्चन मार्क खत्म? फरियाद में होता है क्वेश्चन मार्क और याद में फुलस्टाप अर्थात् बिन्दी। बिन्दी स्वरूप बन बिन्दी को याद करना है। बाप भी बिन्दी आप भी बिन्दी। तो परिवर्तन भूमि में आकर कोई न कोई विशेष परिवर्तन जरूर करना चाहिए। अब फरियाद को छोड़कर स्वत: योगी बनकर जाना। फरियाद में उलझन होती है, खुशी नहीं। तो बाप से खुशी का खजाना लेना है, उलझन नहीं। उलझन तो लौकिक बाप का खजाना था, अब वह तो खत्म हो गया। लौकिक सम्बन्ध खत्म तो फरियाद भी खत्म। अलौकिक बाप अलौकिक वर्सा। तो फरियाद की लिस्ट खत्म हो गयी ना! फाड़ दिया ना! अगर मिटा हुआ होगा तो भी कहेंगे कि लिखा हुआ था, इसलिए फाड़कर खत्म करो। सेवा में समय दो, जब तक तैयार नहीं होते हो तब तक राज्य आने में देरी है। सेवा का कोई नया प्लैन बनाया है? महायज्ञ में तो सभी ने सेवा की ना! ब्राहमणों का संगठन होना ही, हाज़िर होना ही सेवा है। यह कोई कम बात नहीं है। समय पर हाज़िर होना, एवररेडी होना, सहनशक्ति का लक्ष्य रखना, यह भी रजिस्टर में जमा होता है। जिसका फिर लास्ट रिजल्ट से कनेक्शन होता है। जैसे आजकल भी 3 मास 6 मास में इम्तहान लेते हैं फिर सबको मार्क्स का फाइनल से कनेक्शन करते हैं, तो जो भी ब्राहमणों के श्रेष्ठ कार्य होते हैं उनमें सहयोगी बनना इसकी भी मार्क्स हैं। वह मार्क्स अन्तिम रिजल्ट के लिए जमा हो गई। सहन किया, तन-मन-धन लगाया, लगाना माना पाना। डायरेक्शन प्रमाण किया - यह भी मार्क्स जमा हुई। महायज्ञ में सिर्फ आना नहीं हुआ लेकिन फाइनल रिजल्ट की मार्क्स जमा हुई। तो सेवा हुई ना। यह आवाज बुलन्द करना भी सेवा की एक सबजेक्ट है। सेवा के कई स्वरूप होते हैं, तो यह संगठित रूप में आवाज बुलन्द होना यह भी सेवा है। परिवार को देखकर खुशी हुई ना। कितने भाई बहनों को देखा। इतना बड़ा परिवार कभी किसी युग में किसका होता नहीं। यह भी सैम्पुल था, सारा परिवार तो नहीं था ना। सारा परिवार इक्टठा करें तो पूरी दिल्ली अपनी बनानी पड़े। आबू में इकट्ठा करें तो आबूरोड़ तक अपना बनाना पड़े। वह भी दिन आयेगा जो सब आफर करेंगे कि हमारे मकान में आओ। कलकत्ता का विक्टोरिया ग्राउण्ड आपको तैयार करके देंगे। कहेंगे आओ, पधारो। धीरे-धीरे आवाज फैलेगी। अभी यह तो समझते हैं ना कि यह कोई कम नहीं हैं। ब्रह्मा बाप के अव्यक्त होने के बाद इतना बड़ा संगठन हो, यह देखकर बलिहार जाते हैं। अन्य जगह संस्था टूटती है यहाँ बढ़ती है, यह कमाल देखते हैं। सभी ने अपने-अपने शुद्ध संकल्प से, सहयोग की शक्ति, संगठन की शक्ति से सेवा की। अभी सब जगह से निमन्त्रण मिलेगा। यह राष्ट्रपति भवन आपका घर हो जायेगा।

2) अपने को सदा दिल तख्तनशीन समझते हो? यह दिलतख्त सारे कल्प में सिवाए इस संगमयुग के कहाँ भी प्राप्त नहीं हो सकता। दिलतख्त पर कौन बैठ सकता है? जिसकी दिल सदा एक दिलाराम बाप के साथ है। एक बाप दूसरा न कोई, ऐसी स्थिति में रहने वालों के लिए स्थान है दिलतख्त। तो किस स्थान पर रहते हो? अगर तख्त छोड़ देते हो तो फाँसी के तख्ते पर चले जाते हो। जन्म-जन्मान्तर के लिए माया की फाँसी में फंस जाते हो। या तो है बाप का दिलतख्त या है माया की फाँसी का तख्ता। तो कहाँ रहना है? एक बाप के सिवाए और कोई याद न आये, अपना शरीर भी नहीं। अगर देह याद आई तो देह के साथ देह के सम्बन्ध, पदार्थ, दुनिया सब एक के पीछे आ जायेंगे। जरा संकल्प रूप में भी अगर सूक्ष्म धागा जुटा हुआ होगा तो वह अपनी तरफ खींच लेगा इसलिए मंसा, वाचा, कर्मणा में कोई सूक्ष्म में भी रस्सी न हो। सदा मुक्त रहो तब औरों को भी मुक्त कर सकेंगे। आजकल सारी दुनिया माया के जाल में फँसकर तड़प रही है, उन्हें इस जाल से मुक्त करने के लिए पहले स्वयं को मुक्त होना पड़े। सूक्ष्म संकल्प में भी बंधन न हो। जितना निर्बन्धन होंगे उतना अपनी ऊंची स्टेज पर स्थित हो सकेंगे। बंधन होगा तो ऊंचा चाहते भी नींचे आ जायेंगे।

3) सभी अपने को इस विश्व के अन्दर सर्व आत्माओं में से चुनी हुई श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? यह समझते हो कि स्वंय बाप ने हमें अपना बनाया है? बाप ने विश्व के अन्दर से कितनी थोड़ी आत्माओं को चुना। और उनमें से हम श्रेष्ठ आत्मायें हैं। यह संकल्प करते ही क्या अनुभव होगा? अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होगी। ऐसे अनुभव करते हो? अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति होती है वा सुना है? प्रैक्टिकल का अनुभव है वा सिर्फ नॉलेज है? क्योंकि ज्ञान अर्थात् समझ। समझ का अर्थ ही है अनुभव में लाना। सुनना, सनाना अलग चीज़ है, अनुभव करना और चीज़ है। यह श्रेष्ठ ज्ञान है अनुभवी बनने का। द्वापर से अनेक प्रकार का ज्ञान सुना और सुनाया। जो आधाकल्प किया वह अभी भी किया तो क्या बड़ी बात! यह नई जीवन, नया युग, नई दुनिया के लिए नया ज्ञान, तो इसकी नवीनता ही तब है जब अनुभव में लाओ। एक एक शब्द, आत्मा, परमात्मा, चक्र कोई भी ज्ञान का शब्द अनुभव में आये। रियलाइजेशन हो, आत्मा हूँ, यह अनुभूति हो, परमात्मा का अनुभव हो, इसको कहा जाता है नवीनता। नया दिन, नई रात, नया परिवार सब कुछ नया ऐसे अनुभव होता है? भक्ति का फल अभी ज्ञान मिल रहा है तो ऐसे ज्ञान के अनुभवी बनो अर्थात् स्वरूप में लाओ।

4) सब विजयी रत्न हो ना? विजय का झण्डा पक्का है ना। विजय हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। यह मुख का नारा नहीं लेकिन प्रैक्टिकल जीवन का नारा है। कल्प-कल्प के विजयी हैं, अब की बार के नहीं हर कल्प के, अनगिनत बार के विजयी हैं। ऐसे विजयी सदा हर्षित रहते हैं। हार के अन्दर दु:ख की लहर होती है। सदा विजयी जो होंगे वह सदा खुश रहेंगे, कभी भी किसी सरकमस्टाँस में भी दु:ख की लहर नहीं आ सकती। दु:ख की दुनिया से किनारा हो गया, रात खत्म हुई, प्रभात में आ गये तो दु:ख की लहर कैसे आ सकती। विजय का झण्डा सदा लहराता रहे, नीचे न हो।

विदाई के समय दादियों से - बाप-दादा भी प्रेम के बंधन में बंधे हुए हैं। छूटने चाहें तो भी छूट नहीं सकते हैं? इसीलिए भक्ति में भी बंधन का चित्र दिखाया है। प्रैक्टिकल में प्रेम के बन्धन में अव्यक्त होते भी बंधना पड़ता है। व्यक्त से छुड़ाया फिर भी छूट नहीं सकते, इसीलिए आप भी बंधन में हो। बाप भी बंधन में है। (विदेशियों की ओर इशारा) यह भी तपस्या कर रहे हैं। दिन है वा रात है? इसीलिए तो कहते हैं जादू लगा दिया।
वरदान:
हर संकल्प वा कर्म को श्रेष्ठ और सफल बनाने वाले ज्ञान स्वरूप समझदार भव!   
जो ज्ञान स्वरूप, समझदार बनकर कोई भी संकल्प वा कर्म करते हैं, वे सफलता मूर्त बनते हैं। इसी का यादगार भक्ति मार्ग में कार्य प्रारम्भ करते समय स्वास्तिका निकालते हैं वा गणेश को नमन करते हैं। यह स्वास्तिका, स्व स्थिति में स्थित होने और गणेश नॉलेजफुल स्थिति का सूचक है। आप बच्चे जब स्वयं नॉलेजफुल बन हर संकल्प वा कर्म करते हो तो सहज सफलता का अनुभव होता है।
स्लोगन:
ब्राह्मण जीवन की विशेषता है खुशी, इसलिए खुशी का दान करते चलो।