Saturday, October 1, 2016

मुरली 2 अक्टूबर 2016

02-10-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ’अव्यक्त-बापदादा“ रिवाइज:21-11-81 मधुबन 

छोड़ो तो छूटो
सदा सहयोगी, सदा बच्चों के साथी बापदादा अपने सहयोगी बच्चों को, सदा के साथी बच्चों को आज वतन की, बापदादा की रमणीक बात सुनाते हैं। आप सभी भी रूहानी रमणीक मूर्त हो ना! तो ऐसे बच्चों को बाप भी रमणीक बात सुनाते हैं। आज वतन में बापदादा के सामने, एक बड़ा सुन्दर अलौकिक अर्थ सहित वृक्ष इमर्ज हुआ। वृक्ष बड़ा सुन्दर था और वृक्ष की डालियां अनेक थीं, कोई छोटी कोई बड़ी, कोई मोटी कोई पतली थीं। लेकिन उस अलौकिक वृक्ष के ऊपर भिन्नभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे बहुत सुन्दर पंछी थे। जो हरेक अपनी-अपनी डाली पर बैठे थे। पंछियों के कारण वृक्ष बड़ा सुन्दर लग रहा था। कई पंछी उड़ते हुए बापदादा की अंगुली पर भी आकर बैठते। कई कंधे पर भी आकर बैठते और कोई आगे पीछे चक्कर लगाते रहते। कोई डाली पर बैठे-बैठे दूर से नयन मुलाकात भी करते, खुश भी बहुत थे। लेकिन दूसरे पंछियों के मिलन का खेल देखते हुए खुश थे। स्वयं समीप नहीं आये। ऐसा दृश्य देख ब्रह्मा बाप मुस्कराते हुए ताली बजाए उन पंछियों को बुलाने लगे। “आओ बच्चे, आओ बच्चे,” कहकर बहुत मीठा बुलावा कर रहे थे। फिर भी पंछी नहीं आये। पंख भी थे। पंख हिला भी रहे थे लेकिन अपने ही पांव से डाली को ऐसा मजबूत पकड़े हुए थे जो उड़कर समीप नहीं आ सकते थे। फिर क्या हुआ? चाहते हुए भी उड़ नहीं पाये। “बाबा-बाबा” कहकर बड़े प्यार से बुलाने लगे, बोलने लगे, क्या बोला होगा? “उडाओ, उड़ाओ” बोलने लगे। वा “छुड़ाओ-छुड़ाओ,” बोलने लगे। बापदादा बोले-“छुड़ाओछुड़ ओ नहीं, लेकिन छोड़ो तो छूटो।” लेकिन वे पंछी इतने कोई चतुर थे, कोई कमजोर थे जो डाली को भी छोड़ने नहीं चाहते और बाप का साथ भी लेना चाहते थे। दोनों बातें साथ चाहते थे, यह थे चतुर पंछी। और कमजोर व भोले पंछी छोड़ने चाहते, लेकिन युक्ति नहीं आती मुक्ति पाने की। और भोले पंछी तो अपने भोलेपन में यह भी नहीं समझते कि यह छोड़ना भी है। तो ऐस्ो पंछियों को देख बापदादा बार-बार उन्हों को यही बोले-“छोड़ो तो छूटो”। लेकिन वे अपनी बोली बोलते रहे। बापदादा युक्ति भी बताते लेकिन थोड़ा-सा डाली का साथ छोड़ते हुए फिर पकड़ लें। इसलिए बुलाते रहे, बोलते रहे लेकिन उड़ता पंछी बन बाप के साथ समीप मिलन का अनुभव और विश्व परिक्रमा अर्थात् बेहद की सेवा की परिक्रमा का अनुभव कर नहीं सकते। अभी आप हरेक अपने से पूछो कि मैं कहाँ था? डाली पर वा बाप के कंधे पर? वा अगुंली पर नाच रहे थे? वा आसपास घूम रहे थे? अपने आपको तो जानते हो ना? अपने आप से पूछो-“छोड़ो तो छूटो”, यह पाठ कितना पक्का किया है? “छोड़ो तो छूटो”-यह पाठ सदा याद है? वा दूसरा छोड़े तो मैं छूटूं? वा बाप छुड़ाये तो मैं छूटूं? ऐसा पाठ तो नहीं पढ़ लेते हो? किसी भी प्रकार की ड़ाली को अपने बुद्धि रूपी पांव से पकड़कर तो नहीं बैठे हो? किसी भी पुराने स्वभाव-संस्कार वा किसी भी शक्ति की कमी होने कारण, निर्बल होने कारण डाली पर ही तो नहीं बैठ गये हो? हर बात में “छोड़ो तो छूटो”, यह प्रैक्टिकल में लाते हो? यही पाठ ब्रह्मा बाप को नम्बरवन ले गया। शुरू से छोड़ा तो छूट गया ना। यह नहीं सोचा कि साथी मुझे छोड़ें तो छूटूं, सम्बन्धी छोड़ें तो छूटूं। विघ्न डालने वाले विघ्न डालने से छोड़ें तो छूटूं। भिन्न-भिन्न परिस्थितियां मुझे छोड़ें तो छुटूं। यह कभी सोचा? सदा स्वयं को यही पाठ पक्का प्रैक्टिकल में दिखाया, वैसे फालो फादर किया है? इसको कहा जाता है– जो ओटे सो अर्जुन। तो अर्जुन बन गया ना अर्थात् बाप के अति समीप, समान, कम्बाइन्ड बन गये। जो आप सभी भी “बापदादा” कम्बाइन्ड बोलते हो ना? तो ऐसे बने हो? वा कभी कैसे, कभी कैसे? जैसे यह बिजली कर रही है। (बिजली बार-बार आती और जाती थी) तो कभी छोड़ो तो छूटो, कभी दूसरा छोड़े तो छूटो, यह खेल तो नहीं खेलते हो? यह बिजली का भी खेल है ना? कभी आना, कभी जाना यह भी खेल हुआ। तो ऐसा खेल तो नहीं करते हो? सदा अच्छा लगता है या आना जाना अच्छा लगता है? तो हर बात में चाहे स्वभाव परिवर्तन में, संस्कार परिवर्तन में, एक दो के सम्पर्क में आने में परिस्थितियों या विघ्नों को पार करने में, क्या पाठ पक्का करना है? “स्वयं छोड़ो तो छूटो”। परिस्थिति आपको नहीं छोड़ेगी, आप छोड़ो तो छूटो। दूसरी आत्मायें संस्कार के टकराव में भी आती हैं। तो भी यही सोचो कि मैं छोडूं तो छूटूं, यह टकराव छोड़ें तो छूटूं, यह नहीं। अगर यह छोड़े तो छूटूं होगा तो टकराव समाप्त होकर फिर दूसरा शुरू हो जायेगा। कहाँ तक इन्तजार करते रहेंगे कि यह छोड़े तो छूटूं! यह माया के विघ्न वा पढ़ाई में पेपर तो समय प्रति समय भिन्न-भिन्न रूपों से आने ही हैं। तो पास होने के लिए मैं पढूं तो पास हूँ या टीचर पेपर हल्का करे तो पास हूँ? क्या करना पड़ता है? मैं पढूँ तो पास हूँ, यही ठीक है ना। ऐसे ही यहाँ भी सब बातों को, मैं स्वयं पास कर जाऊं। फलाना व्यक्ति पास करे– यह नहीं। फलानी परिस्थिति पास करे– यह नहीं। मुझे पास करना है। इसको कहा जाता है– छोड़ो तो छूटो। इन्तजार नहीं करो, इन्तजाम करो। नहीं तो पंछी भी हो, पंख भी हैं और सुन्दर भी बहुत हो, बाप के वृक्ष पर भी बैठ गये हो अर्थात् ब्राह्मण परिवार के भी बन गये हो लेकिन किसी भी प्रकार के स्व के संस्कार वा स्वभाव वा दूसरों के स्वभाव और संस्कार देखने और वर्णन करने की कमजोरी है, पुरूषार्थ में निराधार नहीं, आधार है, किसी भी व्यक्ति या वस्तु का लगाव है, किसी भी गुण वा शक्ति की कमी है– यह हैं भिन्न भिन्न डालियां। तो इन डालियों में से किसी डाली को पकड़ के तो नहीं बैठे हो? अगर किसी भी डाली को पकड़ा हुआ है तो बाप के सदा अगुंली पर नाचने अर्थात् सदा श्रीमत की अंगुली के आधार पर चलने, ऐसा समीप का अनुभव नहीं कर सकेंगे वा सदा बाप के हर कर्तव्य में सहयोगी अर्थात् कन्धे पर नाच नहीं सकेंगे। एक हैं सदा सहयोगी और दूसरे हैं कभी सहयोगी, कभी वियोगी। क्यों? क्योंकि किसी न किसी डाली को पकड़ लेते हैं तो सहयोगी के बजाए वियोगी बन जाते हैं। अब अपने आप से पूछो– मैं कौन? समझा– तो आज का पाठ क्या पक्का किया? “छोड़ो तो छूटो?” पक्का किया ना! डाली को तो नहीं पकड़ेंगे ना। थक जाते हैं ना तो डाली को पकड़कर बैठ जाते हैं। कभी स्वयं से थक जाते हैं, कभी दूसरों से थक जाते हैं, कभी सेवा से थक जाते हैं। तो डाली को पकड़कर फिर चिल्लाते हैं “अब छुड़ाओ, अब छुड़ाओ।” पकड़ा खुद और छुड़ावे बाप। यह क्यों? इसीलिए बाप सदा छोड़ने की युक्ति बताते। छोड़ेंगे तो खुद ना। करेंगे तो पायेंगे। यह भी बाप करेंगे तो पायेंगे कौन? करे बाप और पायें आप? इसलिये बाप करावनहार बन निमित्त आपको बनाते हैं। तो महाराष्ट्र और राजस्थान में पंछी तो सब सुन्दर हो ना? बाम्बे में सुन्छर पंछी होते हैं ना और राजस्थान में भी? हो तो बाप के सभी सुन्दर पंछी, पंखों वाले पंछी। लेकिन डाली वाले पंछी हैं वा उड़ने वाले हैं– यह चैक करो। कइयों की आदत भी होती है, कितना भी उड़ावें फिर जाकर बैठ जायेंगे। किसी भी बात में वशीभूत होना अर्थात् डाली को पांव से पकड़ना, वाशीकरण मंत्र भूल जाते तो वशीभूत हो जाते। तो महाराष्ट्र के पंछी कौन हैं? उड़ते पंछी। सारा महाराष्ट्र का ग्रुप कौन से पंछी हैं? उड़ते पंछी हैं वा डाली वाले हैं? और राजस्थान से कौन से पंछी आये हैं? “छोड़ो तो छूटो” या “छोड़ दिया है और छूट गये हैं।” थक जाते हैं तो डाली को पकड़ लेते हैं। राजस्थान के पंछी तो बहुत सुन्दर प्रसिद्ध हैं। नाचने वाले पंछी हैं ना। किसके वश तो नहीं होते ना। चक्कर लगाने वाले पंछी अर्थात् सोचते बहुत हैं– यह करेंगे, यह करके दिखायेंगे, लेकिन फिरते रहते हैं। आस-पास, उड़ते नहीं हैं। ऐसे भी बहुत हैं– “करेंगे-करेंगे, होगा, दिखायेंगे, सोचेंगे...।” गें गें करने वाले हैं। यह है आसपास चक्कर लगाने वाले। तो कौन सा ग्रुप लाई हो? बाम्बे से कौन सा लाई हो? राजस्थान से कौन सा लाई हो? सुन्दर तो सभी हैं क्योंकि बाप के बन गये। ब्राह्मण बनना अर्थात् रंग लग गया। रंग तो आ गया और पंख भी आ गये। बाकी है छोड़ो तो छूटो। अच्छा–

तो आज रमणीक बच्चे आये हैं ना। तो बापदादा ने भी वतन की रमणीक बातें सुनाई।

अच्छा। ऐसे सदा बाप समान, उड़ते पंछी, सदा बेहद के सेवा की परिक्रमा लगाने वाले, सदा सर्व डालियों के बंधन से मुक्त, जब चाहें उड़ जाएं, ऐसे सदा स्वतन्त्र पंछी, सदा बाप के अंगुली पर नाचने वाले अर्थात् श्रीमत के आधार पर सदा श्रेष्ठ संकल्प, बोल और कर्म करने वाले ऐसे श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात–

(राजस्थान और महाराष्ट्र जोन) 1. सच्ची सीता वह– जिसकी नस-नस में राम के स्मृति का आवाज हो अपने को सच्ची सीता समझते हो? सच्ची सीता अर्थात् हर कदम श्रीमत की लकीर के अन्दर। तो सदा लकीर के अन्दर रहते हो ना? राम एक है बाकी सब सीताएं हों। सीता को लकीर के अन्दर ही बैठना है। सदा बाप की याद, सदा बाप की श्रीमत– ऐसी लकीर के अन्दर रहने वाली सच्ची सीता। एक कदम भी बिना श्रीमत के नहीं। जैसे ट्रेन को पटरी पर खड़ा कर देते हैं तो आटोमेटिकली रास्ते पर चलती रहती है, ऐसे ही रोज अमृतवेले याद की लकीर पर खड़े हो जाओ। अमृतवेला है फाउन्डेशन। अमृतवेला ठीक है तो सारा दिन ठीक हो जायेगा। प्रवृत्ति में रहने वालों को विशेष अमृतवेले का फाउन्डेशन पक्का होना चाहिए तो सारा दिन स्वत: सहयोग मिलता रहेगा। लौकिक प्रवृत्ति में रहते भी सदा एक बाप की सच्ची सीता बनकर रहो। सीता को सदा राम ही याद रहे। नस-नस में राम के स्मृति की आवाज हो– ऐसी सच्ची सीताएं हो ना। इसी को कहा जाता है– न्यारा और प्यारा। जितना न्यारे उतना बाप के प्यारे।

2. हर कदम में पदमों की कमाई का साधन– अपने को विशेष आत्मा समझकर चलो सदा हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने का साधन है, हर कदम में अपने को विशेष आत्मा समझो– तो जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति स्वत: हो जायेगी। कर्म भी विशेष हो जायेंगे। तो सदा यह स्मृति रहे कि मैं विशेष आत्मा हूँ क्योंकि आपने अपना बना लिया। इससे बड़ी विशेषता और क्या हो सकती है! भगवान के बच्चे बन जाना, यह सबसे बड़ी विशेषता है। सदा इसी स्मृति में रहना अर्थात् पदमों की कमाई जमा करना। किसके बने और क्या बने हैं, यह भी याद रखो तो कमाई होती रहेगी। विश्व के आत्माओं की निगाह आपके ऊपर है, इतनी ऊंचे ते ऊंची आत्मायें हो, तो सदा यह स्मृति में रखर हर पार्ट बजा रहे हैं। यह ब्राह्मण जीवन है ही आदि से अन्त तक स्टेज के ऊपर पार्ट बजाने वाले। जब सदा यह स्मृति रहेगी कि मैं बेहद विश्व की स्टेज पर हूँ तो स्वत: हर कर्म के ऊपर अटेन्शन रहेगा। इतना अटेन्शन रखकर कर्म करेंगे तो कमाई जमा होती रहेगी।

3. समीप आत्माओं की निशानी– सदा बाप के समान सदा अपने को बाप के समीप आत्मा समझते हो? समीप आत्माओं की निशानी क्या होती है? सदा बाप के समान, जो बाप के गुण वह बच्चों के गुण। जो बाप का कर्तव्य वह सदा बच्चों का कर्तव्य। हर संकल्प और कर्म में बाप समान, इसको कहते हैं समीप आत्मा। जो समीप स्थिति वाले हैं वे सदा विघ्न-विनाशक होंगे। किसी भी प्रकार के विघ्न के वशीभूत नहीं होंगे। अगर विघ्न के वशीभूत हो गये तो विघ्न-विनाशक नहीं कह सकते। किसी भी प्रकार के विघ्न को पार करने वाला इसको कहा जाता है विघ्न-विनाशक। तो कभी किसी भी प्रकार के विघ्न को देखकर घबराते तो नहीं हो? क्या और कैसे का क्वेश्चन तो नहीं उठता हैं, अनेक बार के विजयी हैं...यह स्मृति रहे तो विघ्न-विनाशक हो जायेंगे। अनेक बार की हुई बात रिपीट कर रहे हो, ऐसे सहजयोगी। इस निश्चय में रहने वाली विघ्न-विनाशक आत्मायें स्वत: और सहजयोगी होंगी।

4. संगमयुग है समर्थ युग, इससे व्यर्थ को समाप्त कर समर्थ बनोसदा अपने को समर्थ आत्मायें समझकर चलते हो? जब सर्वशक्तिमान की स्मृति है तो स्वत: समर्थ हो। समर्थ आत्मा की निशानी क्या होगी? जहाँ समर्था है वहाँ व्यर्थ सदा के लिए समाप्त हो जाता है। समर्थ आत्मा अर्थात् व्यर्थ से किनारा करने वाले। संकल्प में भी व्यर्थ नहीं। ऐसे समर्थ बाप के बच्चे सदा समर्थ। आधाकल्प तो व्यर्थ सोचा, व्यर्थ किया– अब संगमयुग है समर्थ युग। समर्थ युग, समर्थ बाप और समर्थ आत्माएं। तो व्यर्थ समाप्त हो गया ना। सदा यह स्मृति मे रखो कि हम समर्थ युग के वासी, समर्थ बाप के बच्चे, समर्थ आत्मा हैं। जैसा समय, जैसा बाप वैसे बच्चे। कलियुग है व्यर्थ। जब कलियुग का किनारा कर चुके, संगमयुगी बन गये तो व्यर्थ से किनारा हो ही गया। तो सिर्फ समय की याद रहे तो समय के प्रमाण स्वत: कर्म चलेंगे। अच्छा– ओम् शान्ति।
वरदान:
साकार रूप में बापदादा को सम्मुख अनुभव करने वाले कम्बाइन्ड रूपधारी भव
जैसे शिवशक्ति कम्बाइन्ड है, ऐसे पाण्डवपति और पाण्डव कम्बाइन्ड हैं। जो ऐसे कम्बाइन्ड रूप में रहते हैं उनके आगे बापदादा साकार में सर्व सम्बन्धों से सामने होते हैं। अभी दिनप्रतिदिन और भी अनुभव करेंगे कि जैसे बापदादा सामने आये, हाथ पकड़ा, बुद्धि से नहीं आंखों से देखेंगे, अनुभव होगा। लेकिन सिर्फ एक बाप दूसरा न कोई, यह पाठ पक्का हो फिर तो जैसे परछाई घूमती है ऐसे बापदादा आंखों से हट नहीं सकते, सदा सम्मुख की अनुभूति होगी।
स्लोगन:
मायाजीत, प्रकृतिजीत बनने वाली श्रेष्ठ आत्मा ही स्वकल्याणी वा विश्व कल्याणी है।