Wednesday, September 7, 2016

मुरली 8 सितंबर 2016

08-09-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन 

मीठे बच्चे– बाप आये हैं तुम्हें ऐसे श्रेष्ठ कर्म सिखलाने, जिससे तुम 21 जन्म की बादशाही का वर्सा ले सको, अटल अखण्ड राज्य के मालिक बन सको।   
प्रश्न:
गृहस्थियों और सन्यासियों के किस एक सिद्धान्त में बहुत बड़ा अन्तर है?
उत्तर:
गृहस्थियों का सिद्धान्त है कि भगवान जरूर किसी न किसी रूप में आयेगा और सन्यासियों का सिद्धान्त है कि ब्रह्म को याद करते-करते ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। अब बाप समझाते हैं ब्रह्म में कोई लीन नहीं होता। आत्मा अमर है वह लीन कैसे होगी। भगवान यदि आयेगा तो जरूर टीचर बनकर शिक्षा देगा। प्रेरणा से तो ज्ञान नहीं देगा ना।
गीत:-
तुम्हें पाके हमने.....   
ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे रूहानी बच्चों ने यह गीत सुना। रूहानी बच्चे ही कहते हैं कि बाबा। बच्चे जानते हैं यह बेहद का बाप बेहद का सुख देने वाला है अर्थात् वह सभी का बाप है, उनको सभी बेहद के बच्चे आत्मायें याद करते हैं। किसी न किसी प्रकार से याद करते हैं परन्तु उनको पता नहीं है कि हमको उस परमपिता परमात्मा से कोई बादशाही लेनी है। तुम जानते हो हमको जो बाप सतयुगी विश्व की बादशाही देते हैं वह अटल, अखण्ड, अडोल है। वह हमारी बादशाही 21 जन्म कायम रहती है। सारे विश्व पर हमारी राजाई रहती है, जिसको कोई छीन नहीं सकता, लूट नहीं सकता है। हमारी राजाई है अडोल क्योंकि वहाँ एक ही धर्म होता है, द्वैत है नहीं। वह है अद्वैत राज्य। बच्चे जब गीत सुनते हैं तो अपनी राजाई का नशा बुद्धि में आना चाहिए। ऐसे-ऐसे गीत घर में रहने चाहिए, जिससे बाप और वर्से की झट याद आती है। बाप के याद की मस्ती के गीत होने चाहिए। तुम्हारा सब है गुप्त। बड़े आदमियों के तो बहुत ठाठ होते हैं, तुमको कोई ठाठ नहीं है। तुम देखते हो जिसमें बाबा ने प्रवेश किया है उसमें भी कोई ठाठ की बात नहीं है। कपड़े आदि सब वही हैं। तुम बुद्धि से समझते हो कि बाबा ने इसमें प्रवेश किया है– हमको यह राज्य भाग्य देने। यह भी बच्चे जानते हैं कि सारी सृष्टि में इस समय जो भी मनुष्य मात्र हैं, सब देह-अभिमान में आकर अनराइटियस काम करते हैं, इसलिए बेसमझ कहा जाता है। सबकी बुद्धि को ताला लगा हुआ है। तुम कितने समझदार, विश्व के मालिक थे। अभी माया ने बिल्कुल बेसमझ बना दिया है, जो कोई काम के नहीं रहे हैं। बाप के पास जाने के लिए यज्ञ-तप बहुत करते हैं परन्तु मिलता कुछ नहीं। ऐसे ही धक्के खाते रहते हैं। परमात्मा को कोई भी जानते नहीं, सर्वव्यापी कह देते हैं, यह भी कितना रांग हो जाता है। पिता अक्षर बुद्धि में नहीं आता है। करके कोई कहते भी हैं, वह भी कहने मात्र। अगर परमपिता समझें तो बुद्धि एकदम चमक उठे। बाप स्वर्ग का वर्सा देते हैं, वह है हेविनली गॉड फादर फिर हम कलियुगी नर्क में क्यों पड़े हैं! अब हम मुक्ति-जीवनमुक्ति कैसे पा सकते हैं, यह किसकी बुद्धि में नहीं आता है। अभी तुमको समझ मिली है। बाबा ने हमको यह स्मृति दिलाई है, जब नई दुनिया, नया भारत था तो हमारा राज्य था। एक ही मत, एक ही भाषा, एक ही महाराजा-महारानी थे। सतयुग में महाराजा-महारानी, त्रेता में राजा रानी कहा जाता है। फिर द्वापर में वाम मार्ग शुरू होता है फिर हर एक के कर्मों पर मदार है। कर्मो अनुसार एक शरीर छोड़ दूसरा लेते हैं। अभी बाप कहते हैं मैं तुमको ऐसे कर्म सिखाता हूँ जो 21 जन्म बादशाही ही पाते रहेंगे। भल वहाँ भी हद का बाप मिलता है परन्तु वहाँ यह ज्ञान नहीं रहता कि यह राजाई का वर्सा बेहद के बाप का दिया हुआ है। फिर द्वापर से रावण राज्य शुरू होता है तो विकारी सम्बन्ध हो जाता है। फिर जैसे-जैसे कर्म वैसा फल मिलता है, देवता वाम मार्ग में चले जाते हैं। फिर सतयुग का सब खलास हो जाता है। फिर कर्मो अनुसार जन्म लेते हैं। भारत में पूज्य राजायें थे तो पुजारी राजायें भी थे। सतयुग में राजा-रानी और प्रजा सब पूज्य होते हैं। फिर जब द्वापर में भक्ति शुरू होती है तो यथा राजा-रानी तथा प्रजा पुजारी बन जाते हैं। बड़े राजा जो सूर्यवंशी थे वही पुजारी बन जाते हैं फिर वैश्य वंशी बन जाते हैं। अभी तुम वाइसलेस बनते हो। उसकी प्रालब्ध फिर 21 जन्म चलती है फिर भक्ति मार्ग शुरू होता है। जो-जो पूज्य देवी-देवता होकर गये हैं, उन्हों के मन्दिर बनाकर उनकी पूजा करते हैं। यह सिर्फ भारत में ही होता है। यह 84 जन्मों की कहानी जो बाप सुनाते हैं, यह भी भारतवासियों के लिए है। और धर्म वाले आते ही बाद में हैं फिर तो वृद्धि होते-होते ढेर के ढेर हो जाते हैं। वैराइटी भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की रसम रिवाज थी, वह भारत के गुरूओं की नहीं है। आधाकल्प बाद रावणराज्य शुरू होने से सारी-रसम रिवाज ही बदल जाती है फिर पूज्य से पुजारी बन जाते हैं। पूजा भी पहले अव्यभिचारी एक शिव की करते हैं। उनके मन्दिर बनाते हैं फिर लक्ष्मी-नारायण के बनायेंगे। एक ने लक्ष्मी-नारायण का मन्दिर बनाया तो दूसरा भी बनायेंगे। फिर राम सीता के मन्दिर बनाने लग पड़ेंगे फिर कलियुग में देखो गणेश, हनूमान, चण्डिका देवी आदि-आदि के अनेक देवियों के चित्र बनाते रहते हैं। भक्ति मार्ग के लिए सामग्री भी चाहिए ना। जैसे बीज कितना छोटा होता है, झाड़ कितना बड़ा होता है वैसे भक्ति का विस्तार हो जाता है। ढेर के ढेर शास्त्र बनाये जाते हैं। अब बाप बच्चों को कहते हैं– यह भक्ति मार्ग की सामग्री सब खत्म होनी है। अब मुझ बाप को याद करो। भक्ति का प्रभाव भी बहुत है ना। कितनी खूबसूरत है। नाच-तमाशा, गायन-कीर्तन आदि कितना खर्चा करते हैं। अभी बाप कहते हैं मुझ बाप और वर्से को याद करो। आदि सनातन धर्म को याद करो। अनेक प्रकार की भक्ति तुम जन्म-जन्मान्तर करते आये हो। गृहस्थ धर्म वाले ही भक्ति शुरू करते हैं। सन्यासियों को तो भक्ति नहीं करनी है, यज्ञ-तप, दान-पुण्य, तीर्थ आदि यह सब गृहस्थियों का काम है, न कि सन्यासियों का। वह हैं ही निवृत्ति मार्ग वाले। उन्हों के लिए कायदा है– घरबार छोड़ जाए जंगल में रहना और ब्रह्म तत्व को याद करना। वह हैं ही तत्व ज्ञानी, ब्रह्म ज्ञानी। तत्व अथवा ब्रह्म को ही ईश्वर कह देते हैं। जैसे भारतवासी असुल में हैं आदि सनातन देवी-देवता धर्म के। परन्तु हिन्दुस्तान में रहते हैं तो अपना धर्म हिन्दू समझ लिया है। वैसे सन्यासी भी आत्माओं के रहने के स्थान तत्व को परमात्मा समझ लेते हैं। ब्रह्म वा तत्व को ही याद करते हैं। वास्तव में सन्यासी जब सतोप्रधान हैं तो जंगल में जाकर रहते हैं, शान्ति में। ऐसे नहीं कि उन्हों को ब्रह्म में जाकर लीन होना है। बाप कहते हैं-यह उन्हों का मिथ्या ज्ञान है। लीन कोई हो नहीं सकते। आत्मा तो अविनाशी है ना, वह कैसे लीन हो सकती है। भक्ति मार्ग में कितना माथा कूटते रहते हैं। फिर कहते भगवान कोई न कोई रूप में कभी आकर मिलेगा। अब कौन राइट? वह कहते ब्रह्म से योग लगाकर ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। गृहस्थ वाले कहते कि भगवान किस न किस रूप में आयेगा। पतितों को पावन बनायेगा। ऐसे नहीं कि ऊपर से प्रेरणा द्वारा ही सिखलायेंगे। टीचर घर बैठे प्रेरणा करेगा क्या! प्रेरणा अक्षर है नहीं। प्रेरणा से कोई काम नहीं होता। भल शंकर की प्रेरणा से विनाश कहा जाता है परन्तु है यह ड्रामा की नूँध। उन्हों को यह मूसल आदि बनाने ही हैं। प्रेरणा की बात ही नहीं है। मनुष्य तो कह देते हैं कि भगवान की प्रेरणा से सब होता है या कहते हैं कि शंकर की ऑख खुलने से प्रलय हो गई। यह सब कहानियां हैं, अर्थ कुछ भी नहीं समझते हैं। किसके भी मन्दिर में जायेंगे तो कहेंगे अचतम् केशवम्... अर्थ कुछ नहीं समझते। कोई भी अपने बड़ों की महिमा नहीं जानते हैं। धर्म स्थापक को गुरू कह देते हैं। वास्तव में उनको गुरू कहना रांग है। क्राइस्ट कोई गुरू थोड़ेही है। वो तो सिर्फ धर्म स्थापन करते हैं। गुरू उनको कहा जाता है जो सद्गति करे। वह तो धर्म स्थापन करने आते हैं। उनके पिछाड़ी उनकी वंशावली आती है। सद्गति तो किसकी करते ही नहीं। तो उनको गुरू कैसे कहेंगे। गुरू तो एक ही है, जिसको सर्व का सद्गति दाता कहा जाता है। भगवान बाप ही आकर सर्व की सद्गति करते हैं। मुक्ति-जीवनमुक्ति देते हैं। उनकी याद कभी किससे छूट नहीं सकती। मनुष्य हे भगवान, हे ईश्वर कह एक बाप को ही याद करते हैं क्योंकि वह है सर्व का सद्गति दाता। बाप समझाते हैं यह सारी रचना है। रचयिता बाप मैं ही हूँ– सबको सुख देने वाला, वर्सा देने वाला एक ही बाप ठहरा। भाई-भाई को वर्सा दे नहीं सकते। वर्सा हमेशा बाप से मिलता है। मैं सभी बेहद के बच्चों को बेहद का वर्सा देता हूँ इसलिए ही मुझे याद करते हैं हे परमात्मा क्षमा करो। समझते कुछ भी नहीं। बाप कहते हैं- मैं कोई इन्हों के पुकारने से नहीं आता हूँ। यह तो ड्रामा में बना हुआ है। ड्रामा में मेरे आने का पार्ट भी नूँधा हुआ है। अनेक धर्म विनाश, एक धर्म की स्थापना वा कलियुग का विनाश, सतयुग की स्थापना करनी होती है। मैं अपने समय पर आपेही आता हूँ। यह भक्ति मार्ग का भी ड्रामा में पार्ट है। अब जब भक्ति मार्ग का पार्ट पूरा होता है तब आया हुआ हूँ। कल्प पहले भी बाबा आप ब्रह्मा तन में आये थे। यह ज्ञान अभी तुमको मिलता है। फिर कभी नहीं मिलेगा। यह है ज्ञान, वह है भक्ति। ज्ञान की प्रालब्ध है चढ़ती कला। कहा जाता है सेकेण्ड में जीवनमुक्ति। जनक को सेकेण्ड में जीवनमुक्ति मिली थी ना। यह भी अक्षर हैं। राधे जाकर अनुराधे बनती है। जनक भी जाकर फिर सीता का बाप अनु जनक बनता है। इस ज्ञान से एक-एक मिसाल दे रखा है। समझते कुछ भी नहीं हैं। कहते हैं जनक ने सेकेण्ड में जीवनमुक्ति पाई। क्या फिर एक जनक ने ही जीवनमुक्ति पाई? जीवनमुक्ति तो सब पाते हैं ना। सारी विश्व पाती है। सद्गति वा जीवनमुक्ति एक ही अक्षर है। जीवनमुक्ति अर्थात् जीवन को मुक्त करते हैं– इस रावण राज्य से। बाबा जानते हैं बच्चों की कितनी दुर्गति हो गई है, बिल्कुल दु:खी हो गये हैं। उन्हों की फिर सद्गति होनी है। पहले मुक्ति में जाकर फिर जीवनमुक्ति में आयेंगे। शान्तिधाम से फिर सुखधाम में आयेंगे। यह चक्र का राज बाप ने समझाया है। बाप कहते हैं– इस समय सारे सृष्टि का झाड़ जड़जड़ीभूत, तमोप्रधान हो गया है इसलिए कोई भी अपने को आदि सनातन देवी-देवता धर्म का समझते नहीं हैं। आदि सनातन देवी-देवता धर्म के थे क्योंकि देवतायें पवित्र थे। हम अपवित्र पतित अपने को देवता कैसे कहलाये इसलिए कहा जाता है– इन विकारों को छोड़ते जाओ। यह विकार आदि आधाकल्प से रहे हैं। अब एक जन्म में उनको छोड़ना, इसमें मेहनत लगती है। मेहनत बिगर थोड़ेही विश्व का मालिक बनेंगे। बाप को याद करेंगे तब ही अपने को तुम राजाई तिलक देते हो अर्थात् राजाई के अधिकारी बनते हो। जितना अच्छी रीति याद करेंगे, श्रीमत पर चलेंगे तो तुम राजाओं का राजा बनेंगे। पढ़ाने वाला टीचर तो आया है पढ़ाने। यह पाठशाला है ही मनुष्य से देवता बनने की। नर से नारायण बनाने की कथा सुनाते हैं। यह कथा कितनी नामीग्रामी है। इनको अमरकथा, सत्य नारायण की कथा तीजरी की कथा भी कहते हैं। देखो गीत कितना अच्छा है। बाबा हमको विश्व का मालिक बनाते हैं, जो मालिकपना कोई लूट न सके। कोई अर्थक्वेक आदि नहीं होगी। वहाँ विघ्न की कोई बात ही नहीं। ऐसा अटल, अखण्ड, पवित्रता, सुख-शान्ति का राज्य पा रहे हो। कल्प पहले मुआफ़िक हर 5 हजार वर्ष बाद भारत स्वर्ग बनता है। तुम जानते हो हम सो देवता थे फिर 84 जन्म लेते-लेते आकर यह बनते हैं। फिर हम सो देवता बनेंगे। इसको कहा जाता है स्वदर्शन चक्रधारी। अच्छा।

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) अपने आपको राजाई का तिलक देने के लिए याद की मेहनत करनी है। सब विकारों को छोड़ देना है।
2) ब्रह्मा बाप समान साधारण और गुप्त रहना है। बाहर का ठाठ आदि नहीं करना है। अपने भविष्य राजाई के नशे में रहना है।
वरदान:
साथी और साक्षीपन की स्मृति द्वारा सब बन्धनों से मुक्त होने वाले सर्व शक्ति सम्पन्न भव   
सर्व शक्तियों से सम्पन्न बन अधीनता से परे होने के लिए दो शब्द सदा याद रहें– एक साक्षी दूसरा साथी। इससे बन्धनमुक्त अवस्था जल्दी बन जायेगी। सर्वशक्तिवान बाप का साथ है तो सर्व शक्तियां स्वत: प्राप्त हो जाती हैं और साक्षी बनकर चलने से कोई भी बन्धन में फंसेंगे नहीं। निमित्त मात्र इस शरीर में रहकर कर्तव्य किया और साक्षी हो गये-इसका विशेष अभ्यास बढ़ाओ।
स्लोगन:
अशुद्ध और शुद्ध दोनों की युद्ध है तो ब्राह्मण के बजाए क्षत्रिय हो।