“मीठे बच्चे - देह-अभिमान छोड़ देही-अभिमानी बनो, देही-अभिमानियों को ही ईश्वरीय सम्प्रदाय कहा जाता है”
प्रश्न:
तुम बच्चे अभी जो सतसंग करते हो यह दूसरे सतसंगों से निराला है, कैसे?
उत्तर:
यही एक सतसंग है जिसमें तुम आत्मा और परमात्मा का ज्ञान सुनते हो। यहाँ पढ़ाई होती है। एम ऑब्जेक्ट भी सामने है। दूसरे सतसंगों में न पढ़ाई होती, न कोई एम आब्जेक्ट है।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) एक बाप की सुमत पर चलकर मनुष्य से देवता बनना है। इस सुहावने संगमयुग पर स्वयं को पुरूषोत्तम पारसबुद्धि बनाना है।
2) 7 रोज़ की भट्ठी में बैठ पतित बुद्धि को पावन बुद्धि बनाना है। सत्य बाप से सत्य नारायण की सच्ची कथा सुन नर से नारायण बनना है।
वरदान:
तन की तन्दरूस्ती, मन की खुशी और धन की समृद्धि द्वारा श्रेष्ठ भाग्यवान भव
संगमयुग पर सदा स्व में स्थित रहने से तन का कर्मभोग सूली से कांटा हो जाता है, तन का रोग योग में परिवर्तन कर देते हो इसलिए सदा स्वस्थ हो। मनमनाभव होने के कारण खुशियों की खान से सदा सम्पन्न हो इसलिए मन की खुशी भी प्राप्त है और ज्ञान धन सब धनों से श्रेष्ठ है। ज्ञान धन वालों की प्रकृति स्वत: दासी बन जाती है और सर्व संबंध भी एक के साथ हैं, सम्पर्क भी होलीहंसों से है...इसलिए श्रेष्ठ भाग्यवान का वरदान स्वत: प्राप्त है।
स्लोगन:
याद और सेवा दोनों का बैलेन्स ही डबल लॉक है।
ओम् शांति ।
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