Thursday, December 10, 2015

मुरली 11 दिसंबर 2015

11-12-15 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन

“मीठे बच्चे - यह शरीर रूपी खिलौना आत्मा रूपी चैतन्य चाबी से चलता है, तुम अपने को आत्मा निश्चय करो तो निर्भय बन जायेंगे”  
प्रश्न:
आत्मा शरीर के साथ खेल खेलते नीचे आई है इसलिए उसको कौन सा नाम देंगे?
उत्तर:
कठपुतली। जैसे ड्रामा में कठपुतलियों का खेल दिखाते हैं वैसे तुम आत्मायें कठपुतली की तरह 5 हज़ार वर्ष में खेल खेलते नीचे पहुँच गयी हो। बाप आये हैं तुम कठपुतलियों को ऊपर चढ़ने का रास्ता बताने। अब तुम श्रीमत की चाबी लगाओ तो ऊपर चले जायेंगे।
गीतः
महफिल में जल उठी शमा........  
ओम् शान्ति।
रूहानी बाप रूहानी बच्चों को श्रीमत देते हैं - कभी कोई की चलन अच्छी नहीं होती तो माँ-बाप कहते हैं - तुमको शल ईश्वर मत देवे। बिचारों को यह पता ही नहीं कि ईश्वर सचमुच मत देते हैं। अभी तुम बच्चों को ईश्वरीय मत मिल रही है अर्थात् रूहानी बाप बच्चों को श्रेष्ठ मत दे रहे हैं श्रेष्ठ बनने के लिए। अभी तुम समझते हो हम श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ बन रहे हैं। बाप हमको कितनी ऊंच मत दे रहे हैं। हम उनकी मत पर चलकर मनुष्य से देवता बन रहे हैं। तो सिद्ध होता है मनुष्य को देवता बनाने वाला वही बाप है। सिक्ख लोग भी गाते हैं मनुष्य से देवता किये.... तो जरूर मनुष्य से देवता बनाने की मत देते हैं। उनकी महिमा भी गाई है - एकोअंकार.. कर्ता पुरूष, निर्भय...... तुम सब निर्भय हो जाते हो। अपने को आत्मा समझते हो ना। आत्मा को कोई भय नहीं रहता है। बाप कहते हैं निर्भय बनो। भय फिर काहे का। तुमको कोई भय नहीं। तुम अपने घर बैठे भी बाप की श्रीमत लेते रहते हो। अब श्रीमत किसकी? कौन देते हैं? यह बातें गीता में तो हैं नहीं। अभी तुम बच्चे समझते हो। बाप कहते हैं तुम पतित बन गये हो, अब पावन बनने के लिए मामेकम् याद करो। यह पुरूषोत्तम बनने का मेला संगमयुग पर ही होता है। बहुत आकर श्रीमत लेते हैं। इसको कहा जाता है ईश्वर के साथ बच्चों का मेला। ईश्वर भी निराकार है। बच्चे (आत्मायें) भी निराकार हैं। हम आत्मा हैं, यह पक्की-पक्की आदत डालनी है। जैसे खिलौने को चाबी दी जाती है तो डांस करने लग पड़ते हैं। तो आत्मा भी इस शरीर रूपी खिलौने की चाबी है। आत्मा इनमें न हो तो कुछ भी कर न सके। तुम हो चैतन्य खिलौने। खिलौने को चाबी नहीं दी जाए तो काम का नहीं रहेगा। खड़ा हो जायेगा। आत्मा भी चैतन्य चाबी है और यह अविनाशी, अमर चाबी है। बाप समझाते हैं मैं देखता ही हूँ आत्मा को। आत्मा सुनती है-यह पक्की आदत डालनी है। इस चाबी बिगर शरीर चल न सके। इनको भी चाबी अविनाशी मिली हुई है। 5 हज़ार वर्ष इसकी चाबी चलती है। चैतन्य चाबी होने कारण चक्र फिरता ही रहता है। यह हैं चैतन्य खिलौने। बाप भी चैतन्य आत्मा है। जब चाबी पूरी हो जाती है तो फिर बाप नयेसिर युक्ति बताते हैं कि मुझे याद करो तो फिर चाबी लग जायेगी अर्थात् आत्मा तमोप्रधान से सतोप्रधान बन जायेगी। जैसे मोटर से पेट्रोल खत्म होने पर फिर भरा जाता है ना। अभी तुम्हारी आत्मा समझती है - हमारे में पेट्रोल कैसे भरेगा! बैटरी खाली होती है फिर उनमें पावर भरी जाती है ना। बैटरी खाली होती है तो लाइट खत्म हो जाती है। अब तुम्हारी आत्मा रूपी बैटरी भरती है। जितना याद करेंगे उतना पावर भरती जायेगी। इतना 84 जन्मों का चक्र लगाए बैटरी खाली हो गई है। सतो, रजो, तमो में आई है। अब फिर बाप आया है चाबी देने अथवा बैटरी को भरने। पावर नहीं है तो मनुष्य कैसे बन जाते हैं। तो अब याद से ही बैटरी को भरना है, इनको हयुमन बैटरी कहें। बाप कहते हैं मेरे साथ योग लगाओ। यह ज्ञान एक ही बाप देते हैं। सद्गति दाता वह एक ही बाप है। अभी तुम्हारी बैटरी सारी भरती है जो फिर 84 जन्म पूरे पार्ट बजाते हो। जैसे ड्रामा में कठपुतलियाँ नाचती हैं ना। तुम आत्मायें भी ऐसे कठपुतलियों मिसल हो। ऊपर से उतरते 5 हज़ार वर्ष में एकदम नीचे आ जाते हो फिर बाप आकर ऊपर चढ़ाते हैं। वह तो एक खिलौना है। बाप अर्थ समझाते हैं चढ़ती कला और उतरती कला का, 5 हज़ार वर्ष की बात है। तुम समझते हो श्रीमत से हमको चाबी मिल रही है। हम फुल सतोप्रधान बन जायेंगे फिर सारा पार्ट रिपीट करेंगे। कितनी सहज बात है - समझने और समझाने की। फिर भी बाप कहते हैं समझेंगे वही जिन्होंने कल्प पहले समझा होगा। तुम कितना भी माथा मारो जास्ती समझेंगे ही नहीं। बाप समझ तो सबको एक जैसी ही देते हैं। कहाँ भी बैठे बाप को याद करना है। भल सामने ब्राह्मणी न हो तो भी तुम याद में बैठ सकते हो। मालूम है बाप की याद से ही हमारे विकर्म विनाश होंगे। तो उस याद में बैठ जाना है। कोई को बिठाने की दरकार नहीं है। खाते-पीते, स्नान आदि करते बाप को याद करो। थोड़ा टाइम दूसरा कोई सामने बैठ जाते हैं। ऐसे नहीं कि वह मदद करते हैं तुमको, नहीं। हर एक को अपने को ही मदद करनी है। ईश्वर ने तो मत दी है कि ऐसे-ऐसे करो तो तुम्हारी दैवी बुद्धि बन जायेगी। यह टैम्पटेशन दी जाती है। श्रीमत तो सबको देते रहते हैं। इतना जरूर है किसकी बुद्धि ठण्डी है, किसकी तेज है। पावन के साथ योग नहीं लगता तो बैटरी चार्ज नहीं होती। बाप की श्रीमत नहीं मानते हैं। योग लगता ही नहीं। तुम अभी फील करते हो हमारी बैटरी भरती जाती है। तमोप्रधान से सतोप्रधान तो जरूर बनना है। इस समय तुमको परमात्मा की श्रीमत मिल रही है। यह दुनिया बिल्कुल नहीं समझती। बाप कहते हैं मेरी इस मत से तुम देवता बन जाते हो, इससे ऊंच चीज़ कोई होती नहीं। वहाँ यह ज्ञान नहीं रहता। यह भी ड्रामा बना हुआ है। तुमको पुरूषोत्तम बनाने के लिए बाप संगम पर ही आते हैं, जिनका फिर यादगार भक्ति मार्ग में मनाते हैं, दशहरा भी मनाते हैं ना। जब बाप आता है तो दशहरा होता है। 5 हज़ार वर्ष बाद हर बात रिपीट होती है।

तुम बच्चों को ही यह ईश्वरीय मत अर्थात् श्रीमत मिलती है, जिससे तुम श्रेष्ठ बनते हो। तुम्हारी आत्मा सतोप्रधान थी, वह उतरते-उतरते तमोप्रधान भ्रष्ट बन जाती है। फिर बाप बैठ ज्ञान और योग सिखलाकर सतोप्रधान श्रेष्ठ बनाते हैं। बतलाते हैं तुम सीढ़ी नीचे कैसे उतरते हो। ड्रामा चलता रहता है। इस ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त को कोई भी जानते नहीं हैं। बाप ने समझाया है अब तुमको स्मृति आई है ना। हर एक के जन्म की कहानी तो सुना नहीं सकेंगे। लिखी नहीं जाती जो पढ़कर सुनाई जाए। यह बाप बैठ समझाते हैं। अभी तुम सो ब्राह्मण बने हो फिर सो देवता बनना है। बाप ने समझाया है - ब्राह्मण, देवता, क्षत्रिय तीनों धर्म मैं स्थापन करता हूँ। अभी तुम्हारी बुद्धि में है - हम बाप द्वारा ब्राह्मण वंशी बनते हैं फिर सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी बनेंगे। जो नापास होते हैं वह चन्द्रवंशी बन जाते हैं। किसमें नापास? योग में। ज्ञान तो बहुत सहज समझाया है। कैसे तुम 84 का चक्र लगाते हो। मनुष्य तो 84 लाख कह देते तो कितना दूर चले गये हैं। अभी तुमको मिलती है ईश्वरीय मत। ईश्वर तो आते ही हैं एक बार। तो उनकी मत भी एक बार ही मिलेगी। एक देवी-देवता धर्म था। जरूर उन्हों को ईश्वरीय मत मिली थी, उसके आगे तो हुआ संगमयुग। बाप आकर दुनिया को बदलाते हैं। तुम अब बदल रहे हो। इस समय तुमको बाप बदलाते हैं। तुम कहेंगे कल्प-कल्प हम बदलते आये हैं, बदलते ही रहेंगे। यह चैतन्य बैटरी है ना। वह है जड़। बच्चों को मालूम हुआ है 5 हज़ार वर्ष बाद बाप आये हैं। श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ मत भी देते हैं। ऊंच ते ऊंच भगवान की ऊंच मत मिलती है - जिससे तुम ऊंच पद पाते हो। तुम्हारे पास जब कोई आते हैं तो बोलो तुम ईश्वर की सन्तान हो ना। ईश्वर शिवबाबा है, शिवजयन्ती भी मनाते हैं। वह है भी सद्गति दाता। उनको अपना शरीर तो है नहीं। तो किसके द्वारा मत देते हैं? तुम भी आत्मा हो, इस शरीर द्वारा बातचीत करते हो ना। शरीर बिगर आत्मा कुछ कर न सके। निराकार बाप भी आये कैसे? गायन भी है रथ पर आते हैं। फिर कोई ने क्या, कोई ने क्या बैठ बनाया है। त्रिमूर्ति भी सूक्ष्मवतन में बैठ दिखाया है। बाप समझाते हैं - यह सब हैं साक्षात्कार की बातें। बाकी रचना तो सारी यहाँ है ना। तो रचता बाप को भी यहाँ आना पड़े। पतित दुनिया में ही आकर पावन बनाना है। यहाँ बच्चों को डायरेक्ट पावन बना रहे हैं। समझते भी हैं फिर भी ज्ञान बुद्धि में बैठता नहीं। कोई को समझा नहीं सकते। श्रीमत को उठाते नहीं तो श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ बन नहीं सकते। जो समझते ही नहीं वह क्या पद पायेंगे। जितना सर्विस करेंगे-उतना ऊंच पद पायेंगे। बाप ने कहा है-हड्डी-हड्डी सर्विस में देनी है। आलराउन्ड सर्विस करनी है। बाप की सर्विस में हम हड्डी देने भी तैयार हैं। बहुत बच्चियाँ तड़पती रहती हैं - सर्विस के लिए। बाबा हमको छुड़ाओ तो हम सर्विस में लग जाएं, जिससे बहुतों का कल्याण हो। सारी दुनिया तो जिस्मानी सेवा करती है, उससे तो सीढ़ी नीचे ही उतरते आते हो। अभी इस रूहानी सेवा से चढ़ती कला होती है। हर एक समझ सकते हैं - यह फलाने हमसे जास्ती सर्विस करते हैं। सर्विसएबुल अच्छी बच्चियाँ हैं, तो सेन्टर भी सम्भाल सकती हैं। क्लास में नम्बरवार बैठते हैं। यहाँ तो नम्बरवार नहीं बिठाते हैं, फंक हो जायेंगे। समझ तो सकते हैं ना। सर्विस नहीं करते तो जरूर पद भी कम हो जायेगा। पद नम्बरवार बहुत हैं ना। परन्तु वह है सुखधाम, यह है दु:खधाम। वहाँ बीमारी आदि कोई होती नहीं। बुद्धि से काम लेना पड़ता है। समझना चाहिए हम तो बहुत कम पद पा लेंगे क्योंकि सर्विस तो करते नहीं हैं। सर्विस से ही पद मिल सकता है। अपनी जांच करनी चाहिए। हर एक अपनी अवस्था को जानते हैं। मम्मा-बाबा भी सर्विस करते आये हैं। अच्छे-अच्छे बच्चे भी हैं। भल नौकरी में भी हैं, उनको कहा जाता है हाफ पे पर भी छुट्टी लेकर जाए सर्विस करो, हर्जा नहीं है। जो बाबा की दिल पर सो ताउसी तख्त पर बैठते हैं, नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार। ऐसे ही विजय माला में आ जाते हैं। अर्पण भी होते हैं, सर्विस भी करते हैं। कोई तो भल अर्पण होते हैं सर्विस नहीं करते तो पद कम हो जायेगा ना। यह राजधानी स्थापन होती है श्रीमत से। ऐसा कभी सुना? अथवा पढ़ाई से राजाई स्थापन होती है यह कभी सुना, कभी देखा? हाँ, दान-पुण्य करने से राजा के घर जन्म ले सकते हैं। बाकी पढ़ाई से राजाई पद पाये, ऐसा तो कभी सुना नहीं होगा। किसको पता भी नहीं। बाप समझाते हैं तुमने ही पूरे 84 जन्म लिए हैं। तुमको अब ऊपर जाना है। है बहुत इजी। तुम कल्प-कल्प समझते हो नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार। बाप याद-प्यार भी नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार देते हैं, बहुत याद-प्यार उनको देंगे जो सर्विस में हैं। तो अपनी जांच करनी है कि मैं दिल पर चढ़ा हुआ हूँ? माला का दाना बन सकता हूँ? अनपढ़े जरूर पढ़े हुए के आगे भरी ढोयेंगे। बाप तो समझाते हैं बच्चे पुरूषार्थ करें, परन्तु ड्रामा में पार्ट नहीं है तो फिर कितना भी माथा मारो, चढ़ते ही नहीं। कोई न कोई ग्रहचारी लग जाती है। देह-अभिमान से ही फिर और विकार आते हैं। मुख्य कड़ी बीमारी देह-अभिमान की है। सतयुग में देह-अभिमान का नाम ही नहीं होगा। वहाँ तो है ही तुम्हारी प्रालब्ध। यह यहाँ ही बाप समझाते हैं। और कोई ऐसी श्रीमत देते नहीं कि अपने को आत्मा समझ मामेकम् याद करो। यह मुख्य बात है। लिखना चाहिए-निराकार भगवान कहते हैं मुझ एक को याद करो। अपने को आत्मा समझो। अपनी देह को भी याद नहीं करो। जैसे भक्ति में भी एक शिव की ही पूजा करते हो। अब ज्ञान भी सिर्फ मैं ही देता हूँ। बाकी सब है भक्ति, अव्यभिचारी ज्ञान एक ही शिवबाबा से तुमको मिलता है। यह ज्ञान सागर से रत्न निकलते हैं। उस सागर की बात नहीं। यह ज्ञान का सागर तुम बच्चों को ज्ञान रत्न देते हैं, जिससे तुम देवता बनते हो। शास्त्रों में तो क्या-क्या लिख दिया है। सागर से देवता निकला फिर रत्न दिया। यह ज्ञान सागर तुम बच्चों को रत्न देते हैं। तुम ज्ञान रत्न चुगते हो। आगे पत्थर चुगते थे, तो पत्थरबुद्धि बन पड़े। अब रत्न चुगने से तुम पारसबुद्धि बन जाते हो। पारसनाथ बनते हो ना। यह पारसनाथ (लक्ष्मी- नारायण) विश्व के मालिक थे। भक्ति मार्ग में तो अनेक नाम, अनेक चित्र बना रखे हैं। वास्तव में लक्ष्मी-नारायण वा पारसनाथ एक ही है। नेपाल में पशुपति नाथ का मेला लगता है, वह भी पारसनाथ ही है। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) बाप ने जो ज्ञान रत्न दिये हैं, वही चुगने हैं। पत्थर नहीं। देह-अभिमान की कड़ी बीमारी से स्वयं को बचाना है।
2) अपनी बैटरी को फुल चार्ज करने के लिए पावर हाउस बाप से योग लगाना है। आत्म-अभिमानी रहने का पुरूषार्थ करना है। निर्भय रहना है।
वरदान:
संगमयुग पर प्रत्यक्षफल द्वारा शक्तिशाली बनने वाली सदा समर्थ आत्मा भव!  
संगमयुग पर जो आत्मायें बेहद सेवा के निमित्त बनती हैं उन्हें निमित्त बनने का प्रत्यक्ष फल शक्ति की प्राप्ति होती है। यह प्रत्यक्षफल ही श्रेष्ठ युग का फल है। ऐसा फल खाने वाली शक्तिशाली आत्मा किसी भी परिस्थिति के ऊपर सहज ही विजय पा लेती है। वह समर्थ बाप के साथ होने के कारण व्यर्थ से सहज मुक्त हो जाती है। जहरीले सांप समान परिस्थिति पर भी उनकी विजय हो जाती है इसलिए यादगार में दिखाते हैं कि श्रीकृष्ण ने सर्प के सिर पर डांस किया।
स्लोगन:
पास विद आनर बनकर पास्ट को पास करो और बाप के सदा पास रहो।