Sunday, September 4, 2016

मुरली 4 सितंबर 2016

04-09-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त बापदादा” रिवाइज:11-11-81 मधुबन

बिन्दु का महत्व
आज स्नेह के सागर बाप अपने स्नेही आत्माओं से मिलने आये हैं। बाप के स्नेह में दूर-दूर से भागते हुए मिलन स्थान पर पहुंच गये। बापदादा ऐसी स्नेही आत्माओं को स्नेह का रिटर्न स्नेह और सहयोग सदा देते हैं, अब भी दे रहे हैं और देते रहेंगे। सर्व स्थानों की स्नेही आत्मायें अब भी सूक्ष्म फरिश्तों के रूप में इस मिलन सभा में सम्मुख हैं। बापदादा डबल सभा देख रहे हैं। एक साकारी शरीरधारी इस धरनी पर बैठे हुए हैं, दूसरे आकारी रूपधारी जिन्हों को इस धरनी के स्थान की आवश्यकता नहीं, धरनी से ऊपर लाइट रूप में लाइट के आसनधारी, जो थोड़े स्थान पर बहुत दिखाई दे रहे हैं। तो दोनों सभाओं को बापदादा देख हर्षित हो रहे हैं। बापदादा बच्चों के स्नेह की शक्ति देख रहे हैं कि स्नेह की शक्ति के आधार पर सेकेण्ड में कितनी भी दूर से समीप पहुंच जाते हैं। जितनी स्नेह की शक्ति महान है, उतनी सम्मुख पहुंचने की स्पीड महान है। कितने अमूल्य् रत्न सामने आ रहे हैं। एक-एक रत्न की महिमा महान है। किस-किस महारथी का वर्णन करें। शमा के ऊपर परवाने आ रहे हैं। सभी बच्चों को बापदादा सदा सहजयोगी भव का वरदान दे रहे हैं। सिर्फ एक बिन्दी को याद करो। सबसे सरल मात्रा बिन्दी है। तो बापदादा सिर्फ बिन्दी का ही हिसाब बताते हैं। स्वयं भी बिन्दु रूप बनो, याद भी बिन्दु को करो और ड्रामा के हर दृश्य को जानने, करने के बाद बिन्दु की मात्रा लगा दो। एक बिन्दु की मात्रा में आप, बाप और रचना, सब आ जाता है। तो जानना ही क्या है- “बिन्दु”। करना भी क्या है-“बिन्दु को याद”। इसी बिन्दु की मात्रा के महत्व को जान सदा सहजयोगी बन सकते हो। कितना भी बड़ा विस्तार है लेकिन समाया हुआ बिन्दु में है। बीज बिन्दु, उसी में सारा वृक्ष समाया हुआ है। आत्मा बिन्दु उसी में 84 जन्मों के संस्कार समाये हुए हैं। 5 हजार वर्ष के ड्रामा को अब संगम के अन्त में समाप्त कर रहे हो, अब ड्रामा का चक्र पूरा हुआ अर्थात् जो चक्र बीत चुका उसको फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दी लगाए, बिन्दी बन अब घर जाना है। बिन्दु के साथ बिन्दु बनकर जाना है। घर भी सर्व बिन्दुओं का घर है। संकल्प, कर्म, संस्कार सब मर्ज अर्थात् बिन्दी लगी हुई है। समाप्ति की मात्रा है ही बिन्दु। सर्व गुण, सर्व ज्ञान के खजानों के सागर... लेकिन सागर भी है बिन्दु। सम्बन्ध और सम्पर्क मे भी आओ तो सर्व के मस्तक में क्या चमक रहा है-बिन्दु। सर्व कार्यकर्ता कौन हैं? बिन्दु ही हैं ना। चाहे धरनी से चन्द्रमा तक पहुंचे तो भी बिन्दु पहुंचा। चाहे आप साइलेन्स की शक्ति से 3 लोकों तक पहुंचते तो भी कौन पहुंचता? बिन्दु। साइंस की शक्ति या साइलेन्स की शक्ति, निर्माण करने की शक्ति वा निर्वाण में जाने की शक्ति है तो बिन्दु ना! बीज से इतना सारा वृक्ष विस्तार को पाता लेकिन विस्तार के बाद समाता किसमें है? बीज अर्थात् बिन्दु में। तो अनादि अविनाशी है ही बिन्दु। आप भी तीन कालों की नॉलेज, तीन लोकों की नॉलेज प्राप्त करते हो लेकिन प्राप्त करने वाला कौन? “बिन्दु”। आदि से अन्त तक वैरायटी पार्ट बजाया लेकिन पार्टधारी कौन? किसने पार्ट बजाया? बिन्दु ने। तो महत्व सारा बिन्दु का है। और बिन्दु को जाना तो सब कुछ जाना। सब कुछ पाया। बिन्दु रूप में स्थित हो जो संकल्प करो, जो भावना रखो, जो बोल बोलो, जो कर्म करो, जैसे बिन्दु महान है वैसे सर्व बातें महान हो जाती हैं अर्थात् स्वत: श्रेष्ठ हो जाती हैं। आत्मिक एनर्जा भी बिन्दु है, जो स्थापना की एनर्जा है और विनाशकारी भी एटामिक एनर्जा बिन्दु है। विनाश भी बिन्दु से होता, स्थापना भी बिन्दु से होती। सृष्टि चक्र के आदि में भी बिन्दु बन उतरते हो और अन्त में भी बिन्दु बन जाते हो। तो आदि अन्त का स्वरूप भी बिन्दु हुआ। कितना सहज हो गया। एक बिन्दु को याद करना मुश्किल है क्या? स्कूल में भी छोटे बच्चे बिन्दु की मात्रा सहज लगा सकते हैं। कहाँ भी पैन्सिल को रख दें तो बिन्दु हो जायेगी। तो इतनी सहज मात्रा याद नहीं रहती? इससे सहज और क्या बता सकते हैं। इससे सहज कुछ है? भक्ति में तो लम्बा चौड़ा आकार याद करते। बुद्धि में भावना द्वारा चित्र बनाते, तब भक्ति सिद्ध होती। यहाँ तो नॉलेज द्वारा सिर्फ क्या सामने रखते? बिन्दु। इसी बिन्दु की स्मृति द्वारा स्वय ही सिद्धि स्वरूप बन जाते। तो क्या सहज हुआ? बुद्धि में बिन्दु लगाना या आकार इमर्ज करना? इसीलिए सहजयोगी बनो। बिन्दु को जानो तो सदा सहज है। तो स्नेह के रिटर्न सहज साधन द्वारा सहजयोगी भव। तो सभी सहजयोगी बन गये ना। विस्तार में जाते हो तो मुश्किल में चल जाते हो क्योंकि विस्तार में जाने से क्वेश्चनमार्क बहुत लग जाते हैं इसलिए जैसे क्वेश्चनमार्क की मात्रा स्वयं ही टेढी है, तो क्या-क्या के क्वेश्चनमार्क के टेढ़े मार्ग पर चले जाते हो। बिन्दु बन विस्तार में जाओ तो सार मिलेगा। बिन्दु को भूल विस्तार मे जाते हो तो जंगल में चले जाते हो। जहाँ कोई सार नहीं। बिन्दु रूप में स्थित रहने वाले सारयुक्त, योगयुक्त, युक्तियुक्त स्वरूप का अनुभव करेंगे। उन्हों की स्मृति, बोल और कर्म सदा समर्थ होंगे। बिना बिन्दु बनने के विस्तार में जाने वाले सदा क्यों, क्या के व्यर्थ बोल और कर्म में समय और शक्तियां भी व्यर्थ गंवायेंगे क्योंकि जंगल से निकलना पड़ता है। तो सदा क्या याद रखेंगे? एक ही बात-बिन्दु। सहज है ना? इसमें भाषा जानो, न जानो लेकिन बिन्दु तो सब भाषा में है। और कुछ भी न जान सको लेकिन बिन्दु शब्द को तो जान जायेंगे। समझा-क्या करना है? बिन्दु शब्द ही कमाल का शब्द है। जादू का शब्द है। बिन्दु बनो और आर्डर करो तो सब तैयार हैं। संकल्प की ताली बजाओ और सब तैयार हो जायेगा। लेकिन बिन्दु की ताली प्रकृति भी सुनेगी, सर्व कर्मेन्द्रियां भी सुनेंगी और सर्व साथी भी सुनेंगे। बिन्दु बन करके ताली बजाने आती है? अच्छासदा अनादि अविनाशी स्वरूप रूप में स्थित रहने वाले, बिन्दु के महत्व को जान सदा महान रहने वाले, बिन्दु स्वरूप हो सर्व खजानों के सार को पाने वाले, सार-युक्त, योगयुक्त, जीवनमुक्त आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। टीचर्स के साथ:- सभी रूहानी सेवाधारी हो? रूहानी सेवाधारी का अर्थ ही है रूहानी खजानों से सम्पन्न तब ही रूहानी सेवाधारी बन सकते हो। सेवाधारी अर्थात् देने वाला। सेवा द्वारा सुख देने वाला इसको कहते हैं सेवाधारी। तो देने वाला जरूर स्वयं सम्पन्न होगा तब तो औरों को दे सकेगा! तो सेवाधारी अर्थात् मास्टर सुख दाता, मास्टर शान्ति दाता, मास्टर ज्ञान दाता। दाता सदा सम्पन्न मूर्त होते हैं। जैसे स्वयं होंगे वैसे औरों को बनायेंगे। अगर स्वयं में किसी भी शक्ति की कमी है तो औरों को भी सर्व शक्तिवान नहीं बना सकते हैं। रूहानी सेवाधारी अर्थात् सर्वशक्तिवान। रूहानी सेवाधारी अर्थात् एवररेडी और आलराउन्ड। आलराउन्ड सेवाधारी ही सच्चे सेवाधारी हैं। तो सच्चे सेवाधारी के सर्व लक्षण अपने में अनुभव करते हो? जो सम्पन्न होंगे वह सदा सन्तुष्ट होंगे और सर्व को सन्तुष्ट करेंगे। किसी भी प्रकार की अप्राप्ति असन्तुष्टता पैदा करती है। सर्व प्राप्ति हैं तो सदा सन्तुष्ट। सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना, उसकी विधि है सम्पन्न और दाता। दोनों बातें चाहिए। कोई सम्पन्न हो लेकिन दाता न हो तो भी सन्तुष्ट नहीं कर सकते। तो दाता भी और सम्पन्न भी। यह खुशी तो सभी को है ना कि हम विशेष आत्मायें हैं? सारे विश्व में से कितनी थोड़ी सी आत्मायें सदा बाप की सेवा में तत्पर रहने वाली निमित्त बनती हैं। तो जो कोटो में कोई, कोई में कोई आत्मायें निमित्त बनती हैं उसमें हमारा ही पार्ट है, हमारा नाम है, यह कितनी बड़ी खुशी है। कोटों में कोई...यह हमारा गायन है, यह रूहानी नशा रहता है? रूहानी नशा सदा जितना ऊंचा उतना नम्र बनायेगा। देहभान का नशा होगा थोड़ा लेकिन घमण्ड से, अभिमान से ऊंचा समझेंगे। सच्चे नशे में रहने वाले सदा नम्रचित होंगे। नम्रता से ही सबको अपने आगे झुकायेंगे। सुखदाता, नम्रचित आत्मा बन सकती है। अभिमान नम्रचित बनने नहीं देता। नम्रचित नहीं तो सेवा हो नहीं सकती। तो सेवाधारी की विशेषता सदा नम्रचित स्वयं झुका हुआ होगा तब औरों को झुका सकेगा। तो रूहानी सेवाधारी! रूहानी शब्द सदा याद रखो। चलते फिरते, बोलते... कर्म में रूहानियत दिखाई दे। साधारणता नहीं, रूहानियत। सन्तुष्ट आत्मा को ही सेवाधारी का टाइटल मिल सकता है। सन्तुष्टता नहीं तो सेवा लेगे। तो सेवा लेने वाले हो या सेवा करने वाले हो? रूहानी सेवाधारी लेने वाले नहीं, आज यह हुआ, कल यह हुआ... ऐसी बातों के पीछे समय गंवाकर सेवा तो नहीं लेते हो? यह सब बचपन की बातें हैं। अब बचपन समाप्त हुआ। अभी जो लिया उसका रिटर्न करना है। अभी कोई भी कचहरी नहीं होनी चाहिए। बड़ों का एक्स्ट्रा समय नहीं लेना है, किस्से कहानियां समाप्त। अगर अभी तक भी सेवा लेने वाले हो तो आज से समाप्त कर देना। बिन्दी लगा देना। बीती सो बीती, बिन्दी लग गई ना। तो समाप्ति की बिन्दी लगाकर जाना। बिन्दी लगाकर सदा सन्तुष्ट रहना और सबको सन्तुष्ट करना, यही पाठ सदा याद रखना। अच्छा। निर्मलशान्ता दीदी से:- महान आत्मा अर्थात् सफलता मूर्त। तो सदा सफलतामूर्त हो ना? जो जितने हल्के रहते हैं, उतना सहज और स्वत: कार्य हो जाता है। जो ज्यादा कार्य का बोझ उठाते हैं तो बोझ के कारण निर्णय शक्ति काम नहीं कर सकती है इसलिए सफलता में फर्क पड़ जाता है। कार्य करने के पहले सदा स्वयं डबल लाइट, वायुमण्डल भी लाइट, स्वयं भी लाइट, साथी भी सब लाइट– तो लाइट हाउस का कार्य हो ही जाता है। लेकिन कोई भी कार्य जब शुरू करते हैं तो लक्ष्य ठीक रखते हैं, फिर बीच में वह लक्ष्य मर्ज हो जाता है। आदि शक्तिशाली होता, मध्य में परसेन्टेज कम हो जाती है। जैसे आदि में प्लैन के समय अटेन्शन रखते, ऐसे जब प्रैक्टिकल कार्य में बिजी हो जाते हो तब भी अटेन्शन रहे। आदि-मध्य-अन्त एक समान रहे तो सफलता सहज हो जायेगी। अच्छा। इस बारी मेले में शान्ति कुण्ड बनाना। जिससे सब समझें कि यहाँ आवाजं होते भी शान्ति है। वृत्ति और अनुभूति ही बदल जाए। (बापदादा कलकत्ते में आवें) जरूर, हाँ वह समय दिखायेगा क्योंकि बच्चे बुलावें बाप न आवें यह हो नहीं सकता। लेकिन किस रीति से आयेंगे यह देखना। कुछ नया होना चाहिए ना। अच्छा। जो बनायेंगे उसमें सफल हो जायेंगे, क्योंकि सच्ची दिल पर साहेब राजी। यह मेला भी बाप के दर्शन करने का स्थान है। भक्त दर्शन करेंगे और बच्चे मिलन मनायेंगे। अच्छा है, यह भी एक साधन है स्व के लिए और अन्य आत्माओं के लिए। ब्राह्मण भी उमंग-उत्साह में आ जाते हैं और अन्य की भी सेवा हो जाती है। स्व की भी सेवा और औरों की भी सेवा। संगमयुग का यह समय ही है श्रेष्ठ तकदीर बनाने का। सारे कल्प के लिए श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ तकदीर अभी ही बना सकते हो। संगम पर ही बाप द्वारा सर्व अधिकार प्राप्त होते हैं। तो अधिकारी आत्मा हो, श्रेष्ठ आत्मा हो, श्रेष्ठ प्रालब्ध पाने वाले हो। सदा यह स्मृति में रखो तो समर्थ हो जायेंगे। समर्थ होने से मायाजीत बन जायेंगे। समर्थ आत्मा विघ्न-विनाशक होती है। संकल्प में भी विघ्न आ नहीं सकता। मास्टर सर्वशक्तिवान सदा विघ्न-विनाशक होंगे। अच्छा। विदाई के समय:- सभी ने सुना तो बहुत है, बाकी कुछ सुनना रह गया है क्या? सिर्फ एक ही बात रह गई है– वह कौन सी? पाना था वो पा लिया काम क्या बाकी रहा! सब समाप्त हो गया है, क्या रहा है? अभी सिर्फ एक बात बापदादा देखना चाहते हैं। सभी 16 श्रृंगारधारी सजी सजाई सजनियां अर्थात् 16 कला सम्पन्न। 16 श्रृंगार ही 16 कला हैं। तो सभी 16 कला सम्पन्न अर्थात् 16 श्रृंगारधारी बनें। अभी तक कोई 8 कला, कोई 10 कला, कोई 11 कला... लेकिन सभी 16 कला बन जाएं, अपने-अपने नम्बर अनुसार सभी 16 कला तो होंगे ना। जैसे और धर्मों की भी अपने हिसाब से गोल्डन स्टेज होती है। तो यहाँ भी सभी की अपने हिसाब से 16 कला होगी ना! कहना, करना और सोचना सब समान हो तो सम्पन्न बन जायेंगे। बापदादा अब इसी स्वरूप में सबको देखना चाहते हैं। वह कब होगा? इसके लिए सब तैयारी भी करते हैं, संकल्प भी करते हैं, इच्छा भी यही एक है। बाकी क्या रह जाता है? स्टेज पर जब बैठते हो तो क्या सुनाते हो कि बस अब सम्पन्न बनना है! तो इच्छा भी सबको है, लेकिन बाकी क्या रह जाता है? अगर और सब इच्छाओं से इच्छा मात्रम् अविद्या हो जाओ तो यह इच्छा पूरी हो जाये। छोटी-छोटी और इच्छायें इस एक इच्छा को पूर्ण करने नहीं देती हैं। अच्छा।
वरदान:
सोचना, बोलना और करना तीनों को समान बनाने वाले सर्वोत्तम पुरूषार्थी भव!  
सभी शिक्षाओं का सार है-कि कोई भी कर्म से देखने, उठने, बैठने-चलने सोने से फरिश्तापन दिखाई दे, हर कर्म में अलौकिकता हो। कोई भी लौकिकता कर्म वा संस्कारों में न हो। सोचना, करना, बोलना सब समान हो। ऐसे नहीं कि सोचते तो थे कि यह न करें लेकिन कर लिया। जब तीनों ही एक समान और बाप समान हो तब कहेंगे श्रेष्ठ वा सर्वोत्तम पुरूषार्थी।
स्लोगन:
जिम्मेवारी उठाना अर्थात् एकस्ट्रा दुआओं का अधिकारी बनना।