Sunday, November 29, 2015

मुरली 30 नवंबर 2015

30-11-15 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन

“मीठे बच्चे - तुम अभी गॉडली सर्विस पर हो, तुम्हें सबको सुख का रास्ता बताना है, स्कालरशिप लेने का पुरूषार्थ करना है”   
प्रश्न:
तुम बच्चों की बुद्धि में जब ज्ञान की अच्छी धारणा हो जाती है तो कौन-सा डर निकल जाता है?
उत्तर:
भक्ति में जो डर रहता कि गुरू हमें श्राप न दे देवे, यह डर ज्ञान में आने से, ज्ञान की धारणा करने से निकल जाता है क्योंकि ज्ञान मार्ग में श्राप कोई दे न सके। रावण श्राप देता है, बाप वर्सा देते हैं। रिद्धि-सिद्धि सीखने वाले ऐसा तंग करने का, दु:ख देने का काम करते हैं, ज्ञान में तो तुम बच्चे सबको सुख पहुँचाते हो।
ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे रूहानी बच्चों प्रति रूहानी बाप बैठ समझाते हैं। तुम सब पहले आत्मा हो। यह पक्का निश्चय रखना है। बच्चे जानते हैं हम आत्मायें परमधाम से आती हैं, यहाँ शरीर लेकर पार्ट बजाने। आत्मा ही पार्ट बजाती है। मनुष्य फिर समझते शरीर ही पार्ट बजाते हैं। यह है बड़े ते बड़ी भूल। जिस कारण आत्मा को कोई जानते नहीं। इस आवागमन में हम आत्मायें आती-जाती हैं - इस बात को भूल जाते हैं इसलिए बाप को ही आकर आत्म-अभिमानी बनाना पड़ता है। यह बात भी कोई नहीं जानते। बाप ही समझाते हैं, आत्मा कैसे पार्ट बजाती है। मनुष्य के मैक्सीमम 84 जन्मों से लेकर मिनीमम है एक-दो जन्म। आत्मा को पुनर्जन्म तो लेते रहना है। इससे सिद्ध होता है, बहुत जन्म लेने वाला बहुत पुनर्जन्म लेते हैं। थोड़े जन्म लेने वाला कम पुनर्जन्म लेते हैं। जैसे नाटक में कोई का शुरू से पिछाड़ी तक पार्ट होता है, कोई का थोड़ा पार्ट होता है। यह कोई मनुष्य नहीं जानते। आत्मा अपने को ही नहीं जानती तो अपने बाप को कैसे जाने। आत्मा की बात है ना। बाप है आत्माओं का। कृष्ण तो आत्माओं का बाप है नहीं। कृष्ण को निराकार तो नहीं कहेंगे। साकार में ही उनको पहचाना जाता है। आत्मा तो सबकी है। हर एक आत्मा में पार्ट तो नूँधा हुआ है। यह बातें तुम्हारे में भी नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार हैं जो समझा सकते हैं। अभी तुम बच्चे जानते हो हम आत्माओं ने 84 जन्म कैसे लिए हैं। ऐसे नहीं कि आत्मा सो परमात्मा। नहीं, बाप ने समझाया है - हम आत्मा पहले सो देवता बनते हैं। अभी पतित तमोप्रधान हैं फिर सतोप्रधान पावन बनना है। बाप आते ही तब हैं जब सृष्टि पुरानी हो जाती है। बाप आकर पुरानी को नया बनाते हैं। नई सृष्टि स्थापन करते हैं। नई दुनिया में है ही आदि सनातन देवी-देवता धर्म। उन्हों के लिए ही कहेंगे पहले कलियुगी शूद्र धर्म वाले थे। अब प्रजापिता ब्रह्मा के मुख वंशावली बन ब्राह्मण बने हो। ब्राह्मण कुल में आते हो। ब्राह्मण कुल की डिनायस्टी नहीं होती। ब्राह्मण कुल कोई राजाई नहीं करते हैं। इस समय भारत में न ब्राह्मण कुल राजाई करते हैं, न शूद्र कुल राजाई करते हैं। दोनों को राजाई नहीं हैं। फिर भी उनका प्रजा पर प्रजा का राज्य तो चलता है। तुम ब्राह्मणों का कोई राज्य नहीं है। तुम स्टूडेण्ट पढ़ते हो। बाप तुमको ही समझाते हैं। यह 84 का चक्र कैसे फिरता है। सतयुग, त्रेता..... फिर होता है संगमयुग। इस संगमयुग जैसी महिमा और कोई युग की है नहीं। यह है पुरूषोत्तम संगमयुग। सतयुग से त्रेता में आते हैं, दो कला कम होती हैं तो उनकी महिमा क्या करेंगे! गिरने की महिमा थोड़ेही होती है। कलियुग को कहा जाता है पुरानी दुनिया। अब नई दुनिया स्थापन होनी है, जहाँ देवी-देवताओं का राज्य होता है। वह पुरूषोत्तम थे। फिर कला कम होते-होते कनिष्ट, शूद्र बुद्धि बन जाते हैं। उनको पत्थरबुद्धि भी कहा जाता है। ऐसे पत्थरबुद्धि बन जाते हैं जो जिनकी पूजा करते हैं, उनकी जीवन कहानी को भी नहीं जानते। बच्चे बाप का जीवन न जानें तो वर्सा कैसे मिले। अभी तुम बच्चे बाप के जीवन को जानते हो। उनसे तुमको वर्सा मिल रहा है। बेहद के बाप को याद करते हो। तुम मात-पिता..... कहते हो तो जरूर बाप आया होगा तब तो सुख घनेरे दिये होंगे ना। बाप कहते हैं - मैं आया हूँ, अथाह सुख तुम बच्चों को देता हूँ। बच्चों की बुद्धि में यह नॉलेज अच्छी रीति रहनी चाहिए, इसलिए तुम स्वदर्शन चक्रधारी बनते हो। तुमको अब ज्ञान का तीसरा नेत्र मिला है। तुम जानते हो हम सो देवता बनते हैं। अब शूद्र से ब्राह्मण बने हैं। कलियुगी ब्राह्मण भी हैं तो सही ना। वो ब्राह्मण लोग जानते नहीं कि हमारा धर्म अथवा कुल कब स्थापन हुआ क्योंकि वह हैं ही कलियुगी। तुम अभी डायरेक्ट प्रजापिता ब्रह्मा की सन्तान बने हो और सबसे ऊंच कोटि के हो। बाप बैठ तुम्हारी पढ़ाई की सर्विस, सम्भालने की सर्विस और श्रृंगारने की सर्विस करते हैं। तुम भी हो ऑन गॉडली सर्विस ओनली। गॉड फादर भी कहते हैं - हम आये हैं सब बच्चों की सर्विस में। बच्चों को सुख का रास्ता बताना है। बाप कहते हैं अब घर चलो। मुनष्य भक्ति भी करते हैं मुक्ति के लिए। जरूर जीवन में बन्धन है। बाप आकर इन दु:खों से छुड़ाते हैं। तुम बच्चे जानते हो त्राहि-त्राहि करेंगे। हाहाकार के बाद जयजयकार होनी है। अब तुम्हारी बुद्धि में है - कितनी हाय-हाय करेंगे, जब नैचुरल कैलेमिटीज आदि होगी। यूरोपवासी यादव भी हैं, बाप ने समझाया है - यूरोपवासियों को यादव कहा जाता है। दिखाते हैं पेट से मूसल निकले फिर श्राप दिया। अब श्राप आदि की तो बात ही नहीं। यह तो ड्रामा है। बाप वर्सा देते हैं, रावण श्राप देते हैं। यह एक खेल बना है, बाकी श्राप देने वाले तो दूसरे मनुष्य होते हैं। उस श्राप को उतारने वाले भी होते हैं। गुरू गोसाई आदि से भी मनुष्य लोग डरते हैं कि कोई श्राप न देवे। वास्तव में ज्ञान मार्ग में श्राप कोई दे न सके। ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग में श्राप की कोई बात नहीं। जो रिद्धि-सिद्धि आदि सीखते हैं, वो श्राप देते हैं, लोगों को बहुत दु:खी कर देते हैं, पैसे भी बहुत कमाते हैं। भक्त लोग यह काम नहीं करते।

बाबा ने यह भी समझाया है - संगम के साथ पुरूषोत्तम अक्षर जरूर लिखो। त्रिमूर्ति अक्षर भी जरूर लिखना है और प्रजापिता अक्षर भी जरूरी है क्योंकि ब्रह्मा नाम भी बहुतों के हैं। प्रजापिता अक्षर लिखेंगे तो समझेंगे साकार में प्रजापिता ठहरा। सिर्फ ब्रह्मा लिखने से सूक्ष्मवतन वाला समझ लेते हैं। ब्रह्मा-विष्णु-शंकर को भगवान कह देते हैं। प्रजापिता कहेंगे तो समझा सकते हो - प्रजापिता तो यहाँ है। सूक्ष्मवतन में कैसे हो सकता। विष्णु को तो दिखाते हैं ब्रह्मा की नाभी से निकला। तुम बच्चों को भी ज्ञान मिला है। नाभी आदि की कोई बात ही नहीं। ब्रह्मा सो विष्णु, विष्णु सो ब्रह्मा कैसे बनते हैं। सारे चक्र का ज्ञान तुम इन चित्रों से समझा सकते हो। बिगर चित्र समझाने में मेहनत लगती है। ब्रह्मा सो विष्णु, विष्णु सो ब्रह्मा बनते हैं। लक्ष्मी-नारायण 84 का चक्र लगाकर फिर ब्रह्मा-सरस्वती बनते हैं। बाबा ने पहले से नाम दे दिये हैं, जब भट्ठी बनी तो नाम दिये। फिर कितने चले गये इसलिए समझाया है ब्राह्मणों की माला होती नहीं क्योंकि ब्राह्मण हैं पुरुषार्थी। कभी नीचे, कभी ऊपर होते रहते हैं। ग्रहचारी बैठती है। बाबा तो जवाहरी था। मोतियों आदि की माला कैसे बनती है, अनुभवी है। ब्राह्मणों की माला पिछाड़ी में बनती है। हम सो ब्राह्मण दैवी गुण धारण कर देवता बनते हैं। फिर सीढ़ी उतरनी है। नहीं तो 84 जन्म कैसे लेंगे। 84 जन्मों के हिसाब से यह निकल सकते हैं। तुम्हारा आधा समय पूरा होता है तब दूसरे धर्म वाले एड होते हैं। माला बनाने में बड़ी मेहनत लगती है। बड़ी सम्भाल से मोतियों को टेबुल पर रखा जाता है कि कहाँ हिले नहीं। फिर सुई से डाला जाता है। कहाँ ठीक न बनें तो फिर माला तोड़नी पड़े। यह तो बहुत बड़ी माला है। तुम बच्चे जानते हो - हम पढ़ते हैं नई दुनिया के लिए। बाबा ने समझाया है कि स्लोगन बनाओ - हम शूद्र सो ब्राह्मण, ब्राह्मण सो देवता कैसे बनते हैं, आकर समझो। इस चक्र को जानने से तुम चक्रवर्ता राजा बनेंगे। स्वर्ग का मालिक बन जायेंगे। ऐसे स्लोगन बनाकर बच्चों को सिखलाना चाहिए। बाबा युक्तियां तो बहुत बतलाते हैं। वास्तव में वैल्यु तुम्हारी है। तुमको हीरो-हीरोइन का पार्ट मिलता है। हीरे जैसा तुम बनते हो फिर 84 का चक्र लगाए कौड़ी मिसल बनते हो। अब जबकि हीरे जैसा जन्म मिलता है तो कौड़ियों पिछाड़ी क्यों पड़ते हो। ऐसे भी नहीं, कोई घरबार छोड़ना है। बाबा तो कहते हैं गृहस्थ व्यवहार में रहते कमल फूल समान पवित्र रहो और सृष्टि चक्र की नॉलेज को जानकर दैवीगुण भी धारण करो तो तुम हीरे जैसा बन जायेंगे। बरोबर भारत 5 हज़ार वर्ष पहले हीरे जैसा था। यह है - एम ऑब्जेक्ट। इस चित्र को (लक्ष्मी-नारायण के) बहुत महत्व देना है। तुम बच्चों को बहुत सर्विस करनी है प्रदर्शनी म्यूजियम में। विहंग मार्ग की सर्विस बिगर तुम प्रजा कैसे बनायेंगे? भल इस ज्ञान को सुनते भी हैं परन्तु ऊंच पद कोई बिरले पाते हैं। उनके लिए ही कहा जाता है कोटों में कोई। स्कॉलरशिप भी कोई लेते हैं ना। 40-50 बच्चे स्कूल में होते हैं, उनसे कोई एक स्कॉलरशिप लेता है, कोई थोड़ा प्लस में आ जाता है तो उनको भी देते हैं। यह भी ऐसे है। प्लस में बहुत हैं। 8 दाने हैं सो भी नम्बरवार हैं ना। वह पहले-पहले राज गद्दी पर बैठेंगे। फिर कला कम होती जायेगी, लक्ष्मी-नारायण का चित्र है नम्बरवन। उनकी भी डिनायस्टी चलती है, परन्तु चित्र लक्ष्मी- नारायण का ही दिया हुआ है। यहाँ तुम जानते हो चित्र तो बदलते जाते हैं। चित्र देने से क्या फायदा। नाम, रूप, देश, काल सब बदल जाता है।

मीठे-मीठे रूहानी बच्चों को रूहानी बाप बैठ समझाते हैं। कल्प पहले भी बाप ने समझाया था। ऐसे नहीं, कृष्ण ने गोप- गोपियों को सुनाया। कृष्ण के गोप-गोपियाँ होते नहीं। न उनको ज्ञान सिखाया जाता है। वह तो है सतयुग का प्रिन्स। वहाँ कैसे राजयोग सिखायेंगे वा पतित को पावन बनायेंगे। अब तुम अपने बाप को याद करो। बाप फिर टीचर भी है। टीचर को स्टूडेन्ट कभी भूल न सकें। बाप को बच्चे भूल न सकें, गुरू को भी भूल न सकें। बाप तो जन्म से ही होता है। टीचर 5 वर्ष बाद मिलता है। फिर गुरू वानप्रस्थ में मिलता है। जन्म से ही गुरू करने का तो कोई फायदा नहीं है। गुरू की गोद लेकर भी दूसरे दिन मर जाते हैं। फिर गुरू क्या करते हैं? गाते भी हैं सतगुरू बिगर गति नहीं। सतगुरू को छोड़ वह फिर गुरू कह देते। गुरू तो ढेर हैं। बाबा कहते हैं - बच्चे, तुम्हें कोई देहधारी गुरू आदि करने की दरकार नहीं है, तुम्हें किसी से भी कुछ मांगना नहीं है। कहा भी जाता है -मांगने से मरना भला। सबको चिंता रहती है हम कैसे अपने पैसे ट्रांसफर करें। दूसरे जन्म के लिए वह ईश्वर अर्थ दान-पुण्य करते हैं तो उसका रिटर्न इस ही पुरानी सृष्टि में अल्पकाल के लिए मिलता है। यहाँ तुम्हारा ट्रांसफर होता है नई दुनिया में और 21 जन्मों के लिए। तन-मन-धन प्रभू के आगे अर्पण करना है। सो तो जब आये तब अर्पण करेंगे ना। प्रभू को कोई जानते ही नहीं तो गुरू को पकड़ लेते हैं। धन आदि गुरू के आगे अर्पण कर देते हैं। वारिस नहीं होता है तो सब गुरू को देते हैं। आजकल कायदे अनुसार ईश्वर अर्थ भी कोई देते नहीं हैं। बाप समझाते हैं - मैं गरीब निवाज़ हूँ इसलिए मैं आता ही भारत में हूँ। तुमको आकर विश्व का मालिक बनाता हूँ। डायरेक्ट और इनडायरेक्ट में कितना फ़र्क है। वह जानते कुछ भी नहीं। सिर्फ कह देते हैं हम ईश्वर अर्पण करते हैं। है सब बेसमझी। तुम बच्चों को अब समझ मिलती है तो तुम बेसमझ से समझदार बने हो। बुद्धि में ज्ञान है - बाप तो कमाल करते हैं। जरूर बेहद के बाप से बेहद का वर्सा ही मिलना चाहिए। बाप से तुम वर्सा लेते हो सिर्फ दादा द्वारा। दादा भी उनसे वर्सा ले रहे हैं। वर्सा देने वाला एक ही है। उनको ही याद करना है। बाप कहते हैं - बच्चे, मैं इनके बहुत जन्मों के अन्त में आता हूँ, इनमें प्रवेश कर इनको भी पावन बनाता हूँ जो फिर यह फरिश्ता बन जाते हैं। बैज पर तुम बहुत सर्विस कर सकते हो। तुम्हारा यह सब है अर्थ सहित बैजेस। यह तो जीयदान देने वाला चित्र है। इनकी वैल्यु का किसको भी पता नहीं है और बाबा को हमेशा बड़ी चीज़ पसन्द आती है, जो कोई भी दूर से पढ़ सके। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) बाप से बेहद का वर्सा लेने के लिए डायरेक्ट अपना तन-मन-धन ईश्वर के आगे अर्पण करने में समझदार बनना है। अपना सब कुछ 21 जन्मों के लिए ट्रांसफर कर लेना है।
2) जैसे बाप पढ़ाने की, सम्भालने की और श्रृंगारने की सर्विस करते हैं, ऐसे बाप समान सर्विस करनी है। जीवन बन्ध से निकाल सबको जीवन मुक्ति में ले जाना है।
वरदान:
हर कर्म चरित्र के रूप में गायन योग्य बनाने वाले महान आत्मा भव!  
महान आत्मा वह है जिसका हर संकल्प, हर कर्म महान् हो। एक भी संकल्प साधारण व व्यर्थ न हो। कोई भी कर्म साधारण व बगैर अर्थ न हो। कर्मेन्द्रियों द्वारा जो भी कर्म हो वह अर्थ सहित हो, समय भी महान कार्य में सफल होता रहे, तब हर चरित्र गायन योग्य होगा। महान आत्माओं का ही यादगार हर्षित मूर्त, आकर्षण मूर्त और अव्यक्त मूर्त के रूप में है।
स्लोगन:
मान की इच्छा छोड़ स्वमान में टिक जाओ तो मान परछाई के समान पीछे आयेगा।