Sunday, January 15, 2017

मुरली 16 जनवरी 2017

16-01-17 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन 

“मीठे बच्चे– एक ईश्वर से सच्ची मुहब्बत रखनी है, इस इन्द्र की दरबार में सपूत बच्चों को ही लाना है, किसी कपूत को नहीं”
प्रश्न:
21 जन्मों की बड़े से बड़ी लाटरी लेने के लिए कौन सा पुरूषार्थ करते चलो?
उत्तर:
एक पारलौकिक साजन को याद करने और उसकी श्रीमत पर चलने का पूरा पुरूषार्थ करो। यदि किसी के नाम रूप में बुद्धि लटकी हुई हो तो वहाँ से बुद्धियोग निकालते जाओ। रात में जब फुर्सत मिलती है, प्यार से बाप को याद करो, दैवीगुण धारण करो तो 21 जन्मों की लाटरी मिल जायेगी।
गीत:–
न वह हमसे जुदा होगे...   
ओम् शान्ति।
दु:ख तो यहाँ ही है। बाप आते हैं दु:ख से छुड़ाने क्योंकि बच्चों को यह समझाया गया है कि कृष्ण यहाँ नहीं आ सकता। उनकी पुरी में दु:ख नहीं होता। दु:ख होता ही है– कंसपुरी में। कृष्णपुरी हुई श्रेष्ठाचारी देवताओं की पुरी। हम अभी दैवीगुण धारण करने वाले बने हैं। अगर आसुरी गुण रखते रहेंगे तो दैवी सम्प्रदाय में अच्छा पद नहीं मिलेगा। अभी पद नहीं मिला तो कल्प-कल्पान्तर नहीं मिलेगा। बड़ा घाटा है। वह घाटा-फायदा तो एक जन्म के लिए होता है। यह तो जन्म-जन्मान्तर की बात है। अच्छे बुरे कर्म होते हैं ना। सतयुग में सिर्फ अच्छे कर्म होते हैं। बुरे कर्म कराने वाला रावण वहाँ होता नहीं। यहाँ जो जैसा कर्म करेगा, 21 जन्म के लिए उनको फल पाना है। या तो चलना है श्रीमत पर या तो चलना है आसुरी मत पर। बुरा काम किया गोया आसुरी मत पर चला, झट मालूम पड़ जाता है। बाबा से प्यार तो पूरा चाहिए ना। ईश्वर से प्यार नहीं तो गोया असुरों से प्यार है। यहाँ तुमको ईश्वर का प्यार मिला है। कहते हो ईश्वर बाबा। प्रतिज्ञा करते हैं– हम एक तुम से ही मुहब्बत रखेंगे। फिर कोई से मुहब्बत रखी तो जैसे असुरों से रखी। फिर खुद भी असुर बन जायेंगे। एक कहानी भी बताते हैं ना– इन्द्र की दरबार थी, उसमें कोई परी विकारी को साथ ले आई। वह सपूत बच्चा नहीं था, कपूत विकारी था तो दोनों को नीचे फेंक दिया। ज्ञान पूरा न होने के कारण ऐसे-ऐसे को ले आते हैं, जो पवित्र नहीं रह सकते हैं। तो जो बी.के. उनको ले आते हैं वो भी श्रापित हो जाते हैं। वह तो श्रापित है ही। यह ईश्वर की ज्ञान इन्द्र सभा है। ज्ञान वर्षा बरसाने वाला एक ही बाप है। तो यहाँ बहुत समझ कर किसको ले आना चाहिए, नहीं तो ले आने वाले भी श्रापित हो जाते हैं। तुम रूहानी पण्डे हो, तुम ले आते हो सुप्रीम रूह के पास तो बहुत खबरदारी से ले आना चाहिए। यूँ तो मिलने के लिए बहुत आते हैं, कइयों से मिलना भी पड़ता है परन्तु वह भी दिन आयेगा जो कितना भी बड़ा आदमी पवित्र नहीं होगा तो सामने आ न सके। अभी ऐसे करें तो मुश्किल हो जाए। मंजिल बहुत ऊंची है, इतने जो भी आश्रम व सतसंग हैं कहाँ भी एम आब्जेक्ट नहीं, कुछ भी जानते नहीं कि इनसे हमको लाभ क्या होगा। यहाँ तो बड़े अक्षरों में एम आब्जेक्ट लिखी जाती है। मनुष्य से देवता बनना है। सिक्ख लोग गाते हैं मनुष्य से देवता किये... देवता होते हैं सतयुग में। तो जरूर मनुष्य को देवता बनाने वाला भगवान होगा। भगवान क्या बनाते हैं? भगवान और भगवती। परन्तु हम देवी-देवता कहते हैं, क्योंकि भगवान एक है। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर भी सूक्ष्मवतन वासी हैं। लक्ष्मी-नारायण भी दैवी गुण वाले मनुष्य हैं। दैवी गुण वाले फिर आसुरी गुणों में जरूर आते हैं। अब ब्रह्मा द्वारा स्थापना हो रही है। बाबा कहते हैं मैं पतित दुनिया और पतित शरीर में आता हूँ। यह पूरे 84 जन्म लेते हैं, अपनी डिनायस्टी सहित। पतितों को पावन बनाने वाला वह है, कृष्ण कैसे पतितों को पावन बनायेगा। कृष्ण उस नाम रूप से एक ही बार आयेगा। उनका वह चित्र फिर पांच हजार वर्ष बाद मिलेगा। बाकी जन्म तो भिन्न-भिन्न होते हैं। यही लक्ष्मी-नारायण जो अब जगत-अम्बा, जगत-पिता हैं, इनको पता पड़ता है कि हम दूसरे जन्म में यह बनेंगे। फीचर्स जो अभी हैं वह बदल जायेंगे। तुम अभी वतन में जाकर देख सकते हो। तो सतयुग में लक्ष्मी-नारायण के कौन से फीचर्स होंगे। तुम इस समय साक्षात्कार कर सकते हो। यह वन्डर है और किसको साक्षात्कार नहीं होता। तुम इस एक का एक्यूरेट देख सकते हो। परन्तु वह फोटो यहाँ तो निकल न सके। यह फोटो तो यहाँ ही बनाये हैं। तुम जानते हो भविष्य में यह बनेंगे। गुरू नानक का एक्यूरेट चित्र जो था वह 5 हजार वर्ष बाद होगा। यह बातें तुम ही जानते हो। ऐसे बाप के साथ योग बड़ा अच्छा चाहिए और अव्यभिचारी योग चाहिए। कोई के नाम रूप से प्रीत लगी तो व्यभिचारी हो गये। शिवबाबा की भक्ति शुरू होती है तो पहले उनको अव्यभिचारी भक्ति कही जाती है। शिव को ही पूजते हैं। अभी फिर एक शिवबाबा की ही याद रहनी चाहिए। बाप कहते हैं ऐसा न हो कि अन्त में तुम्हारा बुद्धियोग व्यभिचारी हो जाए। कहाँ भी नाम रूप में फंसे हुए हो तो बुद्धि को निकालते जाओ। माया ऐसी है जो कब कहाँ, कब कहाँ धक्का खिलायेगी। कभी मित्र-सम्बन्धी याद आयेंगे। फट से योग लग जाए, यह हो नहीं सकता। बाबा कहते हैं अभी तो कोई कम्पलीट नहीं बने हैं। यह बहुत बड़े ते बड़ी 21 जन्मों की लाटरी है, इसमें पुरूषार्थ बहुत अच्छा चाहिए। माया बड़ी प्रबल है, झट भुला देती है। यह भी ड्रामा में नूंध है इसलिए याद करने का पुरूषार्थ रात में करो। दिन में तो फुर्सत नहीं मिलती है, रात में पारलौकिक साजन को याद करो। श्रीमत पर चलने से श्रेष्ठ बनेंगे। अब जो श्रेष्टाचारी कृष्ण है, उनको गीता का भगवान कह दिया और श्रेष्ठ बनाने वाले को गुम कर दिया है। कृष्ण के गुण और परमपिता परमात्मा के गुण वर्णन जरूर करने चाहिए। तो सर्वव्यापी की बात उड़ जाये। यह है संगम युग, इनको सुहावना कल्याणकारी युग कहा जाता है। सतयुग को वा कलियुग को आस्पीसियस नहीं कहेंगे। आस्पीसियस उनको कहा जाता है, जो कल्याणकारी है। सतयुग तो है ही कल्याणकारी, उनके आगे अकल्याणकारी युग था। तो महिमा सारी संगमयुग की है जबकि शिवबाबा का अवतरण होता है। बाबा कहते हैं मैं कल्प के संगमयुग पर आता हूँ। कल्प पूरा होता है फिर नया शुरू होता है। पुराने कल्प में कलियुग और नये कल्प में सतयुग। यह है कल्प का संगमयुग। उन्होने फिर युगे-युगे कह दिया है। अच्छा सतयुग और त्रेता का संगम, त्रेता और द्वापर का संगम, द्वापर और कलियुग का संगम.. फिर कलियुग और सतयुग का संगम तो चार संगम हो गये। तो अवतार भी चार चाहिए। फिर 24 अवतार क्यों कहते हैं? यह सब बातें धारण करने की हैं। बाबा ने बड़ा सहज रीति से लिखवाया है कि परमपिता परमात्मा से आपका क्या सम्बन्ध है? परमपिता कहते हैं तो जरूर दो बाप हैं। प्रदर्शनी में सब समझाते बहुत हैं परन्तु इतना कोई समझते नहीं हैं। एक को भी निश्चय नहीं होता। भल आयेंगे, मुरली सुनेंगे परन्तु वह हमारा बाबा है, उनसे वर्सा लेना है, श्रीमत पर चलना है। यह बात बुद्धि में नहीं बैठती है। हजारों आये परन्तु एक को भी निश्चय नहीं है कि वह हमारा पिता है, उनकी मत पर चलना है। पहले तो माँ बाप का मुखड़ा देखना चाहिए। परन्तु निश्चय नहीं, माया बड़ी प्रबल है। इस प्रबल माया से छुड़ाने में बड़ी मेहनत लगती है। बाप कहते हैं सतगुरू का निंदक ठौर न पाये। अगर बदचलन होगी तो ठौर नहीं पायेंगे। यहाँ तो एम आब्जेक्ट क्लीयर है। आधाकल्प भक्ति मार्ग चलता है। वह है उतरती कला। गाते हैं गुरू का नाम लेने से चढ़ती कला होती है। परन्तु गुरू कौन सा? सतगुरू। तुम सतगुरू को जानते हो वह है शिवबाबा, सत बाबा, सत टीचर, सतगुरू। शिवबाबा को याद करने से चढ़ती कला हो जाती है। 16 कला बन जाते हैं। फिर 16 कला से उतरना है। मनुष्य कहेंगे हम तो इनसे छूटना चाहते हैं। परन्तु छूटना तो होता नहीं। चढ़ती कला, उतरती कला फिर चढ़ती कला, सतोप्रधान से सतो, रजो, तमो फिर तमो से सतो... यह चक्र लगाना है। इस चक्र में हरेक को आना है। तुम पूरे चक्र में आते हो, वह थोड़े चक्र में आते हैं। सतो, रजो, तमो तो होना ही है। बचपन को सतोप्रधान कहा जाता है फिर थोड़ा बड़ा होता है तो सतो, जवान को रजो, बूढ़े को तमो कहेंगे। हर एक के सुख– दु:ख का पार्ट नूंधा हुआ है। यह नाटक बड़ा वन्डर फुल है, जिसको कोई भी जानते नहीं। रॉयल घर के बच्चों की चलन बहुत अच्छी होती है। यहाँ तो श्रीमत पर चलना है। सभी एकरस तो चल न सकें। बाबा समझाते हैं दास-दासी बनें, फिर थर्ड क्लास राजा-रानी बनना, इससे तो प्रजा में साहूकार बनना अच्छा है। दान-पुण्य कर साहूकार बन जाएं। दासदासी का नाम तो न पड़े। भल वह दास दासी बन राजाई में जाते हैं परन्तु उनसे वह सुखी जास्ती हैं। वह नाम दास-दासी नहीं पड़ता, प्रजा में बहुत साहूकार बनेंगे। यहाँ रहकर अगर श्रीमत पर नहीं चले तो दास-दासी बन पड़ते। यहाँ रहकर कोई कुकर्म करते हैं तो दासी के भी दासी बन पड़ते हैं। कोई तो अच्छी दासी होती है, कोई रिस्पेक्टलेस होती है। तो पुरूषार्थ बहुत अच्छा करना चाहिए इसलिए बाबा लिखते हैं बच्चों का सार्टिफिकेट भेज दो। कई हैं जो अपने को मिया मिठ्ठू समझ बैठ जाते हैं। फिर रिपोर्ट कौन करे जो सावधानी मिले। बाबा का काम हैं समझाना, एम आब्जेक्ट तो पूरा है, जो चाहे पुरूषार्थ कर लो, विजय माला में पिरो कर दिखाओ। आठ की भी माला है। 108 की भी माला है, 16108 की भी माला है। वाइसलेस वर्ल्ड के राजा-रानी थोड़े होते हैं। पीछे बहुत हो जाते हैं, यहाँ भारत के सबसे जास्ती होंगे। कितने गांव हैं, कितने राजा-रानी फिर उन्हों के कितने प्रिन्स-प्रिन्सेज, कितने ढेर हैं। बड़ी लिस्ट निकालते हैं। महाराजा, राजा फिर उनके कुटुम्ब वाले। डायरेक्टरी में मुख्य नाम डालते हैं। वहाँ तो एक-एक बच्चा होता है। बड़ा लम्बा चौड़ा हिसाब है। फिर भी बाप कहते हैं बेहद के बाप को याद करो जिससे वर्सा पाना है। गृहस्थ व्यवहार में भी रहना है, यह है पवित्र प्रवृत्ति मार्ग कोई मनुष्य ईश्वर को न जानने के कारण स्वयं को ही ईश्वर समझ बैठे हैं। जन्ममरण में आते रहते हैं। अकाले मृत्यु भी होती रहती है और ईश्वर भी कहलाते रहते हैं। तुम जानते हो देवताएं कभी अकाले नहीं मरते हैं। जब टाइम पूरा होता है तब साक्षात्कार होता है। अब पुराना शरीर छोड़ नया लेना है, बहुत समझने की बातें हैं। बस एक बाबा को ही याद करना है और कोई के नाम रूप में धक्के नही खाने हैं, नहीं तो गिर पड़ेगे। बाबा को तो अनेक प्रकार से उठाना पड़ता है। इसमें तो शिवबाबा की पधरामणी है, इनसे रीस नहीं करनी है। माया तूफान बहुत लाती है, हनुमान मिसल पक्का बनना है, जो माया रावण हिला न सके। आदि देव को महावीर हनुमान भी कहते हैं। नाम रख दिये हैं। बच्चों में कोई महारथी भी हैं। बात प्रैक्टिकल में यहाँ की है। जिसको ज्ञान की मालिस नहीं होती है वह जैसे मुरझाये हुए दिखाई देते हैं। ज्ञान की मालिस से लक्ष्मी-नारायण को देखो कितने रमणीक हैं। अच्छा–

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) अपनी एम आब्जेक्ट को सामने रख ऊंच पद पाने का पुरूषार्थ करना है, चलन बहुत रॉयल रखनी है और श्रीमत पर चलते रहना है।
2) किसी भी देहधारी के नाम रूप को याद नहीं करना है। एक बाप की अव्यभिचारी याद में रहने का पुरूषार्थ करना है।
वरदान:
“नेचुरल अटेन्शन” को अपनी नेचर (आदत) बनाने वाले स्मृति स्वरूप भव
सेना में जो सैनिक होते हैं वह कभी भी अलबेले नहीं रहते, सदा अटेन्शन में अलर्ट रहते हैं। आप भी पाण्डव सेना हो इसमें जरा भी अबेलापन न हो। अटेन्शन एक नेचुरल विधि बन जाए। कई अटेन्शन का भी टेन्शन रखते हैं। लेकिन टेन्शन की लाइफ सदा नहीं चल सकती, इसलिए नेचुरल अटेन्शन अपनी नेचर बनाओ। अटेन्शन रखने से स्वत: स्मृति स्वरूप बन जायेंगे, विस्मृति की आदत छूट जायेगी।
स्लोगन:
स्वयं के स्वयं टीचर बनो तो सर्व कमजोरियां स्वत: समाप्त हो जायेंगी।